यदि मुख्य चुनाव आयुक्त सुरेन्द्र अरोड़ा वित्तीय स्वतन्त्रता को चुनाव आयोग की प्रणालीगत मुक्त व स्वतन्त्र कार्य पद्धति से जोड़ रहे हैं तो मूल रूप से गलती पर हैं क्योंकि आयोग की लोकतन्त्र में भूमिका किसी अन्य संवैधानिक व स्वतन्त्र संस्था से पूरी तरह हट कर इस प्रकार है कि लोगों द्वारा चुनी गई संसद लगातार इसकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता की गारंटी से सत्ता पर काबिज किसी भी सरकार को न केवल बांधे रहे बल्कि अपने वजूद के भी पूरी तरह संविधानगत होने की पुष्टि करती रहे।
बाबा साहेब अम्बेडकर ने जब भारत को संविधान दिया था तो स्पष्ट किया था कि यह व्यवस्था ऐसी तिपाया इमारत की होगी जो चुनाव आयोग की जमीन पर खड़ी होगी। मूलतः चुनाव आयोग ही इस इमारत को खड़ा करेगा। जहां तक संघ लोक सेवा आयोग व लेखा महानियन्त्रक जैसी संस्थाओं का सवाल है वे इसी इमारत में बने ऐसे रोशनदान हैं जिनसे लोकतान्त्रिक प्रणाली को ताजा हवा मिलती रहती है और इनके खर्चे-पानी की जिम्मेदारी इन्हीं के मुखियाओं पर इस तरह है कि वे भारत की संचय निधि से इसे निकालकर इसकी तार्किकता सिद्ध कर सकें। जबकि चुनाव आयोग के मामले में स्थिति ऐसी नहीं है। इसकी जिम्मेदारी पूरी संसदीय व्यवस्था को राजनीतिक शुचिता देने के साथ ही स्वच्छ व लोकोन्मुख संसद देने की है।
संसद में प्रवेश के लिए आवश्यक अर्हताएं तय करने के साथ ही चुनावी दौर में किसी भी राजनीितक दल की सरकार को तटस्थ भूमिका में देखना इसका संवैधानिक अधिकार इस प्रकार है कि पूरा प्रशासन तन्त्र ही इसके अतर्गत काम करने लगता है। यही वजह है कि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू होने पर देश की सर्वोच्च अदालत भी इसके कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। इसे अर्ध न्यायिक अधिकार दिए जाने का मन्तव्य भी यही था कि कोई भी सरकार या राजनीतिक दल इसकी सत्ता को चुनौती न दे सके किन्तु इसमें स्वच्छन्दता की छूट भी किसी प्रकार नहीं दी गई और चुनाव आयोग की लगाम भी संसद के हाथ में ही दी गई।
चुनावी काल में भी सरकार तो काम करती है और कोई भी चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा होने तक बाजाब्ता तौर पर बाअख्तियार सरकार ही होती है मगर चुनाव आयोग उसका राजनीतिक रंग इस तरह उड़ा देता है कि वह केवल ‘सरकार’ ही रहे और सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी से उसका रिश्ता सरकारी दायरों से बाहर ही रहे। यही वजह है कि लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमन्त्री या कोई अन्य मन्त्री अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार करने जाता है तो उसका पूरा खर्चा उसकी पार्टी उठाती है। सरकार से उसका कोई लेना-देना नहीं रहता। बेशक सरकारी औहदे की जरूरत के अनुसार उन्हें मिली सुविधाएं जारी रहती हैं मगर इस दौरान पार्टी के चुनावी काम में प्रधानमन्त्री समेत कोई भी मन्त्री एक पाई भी सरकारी खजाने से खर्च नहीं कर सकता।
संविधान में इस निगरानी का हक भी चुनाव आयोग को दिया गया है और संसदीय प्रणाली के आधारभूत संपोषक के रूप में दिया गया है जिसकी वजह से उसके वित्तीय पोषण की समुचित व्यवस्था भी संसद के माध्यम से सरकार पर ही डाली गई है और इस तरह डाली गई है कि चुनाव आयोग की स्वतन्त्र व निर्बाध गतिविधियों की जिम्मेदारी भी सरकार ही ले, इसी वजह से हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसा तरीका खोजा कि चुनाव आयोग की वित्तीय जरूरतों में कोताही करने की किसी भी सरकार की आंशिक कोशिश तक को संसद के भीतर ही संग्राम तक में बदला जा सके। हाल ही में जिस तरह मतदान के लिए ईवीएम मशीनों के साथ वीवपैट मशीनें लगाने के लिए चुनाव आयोग को पिछले पांच साल में दस बार केन्द्र सरकार के पास वित्तीय धन की दरख्वास्त भेजनी पड़ी उससे यह सवाल पैदा हुआ नजर आता है।
मगर यह सवाल केवल वित्त या धनापूर्ति का नहीं है बल्कि चुनाव प्रणाली की विश्वसनीयता से जुड़ा हुआ है, यदि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सरकार चुनाव आयोग को वीवीपैट मशीनें लगवा कर चुनाव कराने के लिए तीन हजार करोड़ रुपए देने में इतनी हील-हुज्जत दिखाती है तो इसकी जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर नहीं बल्कि सरकार पर आती है और अपने ही वजूद की सदाकत पर आती है क्योंकि सरकार बनाने के लिए किसी भी पार्टी को सबसे पहले पारदर्शी और पूरी तरह साफ और सच्ची मतदान प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा जो कि चुनाव आयोग की प्रारम्भिक आधारभूत जिम्मदारी है।
चुनाव आयोग को इस कार्य को पूरा करने से किसी के रोकने की कोई भी कोशिश पूरी तरह असंवैधानिक ही मानी जायेगी जिसे सर्वोच्च न्यायालय में किसी भी वक्त चुनौती दी जा सकती है। जाहिर है कि संसद के बनाए गए कानून तक को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। इसकी वजह यही है कि सरकार केवल बहुमत के बूते पर कोई भी ऐसा कानून नहीं बना सकती जो संविधान की मूल आत्मा के विरुद्ध हो। इसी प्रकार चुनाव आयोग भी कोई भी ऐसा रास्ता नहीं अपना नहीं सकता जिसकी वजह से लोगों द्वारा डाले गए अपने वोट की विश्वसनीयता पर शक हो।
अतः मूल मुद्दा यह नहीं है कि आयोग को वित्तीय स्वतन्त्रता मिले बल्कि यह है कि मतदान प्रक्रिया किसी भी तरह के शक और शुबहा से ऊपर हो लेकिन श्री अरोड़ा वित्तीय स्वतन्त्रता का मुद्दा उठाकर और आयोग के शेष दो सदस्यों का कार्यकाल भी गारंटीशुदा बनाने का मामला उठाकर असल मुद्दे से भटक रहे हैं। चुनाव आयोग के वित्तीय पोषण की गारंटी तो संविधान देता है और मुख्य चुनाव आयुक्त के पद के कार्यकाल की गारंटी भी यही देता है और उन्हें हटाने की प्रक्रिया भी संसद के पास है तो जाहिर है कि संसद ही स्वयं उनके कार्यालय की संरक्षक है। क्योंकि राष्ट्रपति किसी मुख्य चुनाव आयुक्त को नियुक्त तो कर सकते हैं मगर उसे पदमुक्त नहीं कर सकते। यह काम संसद को ही महाभियोग चलाकर करना पड़ता है जबकि शेष दो आयुक्त मुख्य आयुक्त के निर्देशन में ही काम करते हैं। इसलिए सवाल घूम-फिर कर वहीं बैलेट पेपर वर्क्स ईवीएम मशीन पर आता है और श्री अरोड़ा इस पर जिद जैसी ठाने बैठे हैं। इसके लिए उन्हें चुनाव आयोग की विरासत का गंभीरता से अध्ययन करना चाहिए।