जहर का प्याला पीने की सजा सुनाए जाने के बाद सुकरात जेल में अपने दोस्तों के बीच बैठकर समाज, मनुष्य और राज्य की चर्चा कर रहे थे। जहर का प्याला उनके हाथों में थमा दिया गया। सुकरात जहर का प्याला आखिरी घूंट तक पीने की बात कर रहे थे लेकिन दोस्तों ने उन्हें जेल से भगाने की तैयारी कर ली थी। सुकरात को योजना का पता चलते ही उन्होंने जेल से भागने से साफ इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा— राज्य से कहां भागेंगे? हां उसके गलत कानून और बुराइयों के खिलाफ संघर्ष करना है। उसके लिए अगर राज्य कष्ट या दंड देता है तो स्वीकार कर लेना है, क्योंकि विद्रोह या परिवर्तन राज्य के अन्दर ही सम्भव है। 9 सितम्बर के दिन मेरे पितामह अमर शहीद लाला जगत नारायण जी का बलिदान दिवस है। इस दिन मेरा भावुक हो जाना स्वाभाविक है। पहले आजादी की लड़ाई और देश के स्वतंत्र होने के बाद यानी पहले अंग्रेजी सत्ता और बाद में अपने ही लोगों द्वारा उन्हें बार-बार प्रताडि़त किया गया, तकलीफें दी गईं। उन्होंने अपने राजनीतिक और सामाजिक दायित्वों से कभी पलायन नहीं किया। जहर पीकर भी अमृत पीने जैसी मुस्कान उनके चेहरे पर रहती थी।
जीवन का अंतिम घूंट भी उन्होंने शहादत का ही पिया। जब पंजाब में सीमा पार के ‘मित्रों’ की काली करतूतों के कारण अलगाववाद की आग सुलगने लगी थी तो क्या इंटैलीजैंस, क्या सीबीआई, किस-किस ने नहीं कहा, च्च्लाला जी आप स्वयं को सुरक्षित रखें, बाहर व्यर्थ न जाएं और अपनी फिक्र करें। विध्वंसक शक्तियां सत्य और असत्य की गरिमा को नहीं पहचानतींज्ज् लेकिन लाला जी ने कहा—समाज से अलग रहकर, भाग कर, घर के कमरे में बंद रह कर कुछ नहीं हो सकता। अगर असत्य से लड़ना है तो समाज और राज्य में रहकर ही लड़ना होगा। अंतत: राष्ट्र विरोधी ताकतों ने उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बना दिया। लाला जी ने लाला लाजपत राय जी की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में एक कोष की स्थापना कर अखबार निकालने का काम किया। अखबार का नाम रखा गया च्पंजाब केसरीज्। लाला जी को अंग्रेजों के खिलाफ सम्पादकीय लिखने पर कई बार जेल जाना पड़ा, यातनाएं सहनी पड़ीं। जब भी वे जेल से बाहर आते ओजस्वी लेख लिखते तो फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता। जेल में ही उनकी मुलाकात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव से हुई थी। महात्मा गांधी के अनुयायी होने के बावजूद क्रांतिकारियों से उन्हें प्यार था और सम्पर्क भी, क्योंकि लक्ष्य केवल एक था—देश को आजाद कराना। आजादी से पूर्व भारत की आजादी के वास्ते 16 वर्ष तक जेल में काटे लेकिन आजादी के बाद भी सत्ता ने उन्हें बहुत कष्ट दिए। भयंकर नरसंहार के बीच विभाजन की त्रासदी झेलकर भारत आए शरणार्थियों की कोई सुध नहीं लेने पर उनकी मांगों के लिए आवाज बुलंद करने पर होशियारपुर के डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। लाला जी से लोगों का दु:ख-दर्द देखा नहीं जाता था।
* लाला जी अभिमानी नहीं, स्वाभिमानी थे।
* सत्य के लिए असत्य से जूझते रहे।
* भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ उन्होंने कई तीखे तेवर दिखाए।
यही कारण था कि कभी उन्होंने पंजाब में प्रताप सिंह कैरो की कार्यशैली का विरोध किया। राज्य में मंत्री भी रहे और सांसद भी। स्पष्टवादी इतने कि पंडित जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का विरोध उनके समक्ष दो टूक ढंग से कर देते थे। जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाया तो लालाजी के लिए ‘लोकतंत्र की हत्या’ का आघात असहनीय था। उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। देशभर में आपातकाल का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं की गिरफ्तारियां जारी थीं। उस समय मैं बेंगलुरु में आयोजित क्रिकेट कैम्प में भाग लेने पहुंचा हुआ था। इधर जालंधर में लाला जी को अपनी गिरफ्तारी की आशंका पहले से ही हो गई थी। कहते हैं ‘मूल से अधिक ब्याज प्यारा होता है’। लाला जी का मेरे प्रति स्नेह काफी प्रगाढ़ था। मैं जो बातें पूजनीय पिता श्री रमेश चन्द्र जी से नहीं कह पाता उन्हें मैं पूजनीय दादा जी से साझी कर लेता था। तभी मुझे बेंगलुरु में फोन आया था कि लाला जी ने मुझे जालंधर बुलाया है।
आशंका तो पहले से ही थी। मैं किसी तरह विमान से दिल्ली पहुंचा और दिल्ली से ट्रेन पकड़ कर जालंधर पहुंचा और रेलवे स्टेशन से ही रिक्शा पर मैं अपने आवास की तरफ बढ़ा तो सड़कों के किनारे दोनों ओर हुजूम खड़ा था। आवास के बाहर पुलिस खड़ी थी। लाला जी मेरे आगमन का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही मैं उनके सामने पहुंचा उन्होंने मुझे आलिंगनबद्ध किया और उनके चेहरे पर संतोष झलक रहा था। उन्होंने पुलिस अधिकारियों से कहा कि मुझे अपने पौत्र से मिलना था, मिल लिया अब कर लो मुझे गिरफ्तार। वह खुद ही पुलिस वाहन में सवार हो गए। उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। ऐसा था दादा-पोते का स्नेह। इस सम्पादकीय में मैं परिवार और समाज के प्रति दायित्व का वृत्त ही बांध सका हूं। लिखते हुए सारा समय मेरे जेहन में बरसात भरी काली तूफानी रात की तस्वीर घूमती रही, जिसमें बादलों की गरज और हवाओं का वेग न सह पाने के कारण सारी प्रकृति ही दुबकी पड़ी हो और एक अकेला ‘दिया’ इन तमाम झंझावातों से टक्कर लेता जूझ रहा हो। एक महाप्राण ने अपने महाप्रयाण से इसे साबित कर दिया।
”हमने उन तुंद हवाओं में जलाए हैं चिराग
जिन हवाओं ने उलट दी है बिसातें अक्सर।