चुनावी वर्ष में जब कोई सरकार अगले वित्त वर्ष के आवश्यक खर्चों हेतु केवल कुछ महीनों के लिए भारत की संचय निधि से धन निकालने की व्यवस्था करती है तो उसे बजट कहना किसी भी तर्क पर खरा नहीं उतरता है, क्योंकि भारत की कोई भी सरकार केवल पांच वर्ष के लिए ही आम लोगों द्वारा चुनी जाती है और उसे इस अवधि के बाद का नीतिगत कामकाज लोगों द्वारा ही चुनकर आने वाली नई सरकार के लिए छोड़ना पड़ता है परन्तु संविधान के शाब्दिक अर्थ में लेखानुदान जैसी व्यवस्था नहीं है मगर इसी संविधान की रूह से यह ध्वनि भी निकलती है कि किसी भी सरकार का कार्यकाल केवल पांच साल तक ही होता है।
अतः संसदीय व्यवस्था की विश्वसनीयता और राजनैतिक नैतिकता के तकाजे के तहत स्वयं संसद ने ही यह प्रणाली विकसित की कि जाती हुई सरकार वित्तीय नीतियों के साथ किसी प्रकार की आधारभूत छेड़छाड़ किये बिना ही अपनी पुरानी नीतियों को आगे चलाकर ही कुछ महीनों के लिए धन की व्यवस्था करके जाये और उसमें नीतिगत व आधारभूत परिवर्तन की गुंजाइश नई चुनी जाने वाली सरकार के लिए छोड़ दे। अतः केवल लेखानुदान के लिए संसद का नया सत्र बुलाकर उसे बजट सत्र के रूप में प्रस्तुत करना संविधान के विशेषज्ञों के लिए पहेली खड़ी कर रहा है क्योंकि इस सत्र को राष्ट्रपति ने भी सम्बोधित किया है। प्रायः राष्ट्रपति वर्ष में केवल एक बार ही संसद के दोनों सत्रों की संयुक्त सभा को सम्बोधित करके अपनी सरकार की उपलब्धियों और लक्ष्य की घोषणा करते हैं।
सवाल यह है कि कुछ महीनों बाद जो भी नई सरकार चुनकर आयेगी वह भी राष्ट्रपति की अपनी ही सरकार होगी और नई लोकसभा गठित होने के बाद जब संसद के संयुक्त सत्र को सम्बोधित करेंगे तो पुनः अपनी ही सरकार के लक्ष्य व नीतियों के बारे में बतायेंगे। एक साल में ही राष्ट्रपति की अपनी सरकार के दो लक्ष्य व नीतियां किस प्रकार हो सकती हैं? यह पेचीदा सवाल है जिस पर संविधान के जानकार माथा-पच्ची कर रहे हैं। इसके साथ ही यह प्रश्न भी दीगर है कि संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति को क्या ऐसी सरकार की नीतियों के बारे में चुनावी वर्ष के दौरान किसी प्रकार की राय देनी चाहिए जिसका जनादेश केवल कुछ महीने बाद ही समाप्त हो जायेगा।
बेशक जब तक यह जनादेश है तब तक सत्ता पर काबिज राष्ट्रपति की ही अपनी सरकार है मगर नई सरकार बनने पर राष्ट्रपति किस प्रकार एक ही वर्ष में अपनी नई सरकार की नई नीतियों की पैरोकारी पुरानी सरकार की नीतियों को बरतरफ करके करेंगे? जाहिर है कि मौजूदा सरकार अगर चाहती तो राष्ट्रपति को इस उलझन का सामना ही नहीं करना पड़ता और वह लेखानुदान भी बिना किसी विवाद के पारित करा सकती थी। संसद का शीतकालीन सत्र चालू जनवरी महीने में ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हुआ था। इस सत्र का सत्रावसान कराये बिना लोकसभा अध्यक्ष इसकी बैठक पुनः किसी भी दिन आहूत कर सकते थे और सरकार इस दौरान लेखानुदान पारित करा सकती थी मगर सरकार ने राष्ट्रपति से ही शीतकालीन सत्र का सत्रावसान करा कर नया बजट सत्र बुला लिया। बेशक संविधान ऐसा करने से सरकार को नहीं रोकता है।
हालांकि सरकारें राजनैतिक दल ही बनाते हैं मगर इन राजनैतिक दलों की बनी सरकारों का रिपोर्ट कार्ड ही चुनावी मैदान में बहस का मुद्दा बनता है। केवल कुछ महीने की मेहमान कोई भी सरकार ऐसे वादे नहीं कर सकती जिन्हें पूरा करने के लिए वह सत्ता पर शर्तिया रहने के दावे से न बन्धी हो मगर हमने देखा है कि अक्सर सरकारें ऐसा काम करती रहती हैं और चुनावी वर्ष में एक से बढ़कर एक तोहफे देकर लोगों को रिझाने में मशगूल हो जाती हैं। मनमोहन सरकार ने भी भोजन के अधिकार से लेकर रेहड़ी-पटरी वालों के अधिकारों के कानून पर कानून पारित किये थे मगर उनका नतीजा क्या निकला? लोकतन्त्र में जितना महत्व ‘नीति’ का होता है उससे ज्यादा ‘नीयत’ का होता है। हमें समूची अर्थव्यवस्था की उस हकीकत का पता तो लगाना ही होगा जिसे रेटिंग एजेंसियां कभी आसमान पर तो कभी पेड़ पर बता देती हैं।
इन सब आर्थिक हवालों में भारत का आम आदमी कहां खड़ा हुआ है? जिस गांधी बाबा के शहीदी दिवस पर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ शहर में कुछ हिन्दू महासभा के सिरफिरे कारकुनों ने एक पुतले में खून की छैली भरकर उन पर सरेआम गोली चलाकर उनका पुनः कत्ल किया और नाथूराम गोडसे की प्रशंसा में नारे लगाये थे, उन्हीं गांधी बाबा ने स्वतन्त्र भारत में ऐलान किया था कि आजाद भारत की चुनी हुई सरकार का पहला काम अवाम के दिलों से सरकार का डर हटाना होगा क्योंकि भारत की सरकार को बनाने वाले वे ही होंगे और ऐसी सरकार का हर काम लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना होगा मगर क्या कयामत है कि अलीगढ़ में ही गांधी की हत्या का स्वांग रचकर वे ही लोग पुनः साम्प्रदायिक जहर को फिर से लोगों को पिलाना चाहते हैं जिनकी पार्टी हिन्दू महासभा ने 1936 में प. बंगाल में मुस्लिम लीग के गले में बांहें डालकर सरकार बनाई थी। नाथूराम गाेडसे केवल एक हत्यारा था और कुछ नहीं, फिर किस तरह कुछ लोग उसकी खुलेआम हिमायत करके भारत का सिर नीचा करने की जुर्रत कर सकते हैं।