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अंधेरे में रास्ता ढूंढती कांग्रेस !

कांग्रेस पार्टी को बचाने के लिए जिस तरह हर नेता अपना-अपना फार्मूला दे रहा है उसे देखकर यही लगता है कि देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का सारा जोश ठंठा पड़ चुका है और अब सभी अपने-अपने ‘एनर्जी ड्रिंक्स’ पिलाकर इसे तरो-ताजा करना चाहते हैं।

कांग्रेस पार्टी को बचाने के लिए जिस तरह हर नेता अपना-अपना फार्मूला दे रहा है उसे देखकर यही लगता है कि देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का सारा जोश ठंठा पड़ चुका है और अब सभी अपने-अपने ‘एनर्जी ड्रिंक्स’ पिलाकर इसे तरो-ताजा करना चाहते हैं। 
लोकतन्त्र में कोई भी राजनैतिक दल केवल आम जनता के सहयोग से ही ऊर्जावान रह सकता है मगर कांग्रेसियों काे यकीन है कि उनकी पार्टी केवल ‘नेहरू-गांधी परिवार’ के आसरे पर ही जीवित रह सकती है। दरअसल बदलते भारत की हकीकत को कांग्रेसी नजरन्दाज कर रहे हैं और उस पुराने ढर्रे को पकड़े रहना चाहते हैं जो 1969 में इस पार्टी का पहला विघटन करके स्व. इन्दिरा गांधी ने चलाया था परन्तु दिक्कत यह है कि कांग्रेस के पास अब कोई ‘इन्दिरा गांधी’ नहीं है जिसके व्यक्तित्व का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोल सके उल्टे उस जनसंघ (भाजपा) के हाथ में नरेन्द्र मोदी के रूप में  ऐसा व्यक्तित्व आ गया है जिसका जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा है। 
इन्दिरा जी को भी पं. नेहरू की पुत्री होने के बावजूद अपने बूते पर वह फनकारी अर्जित करनी पड़ी थी जिसकी वजह से देश की जनता उनकी आवाज में अपनी आवाज मिलती देखती थी। ठीक यही काम 2019 के चुनावों में श्री नरेन्द्र मोदी ने करने में सफलता हासिल की है। यह भी संयोग है कि कांग्रेस विघटन के बाद हुए 1971 के लोकसभा चुनावों में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की कार्यशैली को लेकर वैसे ही आरोप विपक्षी दल लगा रहे थे जैसे 2019 के चुनावों में श्री नरेन्द्र मोदी पर लगाये गये हैं। मसलन उन्हें तानाशाही और अधिनायकवादी प्रवृत्ति का शासक बताया जा रहा था। व्यक्तिवादी राजनीति का जनक बताया जा रहा था। 
तत्कालीन जनसंघ के नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी स्वयं विभिन्न शहरों में अपनी जनसभाओं में घोषणा कर रहे थे कि लोकतन्त्र में व्यक्ति से बड़ा संगठन होता है। अधिनायकवाद की लोकतन्त्र में कोई जगह नहीं है। इन्दिरा जी ने राष्ट्रपति चुनावों में अपनी ही पार्टी के साथ विश्वासघात करके सिद्धान्त विहीनता की राजनीति का सूत्रपात किया है। 
व्यक्ति पूजा के लिए लोकतन्त्र में कोई स्थान नहीं है आदि-आदि मगर चुनावों में लोगों ने इन्दिरा जी को सिर-आंखों पर इस तरह उठाया कि बड़े-बड़े राजनैतिक पंडित गश खाकर गिर पड़े और समूचा विपक्ष एकत्र होकर कथित ‘चौगुटा’ बनाने के बावजूद औंधे मुंह गिर पड़ा। इसकी वजह एक ही थी कि उस समय इन्दिरा गांधी ने देश के गरीब व मुफलिस लोगों में एक उम्मीद की किरण पैदा की थी और ऐलान किया था कि बैंकों में जमा धन सिर्फ उद्योगपतियों व पूंजीपतियों के लिए नहीं है बल्कि रिक्शा वाले से लेकर छोटे-मोटे दुकानदार और किसानों के लिए भी है। इतना ही नहीं उन्होंने राष्ट्रवाद के मोर्चे पर भी सभी पार्टियों को पटकनी दे दी और सिक्किम देश का भारतीय संघ में विलय करा दिया। 
मार्च 1971 में चुनाव हुए और दिसम्बर 1971 में पाकिस्तान को बीच से चीर कर दो टुकड़ों में बांट डाला। इसके बाद 1974 में पहला पोखरण परमाणु विस्फोट कर डाला। अतः इन्दिरा गांधी भारत की शक्ति पुंज बन गईं और अपने विरोधियों के लिए अपराजेय जैसी हो गईं (फिलहाल इमरजेंसी की बात नहीं करते हैं) मगर ठीक ऐसा ही काम श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पांच साल की शासन अवधि में थोड़ा घुमा कर किया। 
उन्होंने सबसे पहले अपने साथ गरीबों को जोड़ा और वर्षों से चले आ रहे एेसे नियम-कायदों को बदला जो भारत के आम आदमी में खीझ पैदा करते थे। मसलन प्रमाणपत्र सत्यापन की मजबूरी। बदलते भारत के लोगों के लिए टैक्नोलोजी के माध्यम से दैनिक व्यवहार के सरकारी कायदों को सरल बनाया। शौचालय निर्माण जैसे कार्य को आन्दोलन के रूप में प्रस्तुत किया मगर ये सभी कार्य करते समय उन्होंने कांग्रेस के विमर्श के सीधे विपरीत विमर्श पेश किया और लोगों को यकीन दिलाया कि उनकी नीयत में  कहीं कोई खोट नहीं है। 
बेशक बड़े नोटों का प्रचलन बन्द करने से देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई और बेरोजगारी भी किसी हद तक बढ़ी परन्तु 70 प्रतिशत गरीब व मध्यम वर्ग की जनता में श्री मोदी के प्रति यह विश्वास बना रहा कि उन्होंने यह काम काला धन समाप्त करने के लिए किया है। बेशक आतंकवाद की घटनाएं कश्मीर घाटी में होती रहीं मगर लोगों में यह यकीन रहा कि मोदी की सख्त नीतियों से ही कश्मीर में शान्ति कायम होगी। अतः भाजपा के इस विमर्श का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने बदलते माहौल में स्वयं को ढालने का प्रयत्न करने की जगह मोदी सरकार की हर नीति का विरोध करना श्रेयस्कर समझा। 
बेशक साम्प्रदायिक मोर्चे पर पार्टी के रूढ़ीवादी तत्वों ने नई-नई समस्याएं पैदा कीं परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का बंटवारा धर्म की वजह से ही हुआ था मगर इसका मतलब यह नहीं था कि कांग्रेस अपनी मूल विचारधारा से ही हटकर उदार हिन्दुत्व की शरण में चली जाती बल्कि उसे उन मूल्यों के लिए जी-जान लगा देनी चाहिए थी जो गांधीवाद का अभिन्न अंग हैं। अतः इस पार्टी की ऊर्जा तो पिछले पांच साल में ही खत्म करने का सारा सामान मुहैया करा दिया गया। 
इस बीच जिन भी राज्यों में कांग्रेस की जीत हुई वह प्रादेशिक स्तर पर भाजपा सरकारों के कुकृत्यों और मनमानी व भ्रष्टाचार की वजह से हुई जिससे लोग निजात पाना चाहते थे लेकिन राष्ट्रीय चुनावों में श्री मोदी की छवि के आगे कोई नेता नहीं टिक पाया लेकिन क्या कयामत है कि कांग्रेस अब भी मिलिन्द देवड़ा और ज्योतिरादित्य सिन्धिया जैसे ‘खानदानी निशानों’ को ही पकड़ रही है और सोच रही है कि ये जमीन पर फसल लहलहा देंगे? ये कहां के नेता हैं और किस वजह से नेता हैं? कांग्रेस पार्टी के पास अगर उम्मीद की किरण है तो वो सिर्फ प्रियंका गांधी है। 
अगर​ प्रियंका का भाई राजनीति न करना चाहता हो और खुद प्रियंका के नाम पर मोहर लगाकर उसे अध्यक्ष पद पर बिठा दे, तभी प्रियंका शायद माने, वरना  जहां तक मैं समझता हूं अपनी मां और भाई की कभी भी, किसी भी हालत में उनकी मर्जी के बिना प्रियंका आगे नहीं आएंगी। वैसे भी प्रियंका को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने में काफी मेहनत-मशक्कत करनी पड़ेगी। इंदिरा गांधी का अक्स प्रियंका में ही नजर आता है। 
अगर कांग्रेस पार्टी को बिखराव से बचना है तो गांधी परिवार का नया चेहरा ही पार्टी को बचा सकता है। वो ​प्रियंका गांधी हैं जो कांग्रेस का भविष्य हैं आज नहीं तो कल? पीढ़ी परिवर्तन की राजनीति उम्र से तय नहीं होती बल्कि सोच से तय होती है। 2014 में 62 वर्ष के नरेन्द्र मोदी ने देश की युवा पीढ़ी को ही सबसे पहले अपना दीवाना बनाया था। अतः कांग्रेस को बन्द कमरे में खिंची लकीर से हटकर रोशनी में आकर इबारत लिखनी चाहिए।

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