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महाराष्ट मे अटकल बाजिया

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में नेताओं का एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाना कोई नई बात नहीं है मगर 1986 में दल-बदल कानून बन जाने और बाद में वाजपेयी सरकार के समय इसके और सख्त होने से दल-बदल के तरीके में नये-नये परिवर्तन हमें वर्तमान राजनीति में देखने को मिल रहे हैं।

स्वतन्त्र भारत की राजनीति में नेताओं का एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाना कोई नई बात नहीं है मगर 1986 में दल-बदल कानून बन जाने और बाद में वाजपेयी सरकार के समय इसके और सख्त होने से दल-बदल के तरीके में नये-नये परिवर्तन हमें वर्तमान राजनीति में देखने को मिल रहे हैं। बेशक संसदीय लोकतन्त्र में इन दल-बदल के तरीकों को राजनैतिक, नैतिकता व संवैधानिक शुचिता के खिलाफ कहा जा सकता है मगर बदलते राजनैतिक मानदंडों व चरित्र के नजरिये से अगर हम इसे सम्पूर्णता में देखें तो यह केवल सिद्धान्त विहीनता व विचारविहीनता का ही विस्तार लगता है। लोकतन्त्र में राजनीति जब विचारविहीन हो जाती है तो वह बाजार में बिकने वाली किसी ‘वस्तु’ के समान हो जाती है। अतः वर्तमान राजनीति की जो वर्जनाएं हैं वे कहीं न कहीं जारी आर्थिक नीतियों की अनुषांगी भी लगती हैं जिसमें बाजार की शक्तियां ही अर्थव्यवस्था का निर्धारण करती हैं। किसी भी लोकतन्त्र में यह संभव ही नहीं हो सकता कि आर्थिक नीतियां राजनीति को प्रभावित न करें। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का मूल अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है अतः राजनीति भी इससे अप्रभावित नहीं रह सकती। 
भारत में  चुनावों के लगातार महंगे होते जाने और जन प्रतिनिधि बनने में बढ़ती धन की भूमिका का मूल कारण भी यही समझा जा सकता है। हाल ही में महाराष्ट्र से यह बड़ी गरम खबर आयी कि श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता श्री अजित पवार अपने कुछ समर्थक विधायकों के साथ राज्य की सत्तारूढ़ शिवसेना-भाजपा सरकार के खेमे में नजर आ सकते हैं। इसके पीछे यह भी कारण हो सकता है कि तीन साल पहले महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों के बाद जब शिवसेना व भाजपा के बीच दोस्ती खत्म हो गई थी और दोनों पार्टियों के बीच मुख्यमन्त्री पद लेने पर रस्साकशी हो रही थी तो अचानक ही सुबह-सबेरे तत्कालीन राज्यपाल श्री भगत सिंह कोशियारी ने भाजपा के देवेन्द्र फडणवीस  को मुख्यमन्त्री व राष्ट्रवादी कांग्रेस के श्री अजित पवार को उपमुख्यमन्त्री पद की शपथ दिला दी थी जबकि अजित दादा की पार्टी के सर्वोसर्वा श्री शरद पवार शिवसेना व कांग्रेस के साथ गठबन्धन करके इसकी सरकार गठित करने के प्रयास कर रहे थे। 
फडणवीस व अजित पवार की जोड़ी की सरकार बामुश्किल दो दिन भी नहीं चली और अजित पवार श्री शरद पवार की शरण में चले आये। इसके बाद कांग्रेस, शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस का महागठबन्धन बना जिसे महाविकास अघाड़ी हाे गया और इसका मुख्यमन्त्री शिवसेना के श्री उद्धव ठाकरे को बनाया गया और यह सरकार पूरे जोर-शोर के साथ पिछले वर्ष तक ढाई साल के लगभग चली परन्तु तब शिवसेना के ही वरिष्ठ मन्त्री एकनाथ शिन्दे ने ​िशवसेना के 45 विधायकों के साथ अपनी पार्टी से विद्रोह कर दिया और श्री उद्धव ठाकरे को ही चुनौती दे डाली कि असली शिवसेना वही हैं क्योंकि उनके साथ शिवसेना के बहुसंख्य और दो-तिहाई विधायकों की संख्या है। शिवसेना से यह टूट दो चरणों में हुई। 
पहले चरण में 16 विधायक आये और शेष दूसरे चरण में गुजरात व असम के विश्राम गृहों में इकट्ठा होकर आये और महाराष्ट्र में सरकार बदल गई तथा श्री ठाकरे ने विधानसभा की बदली संरचना में शक्ति परीक्षण होने से पहले ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद श्री शिन्दे को मुख्यमन्त्री पद देकर भाजपा ने पूर्व मुख्यमन्त्री श्री फडणवीस को उपमुख्यमन्त्री बना दिया। मगर ​शिन्दे के नेतृत्व में शिवसेना छोड़ कर भाजपा के खेमे में पहुंचे विधायकों की सदस्यता को लेकर मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच गया जिसने इस मामले की सुनवाई लगभग पूरी कर ली है। राजनीतिक क्षेत्रों में यह चर्चा भी गरमागरम है कि शिन्दे समेत पहली खेप में शिवसेना छोड़ने वाले 16 विधायकों की सदस्यता खत्म हो सकती है अतः भाजपा अपनी सरकार बनाने के लिए पहले से ही आकस्मिक योजना तैयार कर रही है और इसके लिए अजित दादा पर फिर से हाथ आजमाना चाहती है। अजित दादा से राष्ट्रवादी कांग्रेस के विधायकों के मिलने-जुलने का सिलसिला भी चल पड़ा और इसी बीच अजित दादा ने भी केन्द्र की मोदी सरकार के समर्थन में कुछ वक्तव्य दिये। इससे आशंकाओं का बाजार गर्म होने में मदद मिली। मगर पूरा देश जानता है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस के एक मात्र नेता श्री शरद पवार ही हैं जिनके पीछे मराठा क्षेत्र में भारी जनसमर्थन हमेशा रहता है। अजित पवार हालांकि शरद पवार के भतीजे हैं मगर उन्हें राजनीति में लाने वाले शरद पवार ही हैं और उनकी राजनीति शुरू से ही भाजपा विरोधी रही है। उनका जनाधार भी इसी सामाजिक समीकरण पर मजबूत माना जाता है अतः अजित पवार चाह कर भी भाजपा के साथ हाथ नहीं मिला सकते। यही वजह रही कि बीते दिन श्री शरद पवार ने उद्धव ठाकरे से मन्त्रणा करने के बाद वक्तव्य दिया कि उनकी पार्टी के टूटने की खबरें सही नहीं हैं मगर अजित पवार के पुराने इतिहास को देखते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि कहीं न कहीं दाल में कुछ काला हो सकता है। 

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