झारखंड के सिमडेगा जिले के एक गांव में भूख से एक 11 वर्षीय बच्ची का मरना भारत के विकास की कहानी का सच बयान करता ऐसा दस्तावेज है जिसमें ‘भारत और इंडिया’ का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। हमने बड़े-बड़े शहरों में वाहनों की अन्धाधुन्ध कतारें लगाकर जो भी तरक्की की है, उसे यह घटना चुनौती देते हुए एेलान करती है कि हमारे विकास की कहानी ऐसे विकट विरोधाभासों से भरी हुई है जिसमें अंतिम पायदान पर बैठे हुए आदमी के पास इसकी हवा पहुंचने में बहुत बाधाएं हैं। यह पूरी तरह बेसबब है कि किसी गरीब आदमी को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से केवल इसीलिए राशन न मिल पाए कि उसके पास आधार कार्ड नहीं है। राशन कार्ड को आधार कार्ड से जोड़ने की प्रक्रिया गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले व्यक्ति के लिए किस प्रकार जरूरी बनाई जा सकती है? असल सवाल यह है कि जब राज्य सरकार अपने राज्य में बांटे गए राशन कार्डों के हिसाब से केन्द्रीय संभरण मंत्रालय से अनाज का कोटा उठा लेती है तो वह उसका वितरण लाभार्थियों को करने से किस प्रकार रोक सकती है और वह भी यह तर्क देकर कि राशन कार्ड का आधार कार्ड से जुड़ा होना जरूरी बना दिया गया है जबकि संभरण मंत्री श्री राम विलास पासवान का कहना है कि एेसा कोई नियम अभी तक नहीं बनाया गया है कि राशन कार्ड और आधार कार्ड को जोड़कर राशन की सप्लाई सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से की जाएगी।
जाहिर तौर पर यह राज्य की रघुबर दास सरकार की लापरवाही का एेसा नमूना है जिससे इस सरकार की पूरी कार्यप्रणाली का जायजा लिया जा सकता है। यह स्वयं मुख्यमन्त्री रघुबर दास के लिए शर्म का कारण हो सकता है क्योंकि वह भी एक अत्यन्त गरीब घर में जन्मे हैं और मजदूर आन्दोलन से उपजे नेता हैं। उनके शासन का मुखिया रहते यदि उनके राज्य में किसी व्यक्ति की मौत भूख की वजह से होती है तो यह उस भारत के माथे पर कलंक के अलावा और कुछ नहीं है जो स्वयं को परमाणु शक्ति सम्पन्न बना चुका है और अंतरिक्ष विज्ञान में विकसित देशों के समकक्ष आने की बातें कर रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि खुली बाजार व्यवस्था के बीच हम जिस आर्थिक तरक्की का गुणगान करते नहीं थकते उसकी हकीकत गरीब को भूखा मरते देखने की है। जिस देश ने अनाज उत्पादन में न केवल आत्मनिर्भरता बल्कि विदेशों तक को निर्यात करने की क्षमता अर्जित कर ली हो उसमें यदि एक व्यक्ति भी भूख से मरता है तो यकीनी तौर पर यह बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में गरीबों को उनके ही हाल पर छाेड़ने की प्रवृत्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता। सवाल यह भी है कि जिस ‘खाद्य सुरक्षा कानून’ को हम पिछले चार साल से ढो रहे हैं उसकी कैफियत क्या यह हो सकती है कि कोई व्यक्ति भूख से ही दम तोड़ दे और राज्य सरकार पहले यह लीपापोती करे कि बच्ची की मृत्यु मलेरिया बुखार से हुई और बाद में जांच के आदेश देकर अपना पल्ला झाड़ ले और परिवार को पचास हजार रु. की मदद देने की घोषणा कर दे। यह जले पर नमक छिड़कने के अलावा और क्या हो सकता है। पक्के तौर पर किसी गरीब की बेटी की जान की कीमत पचास हजार रुपए में नहीं आंकी जा सकती मगर यह सरकारी संवेदनहीनता की मिसाल है।
इसके साथ ही सरकारी योजनाओं की पोल भी यह घटना खोलती है और बताती है कि जो बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं उनकी असलियत ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ की मानिन्द ही है। क्या गजब का आर्थिक असंतुलन भारत में बना हुआ है कि एक तरफ तो बड़े-बड़े शहरों में पानी की एक बोतल तक को खरीद कर लोग पीते हैं और दूसरी तरफ सुदूर गांवों में लोगों के पास पेट भरने के लायक अनाज तक खरीदने की शक्ति नहीं है। इस असन्तुलन को खाद्य सुरक्षा कानून की मार्फत दूर करने का जो सरकारी प्रयास हुआ था वह लालफीताशाही और नौकरशाही तथा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। लोकतन्त्र में अगर कोई भी सरकार किसी भी व्यक्ति के भोजन के अधिकार की सुरक्षा नहीं कर सकती तो उसे सरकार किसी कीमत पर नहीं कहा जा सकता बल्कि उसे सत्ता भोगियों का निरंकुश समूह ही कहा जाएगा क्योंकि उसका कोई भी कार्य अन्ततः गरीब आदमी की हालत में सुधार के पैमाने पर ही तुलेगा और यही पैमाना किसी भी देश के विकास का होता है। विकास का पैमाना न मन्दिर होता है न मस्जिद बल्कि गांवों की वे गलियां होती हैं जिनमें आम इंसान भूख से लड़ता है मगर कितने नादान हैं राजनीतिज्ञ कि इन्हीं लोगों से अपने नारे लगवा कर उनका पेट बांधना चाहते हैं।
ये जिस्म भूख से झुक कर दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा