आज का दिन मेरे और मेरे परिवार के लिए हमेशा ही भावुकता से भरा हुआ रहता है। आज का दिन हमारे लिए अपने पूर्वजों को श्रद्धासुमन अर्पित करने और उनके दिखाए गए मार्ग का अनुसरण करने का संकल्प लेने का भी होता है। 12 मई 1984 को नियति ने हमारे परिवार के साथ ऐसा कठोर फैसला किया जब आतंकवादियों ने मेरे दादा श्री रमेश चन्द्र जी को जालंधर में अपनी गोलियों का निशाना बना डाला। मेरी उम्र उस समय लगभग दो वर्ष की रही होगी। यानि मैं अपनी मां की गोद में ही था। यद्यपि मुझे उन परिस्थितियों का अनुभव नहीं जो उस समय परिवार के सामने आई लेकिन घर के वटवृक्ष के अचानक गिर जाने की पीड़ा मैंने अपने पिता श्री अश्विनी कुमार की आंखों में बार-बार देखी। मैं और मेरे अनुज अर्जुन और आकाश दादा जी के स्नेह से वंचित रहे। मैं कल्पना ही कर सकता हूं कि दादा जी ने मुझे अपनी गोद में उठाया होगा। मेरी नन्हीं उंगलियों को सहलाया होगा। इसकी कल्पना मात्र से ही मुझे दादा जी के स्पर्श का आभास होने लगता है। उनके बारे में जितना मैंने अपने पिता और मां से सुना और जितना मैंने उनके संपादकियों को पढ़ने के बाद महसूस किया कि वे केवल पत्रकारिता के भीष्म पितामह ही नहीं थे बल्कि एक बहुत बड़ी संस्था थे। जिन्होंने समाज को न केवल अपने लिए जूझने की प्ररेणा दी बल्कि साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता के लिए बलिदान दे दिया।
इतिहास के पन्ने बताते हैं कि दादा जी ने अपने पिता लाला जगत नारायण जी की प्रेरणा से अंग्रजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। देश की आजादी के लिए कई बार जेल यात्राएं की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने भी पत्रकारिता को अपना लक्ष्य बनाया। उनकी नियति में स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद उनका जीवन चुनौतियों और संघर्ष में ही बीता। यह तो सभी जानते हैं कि जो मनुष्य जन्म लेता है उसे एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही होता है। शहादत हर एक के नसीब में नहीं होती। यदि शहादत का कोई कारण हो तो शहादत उस विचार, उस उसूल, उस मर्यादा को जीवन दे जाती है। इसलिए रमेश चन्द्र जी की शहादत को लोग आज भी याद करते हैं। मेरे पिता अश्विनी कुमार कई बार भावुक होकर मुझे यह बताते थे कि दादाश्री कहते थे ‘‘सत्य के पथ पर चलने से पांव में कांटे चुभते ही हैं। अतः वीर वही है जो न तो सन्मार्ग छोड़े और न ही कभी मोहासिक्त हो। अमर कौन है -जो मृत्यु से परे हो। निस्संदेह जो अमर हो उसकी मृत्यु नहीं हो सकती।’’ वे अपनी कलम से आतंकवाद का कड़ा विरोध करते रहे।
पंजाब के काले दिनों में राज्य सीमापार के ‘‘मित्रों’’ की काली करतूतों के कारण धू-धू कर के जल रहा था। बसों और ट्रेनों में से एक ही समुदाय के लोगों को उतार कर पंक्ति में खड़ा कर के अंधाधुंध गोलियां बरसा कर हत्याएं की जा रही थी। बम धमाकों,गोलियों की आवाजों से पंजाब दहल उठा था लेकिन दादा जी अपनी कलम से आतंकवाद पर तीखे प्रहार कर रहे थे और उनका सारा जोर पंजाब में हिन्दू-सिख भाईचारे को कायम रखने के लिए था। वास्तव में हालात यही थे। वे जानते थे कि पंजाब में हिन्दुओं-सिखों का भाईचारा और रोटी-बेटी की सांझ जब खत्म हो गई तो उसी दिन देश का एक और विभाजन हो जाएगा। जान लेने की धमकियों से बेखौफ होकर उन्होंने सहादत का मार्ग चुना। मेरे परदादा लाला जगत नारायण जी की शहादत के बाद परिवार को यह दूसरा बड़ा आघात था। इस आघात को मेरे पिता अश्विनी कुमार ने बड़ी हिम्मत से झेला और उनकी कलम खुद संभाल ली। सादा जीवन, पक्षपात से दूर और क्रोध रहित भाव रखना बहुत कम लोगों के बस की बात होती है। जिन लोगों ने भी उनके साथ काम किया उनका अनुभव यही कहता है कि रमेश चन्द्र जी को स्वप्न में भी किसी का अहित और असत्य से नाता जोड़ना कतई पसंद नहीं था।
उन्होंने राजनीति को बहुत करीब से देखा और सत्ता की आलोचना से वे कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने प्रैस की स्वतंत्रता के लिए लम्बा संघर्ष किया और 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजैंसी का कड़ा विरोध किया। उन्होंने अपने जीवन में हमेशा जिज्ञासा को कायम रखा। शहादत से पहले उन्होंने मंदिर-मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों की यात्रा की। श्रद्धा और पूर्ण सम्मान भाव से उन्होंने साधु-संतों और महान गुरुओं के दर्शन किए। स्वर्ण मंदिर में जब कारसेवा हुई तो उन्होंने सरोवर में कार सेवा की। इसे इबादत ही कहा जाएगा। मैं आज भी सोचता हूं कि ऐसे व्यक्ति की हत्या क्यों की गई जिसका हृदय सर्वधर्म सद्भाव से भरा हुआ था। मेरी मां किरण चोपड़ा परिवार के संस्कारों के अनुरूप उन्हें स्मरण एवं नमन करती हैं और समाज की सेवा में व्यस्त हैं। उन्हीं की याद में ‘रमेश चन्द्र ट्रस्ट’ चला रही हैं और गत 20 वर्षों से वरिष्ठ नागरिकों की सेवा में लगी हुई हैं। श्री रमेश चन्द्र जी सत्य पथिक थे। उनके धर्म को यानि सत्य लिखने के धर्म को अब मैंने अपना लिया है। मैं इस कसौटी पर कितना खरा उतरा हूं, इसका फैसला पाठक ही कर सकते हैं।