संसद से लेकर सड़क तक राफेल लड़ाकू विमान सौदे के शोर के चलते यह पता ही नहीं चला कि कब सत्तारूढ़ एनडीए से इसके एक घटक दल राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष और केन्द्र में राज्यमन्त्री उपेन्द्र कुशवाहा इससे विद्रोह करके अलग हो गये। बिहार के दबे-कुचले वर्ग की राजनीति करने वाले नेता की लोकसभा में ज्यादा ताकत नहीं है इसके बावजूद बिहार के पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों में उनकी अपनी अलग साख मानी जाती है लेकिन आज पटना में घटी राजनैतिक घटना का संज्ञान राष्ट्रीय राजनीति को इसलिए लेना होगा कि यह राज्य देश की सियासत में जनता की अपेक्षाओं की चिंगारी सुलगाने का कार्य शुरू से ही करता रहा है।
श्री कुशवाहा के साथ ही लोकतान्त्रिक जनता दल के अध्यक्ष श्री शरद यादव का मौजूद होना इस बात का परिचायक माना जाना चाहिए कि मामला राजनैतिक गठजोड़ से ऊपर निकल कर विचारधारा के धरातल पर पहुंच गया है और बिहार का इस बारे में कोई तोड़ नहीं है क्योंकि यह राष्ट्रवाद से लेकर साम्यवाद और समाजवादी विचारधाराओं के उठने और गिरने का साक्षी रहा है। बेशक यह सारी कवायद 2019 के लोकसभा चुनावों को लेकर ही हो रही है क्योंकि अन्ततः आम जनता को ही फैसला करना है कि यह देश कौन सी राह पर चलेगा। इन चुनावों के मुद्दे क्या होंगे अभी इसका फैसला होना बाकी है मगर इतना निश्चित है कि सत्तारूढ़ भाजपा के विरुद्ध सभी प्रमुख विपक्षी दल एक साथ आना चाहते हैं जिससे यह पता चलता है कि भाजपा का राष्ट्रवाद शेष सभी विचारधाराओं के विविधतापूर्ण आर्थिक मानवतावाद के नजरिये को डरा रहा है।
इनमें सबसे प्रमुख गांधीवादी विचारधारा है जिसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस पार्टी करती आ रही है परन्तु पिछले तीस वर्षों की राजनीति को अगर हम गौर से देखें तो सत्ता पर काबिज होने के लिए राजनैतिक दलों के लिए विचारधारा कोई अड़चन नहीं रही है और वे बड़ी आसानी के साथ कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस के साथ गठबन्धन बनाकर हुकूमत में बैठते रहे हैं। क्या इसे हम विचारधारा विहीन राजनीति का दौर मान सकते हैं ? संभवतः यह सत्य है और इसे स्वीकार करने में किसी को हिचक नहीं होनी चाहिए। यदि एेसा न होता तो कांग्रेस पार्टी से अलग होकर ही विभिन्न राज्यों में अलग-अलग कांग्रेस पार्टियां क्यों बनतीं और शरद पवार जैसा कद्दावर नेता महाराष्ट्र में और ममता बनर्जी जैसे जुझारू जननेता प. बंगाल में अपनी अलग कांग्रेस पार्टी क्यों बनाते? आश्चर्य की बात है कि ये सभी सूबाई कांग्रेस पार्टियां भारी दम-खम के साथ अपने-अपने राज्यों में कामयाब हैं मगर दूसरी तरफ जनसंघ या भाजपा से अलग होकर जिस नेता ने भी अपनी अलग पार्टी बनाकर स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखने की जुर्रत की उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
इसका सीधा अर्थ यही निकाला जा सकता है कि राष्ट्रवाद में सहनशीलता या दूसरा रास्ता अख्तियार करके अपने विचारों का प्रसार करने वालों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इसे कुछ लोग राष्ट्रवाद का गुण भी बता सकते हैं कि यह कोई अन्य सिद्धान्त स्वीकार ही नहीं करता है और घोषणा करता है कि केवल उसका रास्ता ही सही रास्ता है लेकिन दृढ़ता का मतलब जड़ता नहीं होता। इसी वजह से गांधी ने इस देश को किसी भी वाद में न पड़ते हुए केवल भारतवाद का सन्देश दिया और उसे बाद मंे चिन्तकों ने ‘गांधीवाद’ का नाम देकर पूरी दुनिया के सामने नये विकल्प के रूप में रखा। अतः भारत में आज विचारधारा की राजनीति का मुद्दा उठना बेमतलब नहीं है क्योंकि पूरे देश मंे जिस तरह का वातावरण बना हुआ है उसमें सत्ता की चाबी बहुत आराम से धन की ताकत पर हुकूमतें काबिज करने वाले लोगों के हाथ में पहुंच गई है। इसमें आर्थिक उदारीकरण की नीतियों की बहुत निर्णायक भूमिका रही है क्योंकि सामाजिक-आर्थिक विकास मंे उनकी हिस्सेदारी इस तरह तय कर दी गई है कि उनका मकसद अधिक से अधिक मुनाफा कमाने पर रहे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र हैं जो पूरी तरह तिजारत में तब्दील हो चुके हैं। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी शर्त यह होती है कि हर हाल मंे देश के लोगों को हर क्षेत्र में मजबूत बनाया जाये जिससे लोकतन्त्र मजबूत बन सके।
लोगों को बेचारगी में रखकर लोकतन्त्र कभी मजबूत नहीं हो सकता और उनमें मुल्क का मालिक होने का जज्बा पैदा नहीं हो सकता। इसी वजह से गांधी के ही चेले रहे समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि भारत में असली लोकतन्त्र उसी दिन आयेगा जिस दिन एक महारानी और एक मेहतरानी एक साथ बैठकर भोजन करेंगे और राष्ट्रपति का बेटा और एक चपरासी का पुत्र एक ही जैसे स्कूल मंे शिक्षा प्राप्त करके अपनी प्रतिभा का परिचय देंगे मगर हम तो आज इस उलझन में फंस रहे हैं कौन सी जाति को आरक्षण मिलेगा और कौन इससे बाहर रहेगी और यह सोच ही नहीं पा रहे हैं कि जब सारी अर्थव्यवस्था और शिक्षा व स्वास्थ्य प्रणाली ही निजी देशी-विदेशी कम्पनियों के हाथ में पहुंच चुकी है तो आरक्षण कहां मिलेगा? इस मामले में ग्रामीण रोजगार कानून ऐसा मील का पत्थर है जिसे इसी अर्थव्यवस्था के भीतर बनाकर लागू किया गया था।
क्योंकि इसे गरीब आदमी का संवैधानिक अधिकार बनाया गया था लेकिन इसके पीछे विचारधारा ही मुख्य थी। यह विचारधारा ही थी जिसने इस मुल्क में बड़े-बड़े सार्वजनिक कल-कारखाने खड़े किये और औद्योगीकरण को अपनाकर सामाजिक न्याय के उस रास्ते को अपनाया जिसकी वकालत बाबा साहेब अम्बेडकर ने की थी। अतः हम आज जिस दोराहे पर आकर खड़े हो गये हैं उससे निकलने का रास्ता सिर्फ विचारधारा मूलक राजनीति ही हो सकती है।