लोकसभा चुनावों के छठे चरण में कुल 59 चुनाव क्षेत्रों में मतदान होगा जिनमें राजधानी दिल्ली की सात और हरियाणा की दस सीटों के साथ ही बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड और प. बंगाल की चुनिन्दा सीटें भी शामिल हैं। जाहिर है कि पूरे देश से चुने गये सांसदों का 23 मई को नतीजे आने के बाद दिल्ली में ही जमावड़ा होगा जहां वे नई सरकार का गठन करने की प्रक्रिया शुरू करेंगे। राजधानी होने की वजह से दिल्ली की सात सीटों का राष्ट्रीय राजनीति में महत्व इसलिए विशिष्ट रहा है कि यह अर्ध राज्य भारत की सरकार का मुख्यालय है जहां राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमन्त्री तक देश की निगरानी करते हैं।
दिल्ली का सामाजिक चरित्र किसी लघु भारत (मिनी इंडिया) की तरह रहा है क्योंकि इसमें देश के लगभग सभी प्रान्तों के नागरिक विभिन्न कारणों से निवास करते हैं। लोकतन्त्र में इस विशेषता का बहुत महत्व है क्योंकि विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश से आये लोग जब सामूहिक रूप से अपनी राजनैतिक वरीयता प्रकट करते हैं तो वह नमूने के तौर पर भारत का सर्वेक्षण (सैंपल सर्वे) कहा जा सकता है। अक्सर यह कहा जाता है कि दिल्ली दिल वालों की है। यह कहावत उस शाहजहांनी दिल्ली (पुरानी दिल्ली) के लोगों के लिए थी जिन्होंने दिल्ली को नौ बार उजड़ते और दस बार बसते देखा था (नौ दिल्ली दस बादली, किला वजीराबाद) मगर भारत के आजाद होने के बाद इसका जो चौतरफा विकास और फैलाव हुआ उसने इसका प्राचीन स्वरूप सिरे से बदल डाला और देखते-देखते ही दिल्ली बजाय ‘दिल वालों’ के ‘दिमाग वालों’ की बनती गई।
इसका प्रमाण हमें सबसे पहले 1967 में मिला जब दिल्ली की उस समय की कुल छह सीटों में से पांच पर जनसंघ का कब्जा हो गया परन्तु इसके चार साल बाद जब लोकसभा के पुनः चुनाव हुए तो सभी पर स्व. इन्दिरा गांधी की नई कांग्रेस के प्रत्याशियों की भारी बहुमत से विजय हुई परन्तु राष्ट्रीय चुनावों के कुछ दिनों बाद ही दिल्ली नगर निगम के चुनाव होने थे और उसमें पुनः टक्कर कांग्रेस व जनसंघ में ही होनी थी तो चान्दनी चौक के ‘टाऊन हाल’ पर आयोजित एक जनसभा में जनसंघ के तत्कालीन सर्वोच्च नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने जो कहा वह आज की दिल्ली की राजनैतिक परिस्थितियों पर भी कसने योग्य कथन है।
उन्होंने कहा- दिल्ली वालो आपने हमें संसद में जाकर राष्ट्र की नीतियां निर्धारित करने के योग्य तो नहीं समझा, मगर ये चुनाव नगर निगम के हो रहे हैं। हम पिछले चार सालों से यह कार्य कुशलतापूर्वक कर रहे हैं। दिल्ली की साफ-सफाई करने में हमने बेहतर कार्य किया है, अब कम से कम हमारे हाथ से झाड़ू तो मत छीनो।’ संयोग से उस समय महानगर परिषद से लेकर संयुक्त नगर निगम तक में जनसंघ का ही बहुमत था। अतः जब नगर निगम चुनावों का परिणाम आया तो जनसंघ भारी बहुमत से विजयी हो गई।
आज दिल्ली की राजनैतिक हालत लगभग ऐसी ही है। सातों सीटों पर भाजपा का कब्जा है मगर दिल्ली की सरकार आम आदमी पार्टी की है। फिलहाल जो मतदान 12 मई को होगा उसमें कांग्रेस, भाजपा व आम आदमी पार्टी के बीच त्रिकोणात्मक संघर्ष बताया जा रहा है मगर कोई यह नहीं जान सकता कि दिल्ली वालों के दिमाग में क्या चल रहा है? इनके दिमाग का अन्दाजा हमें 2014 के पिछले लोकसभा चुनावों में भी ठीक 1971 की तरह देखने को मिला जब लोकसभा की सातों सीटें भाजपा जीत गई मगर इसके बाद हुए ‘राज्य विधान सभा’ चुनावों में यहां के मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को सत्तर में से 67 सीटें जितवा कर नया रिकार्ड बना डाला। इन तथ्यों का यदि वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाये तो परिणाम यह निकलता है कि दिल्ली वाले चुने जाने वाले सदनों ( लोकसभा, विधानसभा, नगर निगम ) की महत्ता देखकर अपनी वरीयता तय करते हैं और सही आदमी को उसकी योग्यतानुसार चुनते हैं। इसीलिए दिमाग वाले माने जाते हैं।
12 मई को लोकसभा के लिए चुनाव होने हैं अतः इस सदन की महत्ता के अनुसार ही वे अपनी वरीयता तय करेंगे क्योंकि इन मतदाताओं को मालूम है कि राष्ट्रीय स्तर पर आम आदमी पार्टी की इल्जाम तराशी और मोहल्ला क्लीनिक राजनीति के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। यह काम उन्हें दिल्ली ठीक करने के लिए दिया गया था। राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे बेशक राजनीतिज्ञों के दिमाग से गायब हो सकते हैं मगर दिल्ली वालों के दिमाग से कभी गायब नहीं रहे हैं मगर बदले राजनैतिक माहौल में संसद के चुनावों के मुद्दे भी पूरी तरह हवाबाजी के हवाले हुए दिखाई पड़ रहे हैं जिसकी वजह से इस बार दिल्ली वालों को अपने दिमाग पर ज्यादा जोर देना पड़ सकता है क्योंकि पहली बार संसद के लिए त्रिकोणात्मक संघर्ष दिखाया जा रहा है मगर इतना निश्चित है कि इन चुनावों में पिछले स्थानीय चुनावों में विभिन्न प्रमुख राजनैतिक दलों को मिले वोटों का कोई खास मतलब नहीं है। इस दृष्टि से दिल्ली की 15 वर्ष तक मुख्यमन्त्री रहीं श्रीमती शीला दीक्षित का नजरिया पूरी तरह तार्किक था कि राज्य में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के गठबन्धन की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके पीछे उनका लम्बा राजनैतिक अनुभव था और मूल रूप से दिल्ली के चान्दनी चौक के ‘कटरा नील’ में कटा उनका बचपन बोल रहा था।
दरअसल दिल्ली का ‘दिल्ली दरवाजा’ सभी राष्ट्रीय पार्टियों को आगाह करता है कि वे उन मुद्दों पर ही गौर करें जिनसे इसमें प्रवेश करने के बाद वे पूरे भारत का भाग्य किस तरह बदलेंगे? अब सुल्तानी राज के दिन गये कि ‘बादशाह सलामत’ की उम्र की दुआओं में पूरी दिल्ली ‘सजदे’ में झुक जाया करती थी क्योंकि 1947 में गांधी बाबा ने ऐलान किया था कि अब से ‘बादशाहत’ इस मुल्क के लोगों की होगी और वे ही तय करेंगे कि लालकिले से झंडा कौन फहरायेगा ? अब से शाहजहां के ‘तख्ते ताऊस’ पर बैठने की लियाकत हर पांच साल बाद यही वोट की ताकत तय करेगी और ‘इंडिया गेट’ से ‘जय हिन्द’ की आवाज को बुलन्दी बख्शेगी।