किसानों के देशव्यापी भारत बन्द के दौरान आज चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा कर दी। कोरोना काल में देश के किसी भी हिस्से में होने वाले ये पहले चुनाव होंगे। इसके साथ ही चुनाव आयोग ने मध्य प्रदेश राज्य की 27 विधानसभा सीटों के उपचुनाव के बारे में अभी घोषणा को रोक लिया है और कहा है कि आयोग की 29 सितम्बर को होने वाली बैठक में इसकी समीक्षा की जायेगी। बिहार में तीन चरणों मे चुनाव होंगे और नतीजे 10 नवम्बर को घोषित किये जायेंगे। आयोग ने चुनावों के लिए जो ‘कोरोना शिष्टाचार’ घोषित किया है उसे लेकर अलग-अलग मत हो सकते हैं मगर इतना निश्चित है कि बिहार में चुनाव प्रचार के लिए राजनैतिक दलों को खुला हाथ नहीं मिलेगा और बहुत कुछ ‘डिजीटल’ प्रचार पर निर्भर करेगा। बिहार जैसे गरीब राज्य में डिजीटल मीडिया की पहुंच के बारे में भी अलग-अलग मत हैं क्योंकि इस राज्य में स्मार्ट मोबाइल फोन रखने वाले लोग अधिकाधिक 37 प्रतिशत ही बताये जा रहे हैं। इसे देखते हुए राजनैतिक दलों के पारंपरिक प्रचार तरीकों जैसे खुली जनसभाएं व रैलियां आदि आयोजित करने पर लगाये गये कोरोना प्रतिबन्धों के मद्देनजर मतदाताओं की चुनाव में शिरकत कम हो सकती है लेकिन बिहार के नागरिकों के बारे में यह भी सर्वविदित है कि पूरे देश में यहां के मतदाता राजनैतिक रूप से सर्वाधिक जागरूक माने जाते हैं अतः असली राजनैतिक मुद्दों को इनकी नजरों से हटाना बहुत मुश्किल काम है, और असली मुद्दा यह है कि पिछले 15 वर्ष से बिहार में जनता दल (यू) व भाजपा गठबन्धन की सरकार चल रही है (केवल 2015 के चुनावों के बाद कुछ समय को छोड़ कर) अतः सत्ता विरोधी भाव का पनपना लोकतन्त्र मे स्वाभाविक प्रक्रिया मानी जाती है परन्तु यह कोई नियम भी नहीं है क्योंकि ओडिशा व प. बंगाल जैसे राज्यों में लोगों में सत्ता विरोध का भाव प्रबल नहीं हो पाता है। इन दोनों ही राज्यों का चुनावी इतिहास हमें यही बताता है। परन्तु पिछले पांच सालों मे बिहार की राजनीति में जो उलट-फेर हुआ है उसका संज्ञान लेना भी जरूरी है।
पिछले 2015 के विधानसभा चुनावों में नीतीश बाबू की जनता दल (यू) व लालू जी की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबन्धन बना कर चुनाव लड़ा था जिसमें इसे अपार सफलता प्राप्त हुई थी और भाजपा को अपने अकेले दम पर चुनाव लड़ने पर 243 सदस्यीय विधानसभा में बामुश्किल 50 सीटें ही मिल पाई थीं, परन्तु बीच में ही नीतीश बाबू ने पल्टी मार कर राजद का साथ छोड़ कर भाजपा से पुनः हाथ मिलाया और अपनी सरकार बनाये रखने में सफलता हांसिल की। इन चुनावों में जाहिर तौर पर लालू जी के जेल में बन्द होने पर उनकी पार्टी को चला रहे उनके पुत्र भुनाने का प्रयास करेंगे मगर अपने पारिवारिक झगड़ों में डूबी यह पार्टी बिहार के आम मतदाताओं को कहां तक लुभा सकती है, यह देखने वाली बात होगी। बिहार के सन्दर्भ में यह समझा जाना भी बहुत जरूरी है कि इसकी राजनीति का रुख हमेशा वामपंथी या समाजवादी झुकाव की तरफ रहा है. राज्य मे इसी धारा को पकड़ कर लालू, नीतीश व पासवान की तिकड़ी ने कालान्तर में अपने-अपने जातिगत समूहों के सम्बल से अपनी-अपनी वोट बैंक की राजनीति को पुख्ता किया। इन चुनावों में यह वौट बैंक बिखर कर सम्पन्न व वंचित वर्ग के दायरों में बंट सकता है, जिसकी मुख्य वजह कोरोना संक्रमण काल से ऊपजी लाकडाऊन अवधि में आम बिहारी नागरिक की मुश्किलों का मुखर रूप में व्यक्त होना माना जा रहा है। इसके साथ ही बाढ़ की आपदा से भी बिहार के लोग प्रभावित रहे हैं और दोनों ही परिस्थितियों में नीतीश बाबू की सरकार को कटु आलोचना का शिकार होना पड़ा है। पिछले पांच वर्षों के दौरान नीतीश बाबू की ‘सुशासन बाबू’ की छवि को इस प्रकार धक्का लगा है कि लाकडाऊन में दूसरे राज्यों में फंसे हुए बिहारी प्रवासी श्रमिकों ने उनके खिलाफ अपने राज्य मे पहुंच कर मुहीम जैसी छेड़ दी।
दूसरी तरफ विपक्षी दलों की हालत बिहार में इतनी खस्ता नजर आ रही है कि उनमें सत्तारूढ़ गठबन्धन का मुकाबला करने की शक्ति नजर ही नहीं आ रही है, परन्तु बिहार की राजनीति का इतना सरल तरीके से विश्लेषण इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि इसके मतदाता स्वयं मे इतने समर्थ माने जाते हैं कि वे राजनीतिज्ञों को वहां रास्ता दिखाते हैं जहां वे भटक जाते हैं। इसका गवाह इस राज्य का इतिहास है। अतः राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडेय इस राज्य की राजनीति को सुशान्त सिंह राजपूत हत्याकांड के जिस चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे हैं वह फिल्मी दुनिया की तरह कोरा ‘रूमानी’ भी साबित हो सकता है। बेशक कुछ तत्व इस मामले को बिहारी अस्मिता का रंग देने की कोशिश कर सकते हैं मगर इस राज्य के मतदाताओं की अस्मिता अभी तक विशुद्ध जमीन के मुद्दों की रही है। यह अस्मिता तब भी रही जब राज्य में जातिवाद के मुलम्मे में समाजवादी व राष्ट्रवादी विचारधाराओं की लड़ाई होती रही। राज्य में भाजपा के उत्थान के पीछे मूल कहानी यही रही है कि इसने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य मे बिहार के क्षेत्रीय पराक्रम को समाहित करने का प्रयास स्व. ठाकुर प्रसाद सिंह के जमाने से ही किया। परन्तु अब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता पर इसे भरोसा है कुल मिलाकर बिहार के चुनाव राष्ट्रीय राजनीति पर गुणात्मक प्रभाव छोड़ने वाले होंगे देखने वाली बात यह भी होगी कांग्रेस पार्टी लालू जी की पार्टी के प्रभावकाल मे जाने पर अपनी खोई जमीन प्राप्त कर पाती है या नहीं।