चुनावों का प्रथम चरण शुरू होते ही इसी स्तम्भ में सचेत किया गया था कि चुनाव आयोग का ईमान सिर्फ वह किताब होती है जिसे संविधान कहा जाता है। उसका उत्तरदायित्व संविधान निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर जब तय कर रहे थे तो उनके सामने भारत की वह बहुदलीय संसदीय प्रणाली थी जिसे भारत अपनाने जा रहा था और इसका पूरा ताना-बाना चुनाव आयोग द्वारा आयोजित होने वाले चुनावों पर ही निर्भर करता था। अतः उन्होंने इसकी भूमिका पूरी तरह स्वतन्त्र, निर्भीक व निष्पक्ष इस प्रकार बनाई कि किसी भी काबिज सरकार के प्रधानमन्त्री तक की हैसियत उसके समक्ष चुनाव में खड़े हुए किसी दूसरे प्रत्याशी के बराबर ही हो।
संविधान निर्माताओं के समक्ष यह मुद्दा भी था कि काबिज सरकार के मन्त्रियों या प्रधानमन्त्री की हुकूमत की रुआबदारी आम जनता पर असर डाल सकती है, अतः उन्होंने व्यवस्था की कि चुनावी दौर में प्रधानमन्त्री जब भी चुनाव प्रचार करने जायेगा तो वह अपने राजनैतिक दल के नेता की हैसियत से ही जायेगा और सरकार उसके चुनाव खर्चे से पूरी तरह अलग रहेगी। चुनाव आयोग के सारे नियम-कायदे चुनाव में खड़े हुए या प्रचार कर रहे सभी मन्त्रियों पर भी उसी तरह लागू होंगे जिस तरह किसी दूसरे दल के नेताओं पर। इसके साथ ही यह व्यवस्था भी संविधान में की गई कि राष्ट्रीय चुनावों के दौरान देश की सभी सरकारें (केन्द्र सरकार समेत) चुनाव आयोग की निगरानी में ही अपने काम को अंजाम देंगी। इसका मतलब यही था कि सरकारें काम तो करेंगी मगर प्रशासनिक व्यवस्था पर चुनाव आयोग का निरीक्षण इस प्रकार रहेगा कि वे अपना कोई भी काम राजनैतिक फायदे की गरज न कर सकें। अपने इस अधिकार का प्रयोग वर्तमान चुनाव आयोग ने प. बंगाल में खुलकर किया और फैसला किया कि चुनावों के दौरान प्रत्येक मतदान केन्द्र पर केवल केन्द्रीय सुरक्षा बलों के जवान ही तैनात होंगे। साथ ही उसने अपने हिसाब से जिलों के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों के तबादले भी किये।
जाहिर है यह सारा कार्य उसने प. बंगाल के मतदाताओं को डराने के लिए नहीं बल्कि उन्हें अपने मत का बेखौफ होकर प्रयोग करने के उद्देश्य से किया होगा मगर उस सूरत में क्या होगा जब इस राज्य की सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के नेता यह आरोप लगा रहे हैं कि केन्द्रीय सुरक्षा बल ही मतदाताओं को किसी एक विशेष पार्टी के पक्ष में मतदान करने के लिए दबाव डाल रहे हैं? इसका जवाब चुनाव आयोग के पास क्या है ? अतः चुनाव आयोग का इकतरफा फैसला भी लोकतन्त्र में इस प्रकार होना चाहिए कि वह न्यायासंगत लगे।
भारत की गणतान्त्रिक व्यवस्था में हर स्तर पर और हर मोड़ पर सन्तुलन बनाये रखने के गजब के तरीके रखे गये हैं। चुनाव आयोग ने बुधवार को इस राज्य में चुनाव प्रचार का समय 20 घंटे कम करते हुए कहा कि कानून-व्यवस्था को देखते हुए यह फैसला किया गया है और राजनैतिक दलों को इस बारे में अचानक झटका न देकर कुछ समय दिया गया है। फिर 20 घंटे कम करने का ही क्या कारण है? सामान्यतः चुनाव प्रचार दिनों के हिसाब से तय होता है। ऐसा फैसला करके स्वयं चुनाव आयोग ने अपनी स्थिति संदिग्ध बना ली है क्योंकि विपक्ष की राय में चुनाव आयोग ने घंटों के हिसाब से प्रचार समय इसलिए घटाया क्योंकि इस दिन सायंकाल दमदम में प्रधानमन्त्री की सभा होनी थी जिसके रात्रि दस बजे तक खत्म होने की अपेक्षा थी।
मतदान से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार का समय सायं पांच बजे खत्म हो जाता है। मतदान 19 मई को होना है अतः 48 घंटे में 20 घंटे और जोड़ दिये गये। चुनाव आयोग ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की जिस धारा 324 के तहत यह कदम उठाया है उसकी उपधाराओं के तहत उसके पास असीमित अधिकार हैं। इन अधिकारों से चुनाव आयोग को लैस इसीलिए किया गया है जिससे प्रत्येक चुनाव में पूरी निष्पक्षता और समदृष्टि का सिद्धान्त लागू हो परन्तु पूरे देश की कुल 543 लोकसभा सीटों को सात चरणों में चुनाव आयोग ने जिस प्रकार बांटा और मतदान प्रक्रिया को सवा महीने से भी ऊपर खींचा, उस पर भी सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं।
चुनाव आयोग ने मतदान के चरणों का फैसला करते हुए मौसम के मिजाज का भी ध्यान नहीं रखा और आखिरी चरण में उन स्थानों पर चुनाव हो रहे हैं जहां ताबड़तोड़ गर्मी पड़ती है। मई महीने के प्रथम सप्ताह में ही गर्मी चरम पर पहुंच जाती है। भारत के लोकतन्त्र के लिए यह स्थिति किसी भी सूरत में अच्छी नहीं है। लोकतन्त्र को मजबूत बनाने का प्राथमिक दायित्व चुनाव आयोग का ही है क्योंकि वही मतदाताओं को विश्वास दिलाता है कि उनके द्वारा डाले गये अन्तिम वोट को भी परिणाम घोषित करते समय गणना में लिया जायेगा। प. बंगाल की स्थिति को देखते हुए चुनाव आयोग को ही यह सुनिश्चित करना होगा कि इस प्रदेश के मतदाताओं के मतदान करने के उत्साह में किसी प्रकार की कमी न आने पाये क्योंकि अब तक हुए मतदान में इस राज्य के लोगों ने जिस ऊर्जा के साथ अपने मत का प्रयोग किया है वह शेष देश के लोगों के लिए अनुकरणीय है। अभी तक पिछले छः चरणों में 80 प्रतिशत से ऊपर मतदान करके बंगाली मतदाताओं ने लोकतन्त्र के हौसले को ही प्रकट किया है।