क्या गजब हुआ कि आजादी मिलने के बाद हम हिन्दू समाज की सामाजिक संरचना के उस अमानवीय व क्रूर आकार को ‘वर्ण व्यवस्था’ का नाम दे बैठे जिसे स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही महात्मा गांधी ने मिटाने का संकल्प लिया था और वर्ण क्रम में सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों को ‘शूद्र’ की जगह ‘हरिजन’ कह कर सम्बोधित किया था। भारतीय उपमहाद्वीप की यह विकट और विकराल समस्या थी क्योंकि शूद्रों के साथ पशुवत व्यवहार को कुछ हिन्दू धर्म ग्रन्थों में शास्त्र सम्मत तक बता दिया गया था।
पूरी दुनिया में जन्म के आधार पर मनुष्य की नियत जाति को मानदंड मान कर उसके साथ अमानवीय व्यवहार करने की यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही थी और इसने न केवल सामाजिक बल्कि आर्थिक छुआछूत को भी प्रतिष्ठापित कर रखा था। बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसी व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई और अंग्रेजों के भारत में इस वर्ग के लोगों के लिए चुनाव प्रणाली के तहत विशिष्ट क्षेत्राें में केवल अपने सम्प्रदाय के मतदाताओं को ही अपना प्रतिनिधि चुनने की छूट देने की मांग की जिसका पुरजोर विरोध महात्मा गांधी ने करते हुए 1932 में बाबा साहेब के साथ ‘पूना पैक्ट’ किया और शूद्रों को हिन्दू समाज का अभिन्न अंग मानते हुए उनके साथ सामाजिक व आर्थिक न्याय देने की मुहीम चलाई और उन्हें हरिजन नाम से सर्वत्र सम्बोधित किया जाने लगा।
हिन्दू वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्रों को केवल चतुर्वर्णी समाज के शेष तीन वर्णों की सेवा कार्य के लिए रचा गया जिसके अनुरूप उनका कार्य नियत कर दिया गया और उन्हें सभी उन कार्यों के लिए उपयुक्त माना गया जो शेष तीन वर्णों के कार्यों से उत्पन्न अपशिष्ट के निष्पादन के लिए जरूरी थे। डा. भीमराव साहब अम्बेडकर के अनुसार ईसा से चार सौ वर्ष पूर्व से यह व्यवस्था भारतीय उपमहाद्वीप में स्थापित थी, परन्तु सितम यह हुआ कि इस व्यवस्था ने भारतीय समाज को मनुष्यों का ऐसा वर्गीकृत जमावड़ा बना दिया जिसमें कर्म अर्थात कार्य के आधार पर नियत हुई जाति के लोगों के नैसर्गिक मूल मानवाधिकार अन्य जातियों में पैदा हुए लोगों के पास गिरवी रख दिये गये और उन्हें पशु समान समझ कर उनके साथ व्यवहार होने लगा।
जरा सोचिये जिन जातियों के लोगों के साथ हजारों वर्षों से जानवरों के समान व्यवहार होता रहा हो उनके केवल 72 साल के लघु अन्तराल में ही मनुष्यों के समान जीवन जीने की ललक से हम घबराने लगे हैं और सर्वोच्च न्यायालय में यह अपील तक दायर करने लगे हैं कि स्वतन्त्र भारत के संविधान में इन जातियों के लोगों को दिये गये संरक्षण से लाभ लेते हुए इस वर्ग के जो लोग सुख सम्पन्न हो चुके हैं उन्हें चिन्हित करके कम से कम सरकारी नौकरियों में उनकी प्रोन्नति के कोटे को समाप्त कर दिया जाये। क्या भारतीय समाज इतना भीरू है कि वह अनुसूचित जातियों या जन जातियों के कुछ लोगों के ही ऊपर की श्रेणी में आ जाने से स्वयं को असुरक्षित समझने लगा है? नहीं भूला जाना चाहिए कि दुनिया के किसी भी सामाजिक बराबरी के पैमाने से हजारों साल के अन्याय को केवल 72 वर्षों में नहीं पाटा जा सकता है।
असली सवाल यही रहेगा कि दलित का जो बेटा आज ऊपर उठ कर आर्थिक रूप से सम्पन्न हो चुका है क्या समाज में उसे उसकी ही जैसी आर्थिक हैसियत वाले ऊंची जाति के व्यक्ति के बराबर रख कर देखा जाता है और उसका इसी के अनुसार सम्मान किया जाता है? सवाल अमीर-गरीब का तब आता है जब समाज में जातिगत भेदभाव पूरी तरह मिट गया हो। ब्राह्मण का गरीब बेटा किसी दलित के गरीब बेटे के मुकाबले समाज में किसी ठाकुर की खटिया के सिरहाने बैठने पर हिकारत का भागी होता है और किसी ऊंचे औहदे पर तैनात दलित के बेटे की आवभगत जब-जब किसी कथित उच्च जाति का व्यक्ति अपने घर में करता है तो उसके जाने के बाद पूरी निष्ठुरता के साथ घर को पवित्र करने के व्यवहारी प्रयोजन करता है जिससे वह समाज के सामने अपनी मूंछें ऊंची रख सके।
लगभग एक वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ही सरकारी नौकरियों में प्रोन्नति में दलितों की ‘क्रीमी लेयर’ को अलग करने का आदेश दिया था। यह आदेश पिछड़ा वर्ग के आरक्षण कोटे की तर्ज पर नहीं था जिसमें लाभ पाने वाले लाभार्थियों के लगातार और लाभ लेने की स्थिति को क्रीमी लेयर मान कर उन्हें आरक्षण के लाभों से वंचित करने का प्रावधान था। यही फार्मूला अनुसूचित जातियों व जन जातियों पर हम कैसे लागू कर सकते हैं जबकि पिछड़े वर्ग और दलितों की सामाजिक व आर्थिक हकीकत अलग-अलग है। पिछड़ी जातियां मूलतः खेती पर निर्भर रहने वाली और इसकी सहायक कृषि मूलक अार्थिक गतिविधियों में ठोस योगदान देने वाली हैं जिनमें दस्तकार व शिल्पकार तक आते हैं। ग्रामीण परिवेश में पिछड़ों और दलितों के बीच भी ऊंच-नीच व भेदभाव विद्यामान है।
बेशक शैक्षणिक व सामाजिक रूप से यह वर्ग पिछड़ा हुआ है परन्तु इसका जातिबोध इसमें गौरव की यश गाथा को भी बयान करता हुआ चलता है जो कि दलितों के साथ पूरी तरह उलटा है। अतः केन्द्र सरकार के महाधिवक्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में यह गुहार लगा कर उचित ही किया है कि इस मामले को अब सात सदस्यीय संविधान पीठ के हवाले किया जाये क्योंकि पिछले साल का फैसला पांच सदस्यीय पीठ का था। सामाजिक न्याय व गैर बराबरी को मिटा कर समतामूलक समाज की स्थापना का कार्य न्यायोचित ढंग से अन्याय की परंपरा की पृष्ठभूमि को ध्यान में रख कर ही किया जा सकता है। इस सन्दर्भ में भारत में उदाहरणों की कमी नहीं है, जिनका वर्णन उचित नहीं लगता है।