भगदड़ से मौतेंः जिम्मेदार कौन? - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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भगदड़ से मौतेंः जिम्मेदार कौन?

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इस बार हादसा रेल पटरी के कारण नहीं हुआ, न तो ट्रेन के डिब्बे पटरी से उतरे, न डिब्बे पलटे और न ही दो ट्रेनों की टक्कर हुई, इस बार हादसा रेलवे स्टेशन पर बने फुटआेवर ब्रिज पर हुआ। देखते ही देखते 22 लोग मौत की आगोश में चले गए और 30 लोग अस्पतालों में उपचार करा रहे हैं। 22 लोग सरकारी दस्तावेजों में मृतकों के नम्बर बन गए। मुम्बई लोकल महानगर के लोगों की लाइफ लाइन है। यह ट्रेनें जब किसी वजह से ठप्प होती हैं तो मुम्बई के लोगों की जिन्दगी ठहर जाती है। न तो लोग आफिस जा पाते हैं और न ही ठीक समय पर वापिस आ पाते हैं। इसी लाइफ लाइन के भरोसे लोग अपने काम-धंधों पर निकले लेकिन उन्हें नहीं पता था कि फुटओवर ब्रिज पर मौत उनका इंतजार कर रही है।

केन्द्रीय रेल मंत्री पीयूष गोयल रेलवे से जुड़ी कई योजनाओं का उद्घाटन करने मुम्बई आए थे लेकिन उन्हें हादसे की वजह से लोगों के आक्रोश का सामना करना पड़ा। पीयूष गोयल को हादसा स्थल पर पहुंचने से पहले ही लौटना पड़ा। संवेदनहीनता की हद देखिये, हादसे के बाद पुलिस ने शवों के माथे पर एक से 22 तक नम्बर लिख दिए जैसे किसी उत्पाद पर कीमत लिखी जाती है। मृतकों की तस्वीरें भी अस्पताल के सूचना पट्ट पर लगा दी गईं। मृतकों को इस तरह चिन्हित करना विश्वभर में पुलिस या उससे जुड़े विभागों का तरीका हो सकता है लेकिन ऐसी तस्वीरें सार्वजनिक करना किसी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है। मृतकों के परिवारों को सूचना देने के और भी तरीके हो सकते थे। क्या यह जरूरी था कि शवों के माथे पर अंक लिखे जाएं।

मृतकों के चित्र देखकर सोशल मीडिया पर लोग उबल पड़े। अधिकांश लोग महसूस करते हैं कि क्या मरने के बाद 22 लोगों की ब्रै​डिंग ऐसे जानवरों की तरह करना जरूरी था जिन्हें हलाल करने के लिए कत्लखाने ले जाया जाता है। क्या नम्बर तस्वीरों के ऊपर या नीचे नहीं लिखे जा सकते थे। जिनके घरों के चिराग बुझ गए, उनसे पूछिए ​जिन्दगियों की कीमत। रेलवे मंत्रालय या राज्य सरकार द्वारा मृतकों के परिजनों के लिए घोषित मुआवजा भी उनके आंसू पोंछ नहीं पाएगा। सवाल फिर हमारे सामने है कि इन मौतों का जिम्मेदार कौन है ? अंग्रेजों के ​जमाने के बने पुल अब कांपने लगे हैं। रेलवे विभाग भी यह जानता है कि इनसे हादसे कभी भी हो सकते हैं। ऐसे पुल मुम्बई में ही नहीं कई शहरों में हैं, जिनकी मियाद खत्म हो चुकी है, इसके बावजूद यात्री उनका इस्तेमाल कर रहे हैं।

रेलवे विभाग इंतजार करता रहता है कि हादसा हो जाए। रोजाना के यात्री और दो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु को पत्र लिखकर लगातार एक और पुल की मांग की थी। यह मांग पिछले दो वर्षों से की जा रही थी लेकिन मंत्री महोदय ने फंड की कमी का हवाला देकर असमर्थता व्यक्त कर दी थी। काश! मंत्रालय संवेदनशील होता तो यह पुल 22 जिन्दगियों को लील कर अपने निर्माण की कीमत नहीं वसूलता।  यह हादसा रेलवे के आधुनिकीकरण की तमाम घोषणाओं पर अभिशाप साबित हुआ। रोजाना ट्रेन से काम पर जाने और घर लौटने वाले मुम्बई से अहमदाबाद तक बुलेट ट्रेन की परियोजना पर तंज कसने लगे हैं क्योंकि रेलवे का खस्ताहाल बुनियादी ढांचा एक के बाद एक सवाल खड़े कर रहा है। भगदड़ से माैतें कोई नई बात नहीं, बड़े धार्मिक आयोजनों में बड़े हादसे होते रहे हैं।

भगदड़ से मौतें कब थमेंगी इसका जवाब पुलिस और प्रशासनिक अफसरों के पास भी नहीं है। लाखों लोगों की भीड़ को नियंत्रित करने का कोई कारगर फार्मूला भारत के पुलिस तंत्र और अफसरों ने अभी ईजाद ही नहीं किया। भगदड़ भीड़ प्रबंधन की असफलता या अभाव की स्थिति में पैदा हुई मानव निर्मित आपदा है। यह प्रायः भीड़ भरे इलाकों में किसी अफवाह के कारण भी पैदा हो जाती है। अचानक किसी अफवाह, आशंका या भय के कारण तेजी से भीड़ एक तरफ भागने लगती है, भीड़ के मनोविज्ञान को समझना मुश्किल है लेकिन एक रेलवे पुल पर भीड़ को नियंत्रित किया जा सकता है। सवाल तो यह है कि अगर पुलिस और अफसर पैसे लेकर फूल बेचने वालों, खाद्य पदार्थ बेचने वालों को पुल पर अपना सामान बेचने देंगे तो फिर भीड़ को कौन संभालेगा।

किसी ने नहीं देखा कि बारिश के चलते पुल पर भीड़ बहुत ज्यादा हो चुकी है, इसके लिए कोई उपाय किया जाए। भागदौड़ भरी जिन्दगी, बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और रोजगार की मजबूरी लोगों को विवेक शून्य बना रही है तो दूसरी तरफ प्रशासन भी विवेक शून्य हो चुका है। न तो पुल का कोई हिस्सा ध्वस्त हुआ, न कोई शार्ट सर्किट, फिर भी लोग एक-दूसरे पर गिरते रहे और पुल से उतरने वाले नीचे पड़े लोगों पर पांव रखकर भागते रहे। कोई सुनने वाला नहीं। जरूरत है ऐसे हादसों से सबक लेने की। जरूरत है भीड़ पर पैनी नज़र रखने की, अफवाहों की काट के लिए उपयोगी सूचनाओं के प्रसार की, मुकम्मल व्यवस्था और राहत, बचाव आदि की तैयारियां करने की।

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