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मत फूंको कागज के रावण…

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अर्थ हमारे व्यर्थ हो रहे, पापी पुतले अकड़ के खड़े हैं,
कागज के रावण मत फूंको, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं।
कुम्भकर्ण तो मदहोशी है, मेघनाद भी निर्दोषी हैं,
अरे तमाशा देखने वालो, इनसे बढ़कर हम दोषी हैं,
अनाचार से घिरती नारी, कुछ लोग बने न्यायचारी,
बदलो सभी रिवाज पुराने, जो घर-घर में आज अड़े हैं,
कागज के रावण मत फूंको, जिन्दा रावण बहुत पड़े हैं।
आज विजयादशमी है। असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक पर्व। शांति की आकांक्षा किसे नहीं होती। मानव हो या पशु, हर कोई अपने परिवार, मित्रों और समाज के बीच सुख-शांति से रहकर जीवन बिताना चाहता है। विश्व के किसी भी भाग में सभ्यता, संस्कृति, साहित्य और कलाओं का विकास अपनी पूर्व गति से शांतिकाल में ही हुआ है लेकिन इस धारणा को स्वीकार कर लेने के बाद यह भी सच है कि सृष्टि के निर्माण के समय से ही शांति के साथ-साथ अशांति, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और उठापटक का दौर भी चलता रहा है। इतिहास का कोई भी कालखंड उठा ले, देवों के विरोध में दानव, सुरों के विरोध में असुर, भद्र पुरुषों के विरोध में आपराधिक तत्व खड़े दिखाई देते हैं। यह संघर्ष हमेशा होता रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा।

संघर्ष का कारण चाहे सत्ता हो या धन-सम्पत्ति की लूट, पृथ्वी के अधिकांश क्षेत्र पर अधिकार करने की इच्छा हो या अपने विचारों को जबरन दूसरों पर थोपने के कुत्सित इरादे लेकिन अच्छाई और बुराई के संघर्ष में सफलता सदा अच्छाई की होती है परन्तु बुरे विचार कभी नष्ट नहीं होते इसलिए उन तत्वों की खोज सदा चलती रहती है जिनसे शांति प्राप्त हो सके परन्तु सवाल यह है कि जब समाज की मानसिकता विकृत होने लगे तो फिर शांति के तत्वों की तलाश कौन करे। विजयदशमी का संदेश है आसुरी शक्तियों का विनाश और देवी शक्तियों का वर्चस्व। समय के साथ-साथ इन पर्वों को मनाए जाने में दिनोंदिन बदलाव भी आये हैं। इन पर बाजार की छाया भी पड़ी है तो राजनीति की भी। आज पूरे देश में पुतले फुकेंगे। बड़ी रामलीलाओं में पुतलों के आकार को लेकर भी प्रतिस्पर्धा है। किसका पुतला कितना बड़ा होगा, असत्य और अधर्म का उतनी ही बड़ी मात्रा में मान-मर्दन भी होगा। धर्म का बाजारीकरण हो चुका है।

रामलीला, दुर्गा पूजा और विजयादशमी तक बाजार लीला हावी है। बाजारवाद हमारे पर्व-त्यौहारों की प्राण वायु हर रहा है। चमक-दमक प्रदर्शन सबमें दिखावा एक तमाशे का रूप लेता जा रहा है। फिल्म बाहुबली के सैट की तर्ज पर करोड़ों-अरबों के पंडाल बनाए गए तो दूसरी तरफ छोटी रामलीलाओं वाले कुम्भकर्ण और मेघनाद के पुतलों को छोड़ इस बार अकेला रावण ही जला रहे हैं क्योंकि पुतलों पर जीएसटी की मार भी पड़ी है। आस्था कम, प्रतिद्वंद्विता ज्यादा सामने आ रही है। राम और रावण पौराणिक पात्र नहीं हैं, बल्कि हमारे भीतर और समाज में मंगल-अमंगल के, न्याय-अन्याय के, धर्म-अधर्म के, निर्माण-ध्वंस के प्रतीक हैं। रामलीला से लेकर विजयादशमी तक यही सब तो दिखाया जाता है लेकिन वास्तविकता यह है कि माहौल विपरीत दिखाई दे रहा है। रावण ने अपना रूप बदल लिया है, महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं। स्कूलों में बच्चे सुरक्षित नहीं, धर्म की आड़ में धार्मिक संस्थानों में दुष्कर्म हो रहे हैं। एक के बाद एक बाबा दुष्कर्म के आरोप में पकड़े जा रहे हैं। धार्मिक स्थानों पर आस्था की दहलीज लांघी जा रही है, मर्यादाओं का घोर उल्लंघन हो रहा है।

समाज में रावण के वंशजों की संख्या बढ़ रही है। कभी-कभी तो वह राम के मुखौटों में नजर आता है। अधर्मी लोग धर्म की बातें करते दिखाई देते हैं। समाज में गरीबी, लैंगिक समानता, बेरोजगारी, स्वास्थ्य समस्याएं, व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार, बालश्रम और आर्थिक विषमताएं हैं। देश के भीतर आतंकवाद और सीमाओं पर दुश्मनों की फायरिंग से हमारे जवान शहादतें दे रहे हैं। सबसे बड़ी चुनौती आतंक मचाने वाली ताकतों से निपटना है। रावण दहन को जनता एक सांस्कृतिक आयोजन के रूप में देखती है इसलिए ज्यादा मीमांसा नहीं करती, वह केवल इसे एक आयोजन के रूप में स्वीकार कर लेती है। झूठ-सच, आडम्बर जो भी परोसा जाए, सब स्वीकार है। हर रूप चलने दिया जाता है। ऐसा वातावरण सृजित कर दिया जाता है कि सत्य-असत्य को अपदस्थ कर ही नहीं सके। आचरण और कर्म का अंतर स्पष्ट रूप से सामने है। ऐसे बदले परिवेश में सोचने की बात है कि क्या मात्र रावण का पुतला फूंकने से रावण का, अधर्म का नाश हो सकेगा?

सस्ता और टिकाऊ वाक्य जो युगों-युगों से चला आ रहा है कि अपने भीतर के रावण को मारो। हर आदमी के भीतर रावण है, उसे मारो। सवाल यह भी है कि एक मेहनतकश मजदूर जो दिनभर रोजी-रोटी के लिए काम करता है, उसके भीतर भला कौन सा रावण बैठा है। उसे तो सोचने की फुर्सत नहीं। जिनके भीतर रावण बैठा है वह लोगों को उलझाए रखते हैं। रावण तो सदियों से जलता आ रहा है, असत्य पर सत्य की विजय का सही अर्थ और यह सब कैसे होगा, यह भी समझना होगा। यह काम जनवादी संस्कृति ही कर सकती है।

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