सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोगों और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का आचरण अनुशासित और कर्त्तव्यनिष्ठ होना चाहिए क्योंकि वे एक समूह का नेतृत्व करते हैं और उनके आचरण का प्रभाव दूसरे लोगों पर पड़ता है। जनप्रतिनिधि चाहे गांव स्तर पर प्रधान, पंचायत सदस्य के रूप में हो या फिर विधायक और सांसद, हर स्तर पर जनता द्वारा ही चुना जाता है। कभी समय था जब लोग अपने प्रिय नेताओं को देखने और सुनने के लिए दौड़ पड़ते थे लेकिन आज के दौर में राजनीतिज्ञों की साख इतनी गिर चुकी है कि नेता शब्द अपशब्द लगने लगा है। आज सदन से लेकर सड़क तक बहस और भाषणों का स्तर काफी गिर चुका है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि जनप्रतिनिधि और संवैधानिक पदाें पर बैठने वाले लोग न तो कानून की परवाह कर रहे हैं और न ही अदालतों का सम्मान। पहले कहा जाता था कि लोकतंत्र लोकलज्जा से चलता है। लोकतंत्र की अपनी मर्यादाएं होती हैं। लोकतंत्र में मापदंडों को हमेशा उच्च रखा जाता रहा है लेकिन अब जनप्रतिनिधि निर्लज्ज होकर राजनीति कर रहे हैं। भारत में जनप्रतिनिधियों के आचरण को लेकर अगर लिखा जाए तो महाग्रंथ की रचना हो सकती है।
अब राजनीति में कोई डॉ. राजेंद्र प्रसाद, लाल बहादुर शास्त्री, राम मनोहर लोहिया, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, आचार्य नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण जैसे लोग नजर नहीं आ रहे या फिर देश ऐसी विसंगति का शिकार हो चुका है कि हम लोग उन जैसा बनना ही नहीं चाहते। वक्त और हालात ने ऐसा परिवेश सृजित कर दिया है कि कोई भी नेता देश के लिए आदर्श बनने को तैयार नहीं। नेताओं का जो रूप उभर कर आया है, वह बेहद शर्मनाक है। आदर्श की बात करने और आदर्शवादी होने में बड़ा फर्क होता है। इसी अंतर का फायदा आज हर कोई उठा रहा है। गुंडों, बदमाशों को नकारने वाला समाज आज इन्हें अपना चुका है। एक समय था जब किसी से कोई अपराध हो जाता था तो समाज उसे घृणा की दृष्टि से देखता था और उसका बहिष्कार कर दिया जाता था लेकिन वर्तमान में ऐसे लोगों को समाज सिर पर बैठाता है। यही कारण है कि आपराधिक प्रवृत्ति के लोग जनप्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
राजनीतिज्ञों के आचरण का नया उदाहरण समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता आजम खान के रूप में मिला है। आजम खान, उनकी पत्नी और बेटे अब्दुल्ला को दो जगह से दो अलग-अलग जन्म प्रमाण पत्र बनाने के आरोप में न्यायालय ने जेल भेज दिया है। आरोप है कि उन्होंने साजिश के तहत अपने बेटे के दो जन्म प्रमाण पत्र बनवाए हैं। एक में अब्दुल्ला की पैदाइश रामपुर में बताई गई है जबकि दूसरे में लखनऊ। प्रमाण पत्रों में जन्म की तारीख और वर्ष भी अलग-अलग है। आजम खान पर ऐसे फर्जीवाड़े का आरोप लगना कोई नया नहीं है। उन पर जौहर विश्वविद्यालय के लिए गैरकानूनी रूप से जमीन हथियाने से लेकर ग्रामीणों से जबरदस्ती जमीन सौदे के कागजातों पर हस्ताक्षर कराने और कई तरह की अनियमितताओं के आरोपों से संबंधित कई मामले दर्ज हैं।
आजम खान का परिवार भी अदालत का सम्मान नहीं कर रहा था। अदालत बार-बार सम्मन भेज रही थी लेकिन आजम खान अदालत में हािजर ही नहीं हो रहे थे। मजबूर होकर अदालत को गैर जमानती वारंट जारी करना पड़ा। जब राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात आई तो देश की न्यायपालिका ने ही महत्वपूर्ण फैसले दिये हैं। इसीलिए न्यायपालिका की साख देशभर में बनी हुई है। पर विडम्बना यह है कि आजम खान जैसे दबंग प्रवृत्ति के लोग केवल समाजवादी पार्टी में ही नहीं बल्कि भाजपा और कांग्रेस समेत सभी दलों में हैं। जब-जब ऐसे लोगों की पार्टी की सरकार सत्ता में आती है तो वे अपने पद और शक्तियों का इस्तेमाल करते हैं और अपनी सम्पत्ति का विस्तार करते हैं। माना कि कुछ सांसद ऐसे हैं जो बड़े कारोबारी या फिर पुश्तैनी अमीर हैं लेकिन आखिर इसका क्या कारण है कि सामान्य पृष्ठिभूमि से आने वाले निगम पार्षदों से लेकर विधायकों, सांसदों की आय को पंख लग जाते हैं।
किसी आम आदमी या फिर कारोबारी की सम्पत्ति में तनिक भी असामान्य उछाल दिखाई देता है तो उसे आयकर विभाग के सवालों से दो-चार होना पड़ता है। आखिर जनप्रतिनिधि विशिष्ट क्यों हैं। कानून की निगाह में राजा और रंक एक समान होने चाहिए। बलात्कार के आरोप में उम्रकैद की सजा भुगत रहे पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर ने भी सत्ता के गलियारों में रहते हुए कानून को ठेंगा दिखाने की पूरी कोशिश की थी लेकिन अंततः कानून ने शिकंजा कस ही दिया। आजम खान को लगा होगा कि उनके रुतबे के चलते कोई उन भर हाथ नहीं डाल सकेगा।
अब वह उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि वह साजिशन उन्हें परेशान कर रही है। ऐसे आरोप लगाना राजनीति में नया नहीं है लेकिन यह भी सही है कि सत्ता बदलते ही राजनेता द्वारा खुद को कानून से ऊपर समझना और बदलने की भावना से कार्रवाई करने की प्रवृत्तियां समानांतर चलती रहती हैं। आजम खान को अदालत में अपने आप को निर्दोष साबित करने की चुनौती तो है ही। राजनीतिज्ञों के आचरण पर तब तक सवाल उठते रहेंगे जब तक राजनीतिक दल स्वयं ऐसे लोगों से किनारा नहीं करते। अगर वह ऐसा नहीं करते तो स्वीकार करना होगा कि राजनीति से आचरण विदा हो चुका है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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