आज हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका अतीत काल में विशाल भारत का एक हिस्सा हुआ करता था। आज श्रीलंका भी भारत की तरह ही एक प्रभुत्ता सम्पन्न स्वतंत्र देश है। उसका अपना स्वतंत्र संविधान है। श्रीलंका भारत के साथ कई प्रकार से जुड़ा हुआ है।
श्रीलंका निकटतम पड़ोसी तो है ही, हमारे देश की तरह वह भी राष्ट्रमंडल का सदस्य है। वह भी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का हिस्सा रहा और एशियाई देश तो वह है ही। एक और तथ्य ने भी श्रीलंका को भारत से जोड़े रखा है, वह यह कि श्रीलंका की कुल आबादी का एक बड़ा भाग तमिल भाषी होने के कारण भारतीय मूल का है। दोनों देशों के इतिहास से जुड़ी हुई है रामायण और श्रीराम। इतना सब कुछ होने के बावजूद भारत-श्रीलंका संबंधों में तनाव है।
श्रीलंका में भी भंडारनायके, जयवर्धने परिवार का सियासत में काफी अर्से तक दबदबा रहा। पिछले दो दशकों से राजपक्षे परिवार का वर्चस्व है। श्रीलंका की सत्ता पर दो भाइयों यानी एक परिवार का पूरी तरह कब्जा है। खास बात यह है कि श्रीलंका में परिवार के शासन को जनता का समर्थन रहा है। श्रीलंका पीपुल्स पार्टी के 74 वर्षीय नेता महिंदा राजपक्षे ने चौथी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली है।
महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई और श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार अब श्रीलंका की सत्ता पर दो भाइयों की पकड़ और मजबूत हो जाएगी। उनकी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन को चुनाव में दो तिहाई बहुमत मिला है। महिंदा राजपक्षे 2005 से 2015 के बीच करीब एक दशक तक देश के राष्ट्रपति रह चुके हैं।
दोनों भाइयों को चीन का करीबी बताया जाता है लेकिन श्रीलंका की विदेश नीति में लगातार बदलाव देखने को मिलता रहा है। महिंदा राजपक्षे बहुसंख्यक सिंहली जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हैं और उनके चाहने वाले उन्हें किंग कह कर पुकारते हैं। पुरानी बात नहीं है जब सरकारी टेलीविजन पर एक गीत के जरिए जनता को यह बताया जा रहा था कि किंग ने किस तरह से देश को तमिल विद्रोहियों से बचाया था।
हालांकि 2009 में खत्म हुए श्रीलंकाई गृह युद्ध के दौरान उन पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे जिन्होंने आज तक उनका पीछा नहीं छोड़ा। श्रीलंका में गृह युद्ध में हजारों लोग मारे गए थे। राजपक्षे के बेटे नमल राजपक्षे को भी आम चुनाव में हम्बनटोटा सीट से जीत मिली है। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने नवम्बर 2019 में हुआ राष्ट्रपति चुनाव जीता था। तब से ही इस बात की उम्मीद बढ़ गई थी कि महिंदा राजपक्षे ही चौथी बार देश के प्रधानमंत्री बनेंगे।
संसदीय चुनाव में उन्हें 150 सीटों की जरूरत थी जो संवैधानिक बदलावों के लिए जरूरी है। इसमें संविधान का 19वां संशोधन भी शामिल है जिसने संसद की भूमिका मजबूत करते हुए राष्ट्रपति की शक्तियों पर नियंत्रण लगा रखा है। अब गोटाबाया राजपक्षे संविधान संशोधनों को पलट कर अपने को शक्तिशाली बनाना चाहते हैं।
पिछली सरकार में राष्ट्रपति थे मैत्रीपाला सिरीसेना और प्रधानमंत्री थे रनिल विक्रम सिंघे। इन दोनों ने गठबंधन करके सरकार बनाई थी मगर आपसी खींचतान और भ्रष्टाचार ने उन्हें सत्ता से हाथ धोने के लिए मजबूर कर दिया। दो वर्ष पहले श्रीलंका के चर्च में हुए आतंकवादी हमले में 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे। इससे भी सरकार की लापरवाही की पोल खुल गई थी और लोगों में रोष था।
भारत-श्रीलंका में समझौते के बाद 13वां संविधान संशोधन किया गया था, उसमें श्रीलंका के तमिलों को कुछ छूटें दी गई थी, अब इनमें भी फेरबदल किया जाएगा। वैसे भी इन चुनावों में तमिल स्वायत्तता के लिए लड़ने वाले तमिल नेशनल एलायंस की सीटें 16 से घटकर दस रह गई हैं।
श्रीलंका में तमिलों का जीना दुश्वार होने की आशंका है। इससे भारत और श्रीलंका में तनाव बढ़ सकता है। श्रीलंका में राष्ट्रवादी शक्तियों का उभार पूरी तरह हो चुका है। अहम सवाल यह है कि दोनों भाइयों की सरकार तमिल नागरिकों के प्रति क्या नजरिया रखती है। इसके साथ ही यह सवाल भी सामने है कि देश के उत्तरी तमिल इलाके के स्वायत्तता के सवाल पर उनकी भूमिका क्या रहती है।
भारत सरकार की नजरें हिन्द महासागर पर रहेंगी और राजपक्षे का परिवार चीन समर्थक माना जाता है। भारत सरकार और राजपक्षे के बीच रिश्ते कड़वे ही रहे हैं। इतना ही नहीं जनवरी 2015 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे की पराजय के बाद उन्हें हटाने वाले मैत्रीपाला सिरीसेना का दिल्ली में भव्य स्वागत किया गया था तब राजपक्षे परिवार ने आरोप लगाया था कि भारत के एक राजनयिक ने उन्हें हटाने में भूमिका निभाई है।
उम्मीद तो की जानी चाहिए कि दोनों भाई एकतरफा तरीके से चीन के पक्ष में नहीं जाएंगे। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि श्रीलंका के काफी लोग मानते हैं कि चीनी सहायता अंततः देश को कर्जदार बना देती है और देश हमेशा के लिए दबाव में आ जाता है। श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह और मताला राजपक्षे एयरपोर्ट का उदाहरण सामने है।
मजबूरी में हम्बनटोटा बंदरगाह चीन को 99 साल के पट्टे पर देना पड़ा था। देश में चीनी कर्जे को लेकर भी सवाल उठाये जाते रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों भाई सियासत में काफी शक्तिशाली हो चुके हैं लेकिन क्या दोनों भाइयों का शासन वहां के लोकतंत्र के लिए खतरा तो नहीं बन जाएगा? शासन तमिलों और मुस्लिमों को अपने साथ जोड़कर चलाना होगा अन्यथा स्थितियां खराब हो सकती हैं।
भारत ने हमेशा श्रीलंका के तमिलों के हितों के लिए आवाज उठाई है। पीड़ा इस बात की है कि हमने श्रीलंका के कारण अपने देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को खोया है लेकिन श्रीलंका अगर चीन की गोद में बैठकर खेलेगा तो तकलीफ तो होगी ही।
-आदित्य नारायण चोपड़ा