जनहित याचिका एक शक्ति है लेकिन भारत में किसी भी शक्ति का दुरुपयोग होना अब सामान्य होता जा रहा है। 1986 में जस्टिस पी.एन. भगवती ने व्यवस्था दी थी कि मौलिक अधिकारों के मामले में कोई भी व्यक्ति सीधे न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। उन्होंने ही 1978 के मेनका गांधी पासपोर्ट कुर्की मामले में जीने के अधिकार की व्याख्या की थी। उन्होंने व्यवस्था दी थी कि व्यक्ति का आवागमन नहीं रोका जा सकता। हर किसी को पासपोर्ट रखने का अधिकार है। जनहित से जुड़े व्यापक महत्व के मुद्दों को हल करने में जनहित याचिका एक कारगर हथियार बना और यह धारदार भी बना। अगर कोई मामला निजी न होकर व्यापक जनहित से जुड़ा है तो याचिका को जनहित के तौर पर देखा जाता है। याचिका डालने वाले शख्स को अदालत में यह बताना होगा कि कैसे उस मामले में आम लोगों के हित प्रभावित हो रहे हैं। जनहित की आड़ में आधारहीन याचिकाओं की निरन्तर बढ़ती हुई बाढ़ अब भयावह खतरा बन चुकी है। मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है।
तीन दशक पहले विचाराधीन कैदियों, लावारिस बच्चों, वेश्याओं, बाल श्रमिकों और पर्यावरण के मुद्दों पर लोगों की जनहित याचिकाएं दायर की गई थीं। अदालतों ने भी जनहित याचिकाओं की अनिवार्यता को समझा था। न्याय व्यवस्था में आम लोगों के बढ़ते गुस्से को शान्त करने के लिए यह जरूरी भी था। हालांकि इससे बहुत फायदे भी हुए। लोग बहुत से मुद्दों के प्रति जागरूक हो गए लेकिन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लक्ष्य आधे-अधूरे रहे। स्वयंसेवी संगठनों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों, वकीलों, पत्रकारों और स्वायत्तजीवियों ने जनहित याचिकाओं की बाढ़ ला दी और अदालतों में तर्क-वितर्क होने लगे। जनहित याचिकाओं की आड़ में इन लोगों ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान भी कमाया।
समय-समय पर हास्यास्पद याचिकाएं दायर की गईं, जैसे-अरब सागर का नाम बदलकर सिंधु सागर करने और राष्ट्रगान से सिंध शब्द हटाने और भारत का नाम हिन्दुस्तान करने सम्बन्धी याचिकाएं। अदालतों का समय बर्बाद किया गया। पर्यावरण प्रदूषण के नाम पर ढेरों आदेश, हजारों फैक्टरियां हटाने का फैसला, झुग्गी-झोंपडिय़ां हटाने का आदेश, हजारों लोग उजड़ गए, कामकाज प्रभावित हुआ। क्या दिल्ली में प्रदूषण कम हुआ, क्या दिल्ली में अवैध निर्माण बन्द हुआ? राजधानी इस समय जहरीली गैसों का चैम्बर बन चुकी है। अदालतों के आदेश समाज उपयोगी होने के बावजूद जनविरोधी सिद्ध हुए। अदालतों ने समय-समय पर आधारहीन याचिकाएं दायर करने वालों को भारी-भरकम जुर्माना भी लगाया। एक व्यक्ति ने तो रुपयों पर से महात्मा गांधी का चित्र हटाए जाने की मांग वाली याचिका दायर की थी और मांग की थी कि उनके स्थान पर देवी-देवताओं के चित्र लगाए जाएं। हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने याचिका खारिज कर दी थी और साथ ही याचिकादाता पर 25 हजार रुपए जुर्माना लगाया था। सुप्रीम कोर्ट ने तुच्छ याचिकाओं के प्रति कठोर रुख अपनाया है। अदालत का समय बर्बाद करने पर बिहार के राजद विधायक रविन्द्र सिंह पर 10 लाख रुपए का जुर्माना इसी वर्ष फरवरी में लगाया गया था।
बिग बॉस के जरिये काफी प्रचार पा चुके स्वामी ओम, जो अपनी विवादित टिप्पणियों और ऊल-जुलूस हरकतों के कारण जनता से कई बार पिट चुके हैं। वह भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और याचिका दायर की जिसमें कहा गया था कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति करते समय सीजेआई की सिफारिश क्यों ली जाती है। यह याचिका स्वामी ओम की थी जो जनता की नजर में एक ‘विदूषक’ है। सवा घण्टे की बहस के बाद चीफ जस्टिस खेहर और जस्टिर डिवाई चन्द्रचूड़ ने स्वामी ओम और उनके साथी मुकेश जैन पर 10-10 लाख रुपए जुर्माना लगाया। स्वामी ओम ने कहा कि उनके पास धन नहीं है तो अदालत ने दिलचस्प टिप्पणी की कि ”आपने अपने अनुयायियों की संख्या 34 करोड़ बताई है, वह एक-एक रुपया भी देंगे तो आम जुर्माना भी आसानी से भर देंगे और आपका काफी धन भी बच जाएगा।”
यह सही है कि जनहित याचिकाओं का सबसे बड़ा योगदान यह रहा कि इसने कई तरह के नवीन अधिकारों को जन्म दिया। उदाहरण के तौर पर इसने तेजी से मुकद्दमे की सुनवाई का अधिकार, हिरासती यातना के विरुद्ध अधिकार, दासता के विरुद्ध अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और अन्य कई अधिकार। इसमें न्यायपालिका को काफी प्रतिष्ठा भी दिलाई लेकिन कुछ विदूषक केवल प्रचार पाने के लिए औचित्यहीन याचिकाएं दायर कर रहे हैं जिनका सम्बन्ध व्यापक जनहित में नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट के एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि जनहित याचिकाओं को सही ढंग से नियंत्रित नहीं किया गया। इसके दुरुपयोग को नहीं रोका गया तो यह अनैतिक हाथों द्वारा प्रचार, प्रतिशोध और राजनीतिक स्वार्थसिद्धि का हथियार बन जाएगा। न्यायपालिका पर मुकद्दमों का काफी बोझ है। न्याय व्यवस्था में उचित बदलाव जरूरी है।