जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सजग युवाओं की राष्ट्रीय चेतना प्रारम्भ से ही इस कदर व्यापक रही है कि जब 1972 के अन्त में कांग्रेस पार्टी के दिग्गज और हिन्दी भाषा के महान योद्धा सेठ गोविन्द दास का निधन हुआ तो उनकी मध्यप्रदेश की जबलपुर लोकसभा सीट से हुए उप चुनाव में श्री शरद यादव विपक्षी उम्मीदवार के तौर पर भारी मतों से जीत कर दिल्ली आये। शरद जी की आयु भी उस समय 25 वर्ष रही होगी। जबलपुर सीट कांग्रेस का गढ़ मानी जाती थी और शरद यादव तब जबलपुर विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करके छात्र राजनीति में व्यस्त थे और तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के कट्टर आलोचक थे और इस चक्कर में कई बार जेल की हवा भी खा आये थे। जब उप चुनाव घोषित हुआ तो वह जेल में ही थे और उन्होंने जेल से ही अपनी उम्मीदवारी का पर्चा भी भरा था।
उनका पूरा परिवार कट्टर कांग्रेसी था और पिता स्वतन्त्रता सेनानी थे। मगर उनके विचार समाजवादी धारा के करीब थे शरद यादव सेठ गोविन्द दास के पुत्र के खिलाफ ही चुनाव जीत गये। दिल्ली आने पर उनका सबसे पहले स्वागत जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ की ओर से ही किया गया। उस समय छात्रसंघ के सर्वमान्य नेता वही राज्यसभा सदस्य रहे देवी प्रसाद त्रिपाठी थे जिनका पिछले सप्ताह ही निधन हुआ है। शरद यादव को उस समय जेएनयू के छात्रों ने बदलते समय की राजनीति के नायक का खिताब अता किया। देवी प्रसाद त्रिपाठी ने कहा कि श्री यादव सत्ता की धौंस और धमक को रौंदते हुए जेल से संसद पहुंचे हैं अतः राजधानी में उनका स्वागत है।
यह स्मरण बताता है कि जेएनयू में पढ़ने वाले छात्रों की सोच समय की सीमा लांघ कर भविष्य को सजाने संवारने की रही है। इस कार्य में वामपंथी और दक्षिण पंथी विचारधारा की सीमाएं आमने-सामने भी बेशक आती रही हैं मगर कभी भी इतनी व्यग्र नहीं हुईं कि दिमाग की जगह हाथों से काम लेने को मजबूर हो जाये। लोकतन्त्र इसी वजह से दुनिया की सबसे महान शासन पद्धति है कि इसमें केवल दिमाग से ही विजय प्राप्त की जाती है। जिन मार्क्सवादी संगठनों या वामपंथी छात्र संगठनों का इस विश्वविद्यालय में बोलबाला है वे भी भारतीय संविधान की कसम उठा कर केवल अहिंसा को ही बदलाव का हथियार स्वीकार करते हैं।
जिसकी वजह से मार्क्सवादियों ने अपनी सोच में यह भी परिमार्जन किया कि 15 अगस्त 1947 को भारत में सत्ता का हस्तांतरण नहीं हुआ था बल्कि इस दिन अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी से मुक्ति मिली थी और यह कार्य महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ था, लेकिन वर्तमान दौर में हमने देखा कि फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी इसी विश्वविद्यालय की उपज हैं और कन्हैया कुमार भी इसी की देन हैं। स्वरा एक संभ्रान्त खाते-पीते घर की हैं और कन्हैया कुमार एक गरीब आंगनवाड़ी कार्यकर्ता मां का बेटा है परन्तु वह अपने वैचारिक बोध के बूते पर पूरी सत्ता को चुनौती देता है और अपने ऊपर देशद्रोही होने का आरोप भी ढोता है।
वह लोकतन्त्र में काबिज हुई सरकारों से तीखे सवाल पूछता है और भारत की कैफियत का खुलासा इसकी धार्मिक पहचान और इसके लोगों की जमीनी हकीकत के संघर्ष और टकराव के सापेक्ष रख कर जब करता है तो हर धर्म के कट्टरपंथियों के आसन हिलने लगते हैं। शिक्षा का यही धर्म होता है कि वह किसी भी बात को आंख मूंद कर स्वीकार नहीं करती है और तर्क की कसौटी पर कस कर ही किसी चीज को स्वीकार करती है। हमारा संविधान भी निर्देश देता है कि सरकारों को लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने के प्रयास करने चाहिए। इस सोच का राष्ट्रवाद से कहीं कोई विरोध नहीं है क्योंकि राष्ट्र को मजबूत बनाना और एकता को सुदृढ़ करना राष्ट्रवाद का धर्म होता है।
इसमें जो लोग साम्प्रदायिकता देखते हैं वे मतिमन्द ही कहलायेंगे क्योंकि राष्ट्रीय एकता लोगों की एकता से ही मजबूत होगी और राष्ट्र लोगों के मजबूत होने से ही मजबूत होगा। अतः फिल्म तारिका दीपिका पादुकोण के जेएनयू में जाकर छात्रों के साथ एकजुटता दिखाने से भारत की एकता का ही परिचय मिलता है। दीपिका एक सिने अभिनेत्री हैं और उनका कार्यक्षेत्र अभिनय कला का है परन्तु उनका वजूद लोगों के कलाप्रेम की वजह से ही है। कला का मुख्य धर्म मनुष्य की संवेदनाओं को जागृत करना होता है और यह संवेदना सामाजिक सम्बन्धों के सापेक्ष होती है जिसमें आपसी भाईचारा व प्रेम केन्द्रीय अवलम्ब होता है और प्रेम व भाईचारा किसी भय या डर के माहौल में नहीं पनप सकता।
अतः दीपिका का जेएनयू जाकर छात्रों के बीच उपस्थित होना ही बताता है कि लोकतन्त्र भय के वातावरण में कभी फल-फूल नहीं सकता लोकशाही लोकशक्ति से ही संचालित होती है और कला व संस्कृति इस लोकशक्ति के आंख-कान होते हैं जो केवल मानवीय आधार पर मनुष्यों के बीच सम्बन्धों का सृजन करते हैं। जेएनयू में विश्वविद्यालय प्रशासन ने जिस तरह भय का वातावरण बनाने का कार्य अपनी अक्षमता और अकर्मण्यता के कारण दिया उससे विश्वविद्यालय परिसर में कुछ नकाबपोशों द्वारा की गई ‘चंगेजी लीला’ को वैचारिक युद्ध के विकल्प के तौर पर अस्त्र माना जा सकता था अतः इसके विरुद्ध समेकित जनशक्ति का प्रदर्शन बहुत आवश्यक था और दीपिका ने केवल यही कार्य किया है। यह कार्य किसी सरकार के खिलाफ नहीं है बल्कि लोकतन्त्र के समर्थन में है।