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भारतीयओ को ईद-मुबारक

आज ईद-उल-फितर या मीठी ईद का त्यौहार है।

आज ईद-उल-फितर या मीठी ईद का त्यौहार है। भारत चूंकि तीज-त्यौहारों का देश माना जाता है अतः भारत में इस्लाम के आने के बाद इस मजहब के त्यौहारों का भी भारत की विविध क्षेत्रीय संस्कृति के अनुसार स्थानीय रिवाजों के अनुसार परिमार्जन या संशोधन इस प्रकार होता रहा जिससे उसमें वहां की मिट्टी की तासीर की खुश्बू की महक भी उड़ती रही। भारत विभाजन से पूर्व अविभाजित पंजाब में हमें ईद के भारतीयकरण के नजारे आमतौर पर दिखाई पड़ते थे जिनमें भारत की देशी पंजाबी परंपराओं का पूरा निर्वाह होता था। पंजाबी संस्कृति के अऩुरूप ईद के मौके पर हमें वही पंजाबी तड़क-भड़क और मेले-ठेले का माहौल दिखाई पड़ता था जैसा कि बैसाखी या लोहिड़ी अथवा अन्य पंजाबी त्यौहारों पर दिखाई पड़ता था। वही समाज में एक-दूसरे परिवारों को बधाइयां और मुंह-मीठा कराने का माहौल रहा करता था। इसकी वजह यह थी कि पंजाब का रहने वाला हर बाशिन्दा पहले खुद को पंजाबी समझता था और  बाद में उसका हिन्दू या मुसलमान होना आता था। मगर मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने इस वातावरण को विषाक्त बना दिया और भारत का विभाजन हिन्दू व मुसलमान के आधार पर ही 1947 में हो गया। मगर इसके बावजूद भारत में बचे मुसलमानों ने अपनी भारतीय जड़ों को नहीं छोड़ा और अपने तीज-त्यौहारों को भारतीय रंगों में ही रचाये-बसाये रखने की कोशिश की। हालांकि कुछ कट्टरपंथी तत्व हमेशा अलगाव की कोशिश भी करते रहे।
 उत्तर भारत में ईद-उल-फितर को मीठी ईद कहने के पीछे भी भारतीय भाव छिपा हुआ है। यह भाव निश्चित रूप से पूरे समाज के सभी मजहबों के लोगों के साथ घुल-मिल कर प्रेम भाव से रहने का है। मीठी ईद का नाम ठेठ रूप से भारतीय संस्कृति की ही देन है वरना सिवाय भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य किसी भी इस्लामी देश में ईद-उल-फितर को मीठी ईद नहीं कहा जाता है। भारत में यह भ्रान्ति भी कम नहीं है कि लगभग 12वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक भारत में मुस्लिम सुल्तानों व मुगल बादशाहों के शासनकाल में जमकर हिन्दुओं का धर्मान्तरण किया गया। ऐतिहासिक तथ्य ऐसी गवाही नहीं देते हैं। 1973 में इतिहासकार के.एस. लाल ने इसी विषय पर एक पुस्तक प्रकाशित की और उसमें बताया कि सन 1800 तक अखंड भारत में केवल 13 प्रतिशत मुसलमान ही थे जबकि 1850 में इनकी जनसंख्या बढ़कर 16 प्रतिशत हो गई जो 1900 तक 20 प्रतिशत हो गई और 1947 में यह कुल 25 प्रतिशत तक पहुंची। श्री के.एस. लाल कोई कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं थे। अतः आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि लगभग छह सौ वर्षों तक मुस्लिम शासन के अधीन रहने के बावजूद अखंड भारत में केवल 13 प्रतिशत ही मुसलमान थे।
 जैसा कि इतिहास हमें बताता है कि 1756 के पलाशी युद्ध के बाद पूरी बंगाल रियासत ईस्ट इंडिया कम्पनी के कब्जे में चली गई थी और उस समय विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 24 प्रतिशत से भी अधिक था। इसके बाद 1765 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पूरे बंगाल (जिसमें तब बिहार से लेकर ओडिशा व आज का बांग्लादेश भी आता था) में राजस्व उगाही के अधिकार ले लिये थे जिसके बाद भारत में दीवानी अदालतों आदि का प्रचलन शुरू हुआ। सवाल यह पैदा होता है कि 1857 की प्रथम स्वतन्त्रता क्रान्ति तक भारत के हिन्दू-मुसलमानों में आपसी प्रेमभाव इस कदर था कि स्वयं विद्रोही हिन्दू राजाओं ने ही  मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह घोषित करके उसके हाथ में आजादी की कमान सौंपी थी। स्वयं वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘भारत का प्रथम स्वतन्त्रता समर’ में बहादुर शाह जफर से लेकर उस समय सक्रिय मुस्लिम मौलवियों व नवाबों की भूमिका की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।  अतः 1857 तक लगभग 20 प्रतिशत की संख्या में भारतीय मुसलमानों की मुल्क पर जान न्यौछावर करने के जज्बे को किसी भी हिन्दू के जज्बे से कम रख कर नहीं देखा जा सकता। मगर तब अंग्रेजों की नौकरी एक अदालती कारिन्दे के रूप में कर रहे सर सैयद अहमद खां ने एक छोटी सी पुस्तक 1857 के संग्राम के बारे ‘असबाबे-बगावते हिन्द’ लिखी और अंग्रेजों को सलाह दी कि अगर वे हिन्दोस्तान पर अपनी हुकूमत मजबूत करना चाहते हैं तो किसी भी कीमत पर हिन्दू व मुसलमानों का आपस में भाईचारा न होने दें और इनका इस्तेमाल निजाम को पुख्ता करने के लिए एक- दूसरे के खिलाफ करें। 
1858 में जब भारत की पूरी सल्तनत ईस्ट इंडिया कम्पनी से सीधे ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के हाथ में आ गई तो अंग्रेजों ने हिन्दू व मुसलमानों के बीच फूट डालने के बीज जमकर डालने शुरू किये और कालान्तर में द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त पनपने लगा। परन्तु 1947 में  भारत का बंटवारा होने के बाद इस सिद्धांत को जब 1971 में स्वयं पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने ही दफनाते हुए बांग्लादेश बनाया तो सबसे ज्यादा ऊर्जा भारत के मुसलमानों को ही मिली और उन्हें उस भारत पर गर्व महसूस हुआ जिसकी मिट्टी में खेल कर वे बड़े हुए थे। उन्हें अपने भारतीय मुसलमान होने पर फख्र इसलिए भी हुआ कि भारत उनकी सरजमीन इस हद तक है कि जब वे मुकद्दस मक्का जाते हैं तो उनकी पहचान ‘हिन्दी मुसलमान’ के रूप में की जाती है। 
बेशक भारतीय मुसलमानों के बीच कुछ कट्टरपंथी ताकतें अपना खेल करने की कोशिशों में रहती हैं मगर हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब 23 मार्च, 1940 को लाहौर में अलग पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव जिन्ना की मुस्लिम लीग की कहायदत में पारित किया गया तो उसके चन्द दिनों बाद ही दिल्ली में ही भारत के तमाम सूबों के आम मुसलमानों का बहुत बड़ा जलसा हुआ था जिसमें पाकिस्तान बनाने के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया था। इस जलसे में लाखों की तादाद में वे मुसलमान शामिल थे जिन्हें जमीन का आदमी कहा जाता है । इसमें देवबन्द की जमीयत अल-अलेमाएं जैसे मुस्लिम आलिमों की तंजीम भी शामिल थी। इसलिए जिस तरह दीपावली और होली भारत के त्यौहार हैं उसी तरह मीठी ईद भी भारत का त्यौहार है। आइये इसे सब मिलकर मनाएं और कौमी नारा भारत माता की जय बोलें। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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