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किसान, कृषि कानून और संसद

किसानों के आन्दोलन पर संसद के भीतर अभी तक जो बहस हुई है उसका एक नतीजा आसानी से निकाला जा सकता है कि सरकार तीन नये कृषि विधेयकों में संशोधन करने के लिए तैयार है।

किसानों के आन्दोलन पर संसद के भीतर अभी तक जो बहस हुई है उसका एक नतीजा आसानी से निकाला जा सकता है कि सरकार तीन नये कृषि विधेयकों में संशोधन करने के लिए तैयार है। कृषि मन्त्री श्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने राज्यसभा में जब इस आशय का सदन में इजहार किया तो विपक्षी दलों के नेताओं ने भी इसे सामान्य तरीके से लिया और किसी प्रकार का आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। इसकी वजह यह थी कि श्री तोमर सदन से बाहर भी किसान नेताओं से बातचीत में ऐसा प्रस्ताव रख चुके थे, परन्तु लोकसभा में केरल के प्रखर विपक्षी सांसद श्री एन.के. प्रेमचन्द्रन ने इसी मुद्दे पर श्री तोमर के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाने का बयान जारी कर दिया था। उनका यह निर्णय हालांकि अभी तक अमल में नहीं आया है मगर एक सवाल जरूर उठता है कि श्री प्रेमचन्द्रन किसानों के हक में हैं या विरोध में ? क्योंकि किसी भी सरकार का किसी भी कानून में संशोधन करने का अधिकार होता है बशर्ते वह संविधान की मूल भावना और निर्दिष्ट नीतियों के अनुरूप हो।
 कृषि कानूनों का सम्बन्ध सीधे बाजार मूलक अर्थव्यवस्था की नीतिगत दिशा से है, अतः यह पूरी तरह न्यायिक प्रशासन के दायरे से बाहर इस हद तक है कि नये कानून संविधान की कसौटी पर खरे उतरें। सर्वोच्च न्यायालय में मूल रूप से यही विषय इन कानूनों के बारे में विचाराधीन है। विधि विशेषज्ञों की राय में इन कानूनों के अमल पर दो महीने के लिए रोक लगा कर और एक कृषि विशेषज्ञ समिति गठित करके सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशासनिक मसलों में अपना विस्तार किया है क्योंकि ये कानून देश की सर्वोच्च संसद द्वारा बनाये गये हैं। वैसे हर कानून संसद द्वारा ही बनाया जाता है और कई मौकों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक भी करार दे दिया जाता है परन्तु इसका सम्बन्ध केवल संविधान की आधारभूत निदेशिका और वास्तविक व व्यावहारिक भावना से ही होता है। अतः श्री तोमर के प्रस्ताव का विपक्षी दलों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए था और प्रेमचन्द्रन को विशेषाधिकार हनन के मुतल्लिक बयान देने से पहले सौ बार सोचना चाहिए था।
हालांकि तकनीकी रूप से कानून में संशोधन संसद से बाहर कोई ताकत नहीं कर सकती  खैर अब मामला संसद के दायरे में है और सरकार को सोचना है कि वह किस प्रकार के संशोधन इन कानूनों में ला सकती है जिससे आन्दोलनकारी किसानों को सन्तोष हो सके। कृषिमन्त्री जानते हैं कि किसानों का रोष किन- किन मुद्दों पर है अतः वे संशोधन भी उन्हीं के अनुरूप लाने के प्रयास करेंगे। लोकतन्त्र में यह कोई एेसी घटना नहीं है जिस पर किसी भी सरकार को नीचा देखना पड़े। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब सरकार अपने ही विधेयकों को पारित कराने के बाद उनमें पुनः संशोधन प्रस्ताव लाई है। 1991 में अर्थव्यवस्था का स्वरूप आधारभूत रूप से बदलने के बाद न जाने कितने आर्थिक व वित्तमूलक संशोधन पुराने कानूनों में हो चुके हैं। मुद्दे की बात यह है कि कृषि कानूनों को लेकर सरकार की मंशा और नीयत क्या है ? कृषि क्षेत्र को बाजार मूलक बनाने के पीछे नीयत में कहीं कोई खोट इसलिए नहीं है क्योंकि बदलते वक्त की यह जरूरत इस तरह है जिससे किसानों का अपनी उपज के मूल्य पर सत्वाधिकार हो सके।  वरना फिर यह आशंका क्यों जताई जाती है कि नये कानूनों के लागू होने से कृषि उत्पादों के मूल्य बहुत बढ़ जायेंगे? बेशक इसमें बहुत से पेंचोखम सभी तीन कानूनों के समन्वित प्रभाव को आंकलन में लेने के बाद पड़ जाते हैं, मगर यह तो स्पष्ट होता ही है कि सरकार की नीयत साफ है।
 1991 के बाद जब तत्कालीन वित्तमन्त्री डा. मनमोहन सिंह ने सार्वजनिक कम्पनियों के विनिवेश की नीति को लागू किया था तो मीडिया के एक भाग के साथ ही कुछ विपक्षी दलों ने इसे ‘भारत बेचने’ तक के नाम से नवाजा था। एक हिन्दी के अखबार ने तो यह शृंखला ही शुरू कर दी थी कि ‘किश्तों में बिकता भारत’, परन्तु आज नतीजा हमारे सामने है। 2005 से लेकर 2015 तक के दौरान इसी बाजार मूलक नीतियों के चलते 25 करोड़ के लगभग लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठने में कामयाब हुए हैं। अतः संसद के भीतर कृषि कानूनों पर जो मंथन चल रहा है उसमें से ऐसा ‘अमृत’ निकलना चाहिए जिसे पीकर किसान भी तृप्त हो सकें और उनमें जो डर व आशंकाएं बैठ गई हैं, उनका समाधान हो।   कृषि मूल रूप से राज्यों का ही विषय है इसलिए पूर्व में यह रास्ता अख्तियार किया होगा। इसलिए अब संसद को ही सोचना है कि वह कौन सी राह पकड़े जिससे कृषि कानून भावनात्मक रूप से भी  किसान मूलक बन सकें।  लोकतन्त्र में भावना का भी बहुत महत्व होता है।  लोकतन्त्र में लोकभावना ही सरकारों को मकबूलियत और इकबाल बख्शती है और इसके साथ यह भी हकीकत है कि लोकतन्त्र में लोगों की मांगें बेशक देर से स्वीकार होती हैं मगर जो भी होती हैं वे किसी सौगात के रूप में नहीं बल्कि हक के तौर पर होती हैं। अतः संसद को समय के अनुरूप उठ कर खड़ा होना चाहिए और गफलत के माहौल को समाप्त कर देना चाहिए।

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