सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने की मांग पर 6 दिन लगातार सुनवाई चली। देश की शीर्ष अदालत ने रोजाना इसकी लाइव स्ट्रीमिंग भी की। सुनवाई के दौरान बहुत से सवाल उठे। चीफ जस्टिस डी.आई. चन्द्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस. रवीन्द्र भट्ट, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस हिमा कोहली की आधारित पीठ ने यह साफ कर दिया है कि पर्सनल लॉ कानून में घुसे बगैर सेम सैक्स मैरिज को मान्यता देना मुश्किल है क्योंकि इसमें विरासत कानून, गोद लेने, भरण-पोषण देने और विरासत से जुड़े कानूनों का मसला आ जाता है लेकिन सेम सैक्स जोड़े को सामाजिक सुरक्षा और कल्याण के लिए मान्यता की जरूरत होगी। अदालत यह सुनिश्चित करेगी कि भविष्य में उनका बहिष्कार न हो। केन्द्र सरकार, देश के सेवानिवृत्त जज, बुद्धिजीवी और पूर्व अधिकारियों का एक बड़ा वर्ग समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का कड़ा विरोध कर रहा है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या भारतीय समाज समलैंगिक शादियों को स्वीकार करेगा। सुनवाई के दौरान यह सवाल भी उठा कि ऐसी शादियों में पति कौन होगा। संबंध टूटते हैं तो जीवन साथी को भरण-पोषण भत्ता कौन देगा। ढेर सारे सवालों के बीच यह मामला बहुत जटिल हो चुका है।
केन्द्र सरकार ने साफ कर दिया है कि समलैंगिक शािदयों को कानूनी मान्यता देना एक विधायी कार्य है, जिस पर अदालतों को फैसला करने से बचना चाहिए। विवाहाें को कानूनी मान्यता देने से पहले विधायिका को शहरी, ग्रामीण और अर्द्धग्रामीण सभी के विचारों को सुनना होगा। भारतीय संस्कृति में विवाह एक पवित्र संस्कार है जो सामाजिक व्यवस्था में यौन संबंधों को नियमित एवं नियंत्रित करते हुए सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ाते हैं। सभी धर्मों के समाजों ने अपनी मान्यताओं के आधार पर विवाह परिवार संस्था की स्थापना की। इसके लिए नियम व मर्यादाएं बनाईं और संस्कारित समाज के लिए विवाह व पिरवार संस्था को पोषित किया है। विवाह परिवार संस्था की अवधारणा स्वरूप कर्त्तव्य आदि सुनिश्चित होकर स्थापित हो चुके हैं और अब यह डीएनए का ही भाग हो गए हैं।
वर्ष 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि आपसी सहमति से दो व्यस्कों के बीच बनाए गए आपसी संबंधों को अपराध नहीं माना जाएगा। इसके बाद समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाली याचिकाएं हाईकोर्ट होती हुई सुप्रीम कोर्ट में आईं। अब इन पर सुनवाई पांच सदस्यीय पीठ कर रही है। समलैंगिकता काे भारत में कानूनी मान्यता देने के पक्षधर याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह दो व्यस्क व्यक्तियों का निजी चुनाव है, जो दूसरे किसी व्यक्ति के जीवन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता। साथ ही इसे आपराधिक कृत्य मानना व्यक्ति के जीवन में गैर जरूरी दखलंदाजी और नैतिक अतिवाद का सूचक है लेकिन अधिकांश भारतीय और धार्मिक संगठन समलैंगिक संबंधों को अप्राकृतिक मानते हैं। अगर दो महिला या दो पुरुष परस्पर संबंध बनाते हैं तो यह प्रकृति के विपरीत होगा। प्राकृतिक संरचना के अनुरूप शारीरिक संबंध का उद्देश्य महज कामवासना की पूर्ति या आनंद प्राप्ति के लिए नहीं है, अपितु यह सृष्टि की रचना का आधार है।
जहां तक नागरिक स्वतंत्रता का प्रश्न है यह किन्हीं दो व्यक्तियोंं के लिए निजी मामला हो सकता है, पर इसे समग्र रूप से समाज स्वीकार करेगा, इस पर संदेह है। समलैंगिकता से सृष्टिक्रम में अवरोध आने की सम्भावना है। भले ही कोई बच्चे को गोद ले ले या सोरोगेसी का माध्यम अपनाए फिर भी इस पर ‘अपनत्व’ की छाप पर अभाव देखने को मिलेगा। इसे शादी का रूप दे ही नहीं सकते, क्योंकि न केवल इंसान में बल्कि पशु-पक्षियों में भी विपरीत लिंग के बिना सृष्टि चलना असम्भव है। शादी के बिना भी दो बालिग नागरिक एक-दूसरे से संबंध बनाने को स्वतंत्र हैं। ऐसे में समलैंगिकता को शादी का दर्जा देने से सामाजिक व्यवस्था में गम्भीर परिणाम को आमंत्रित करने के समान है।
इस तरह के संवेदनशील मामले में सुप्रीम कोर्ट का कोई भी निर्णय आगे की पीढ़ियों के लिए नुक्सानदेह साबित हाे सकता है। न्यायपालिका को देश के लोगों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए और इस मुददे को संसद पर ही छोड़ देना चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे समाज की भौतिक संरचना, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाओं पर प्रभाव पड़ना तय हो तो ऐसे में इसका हल विधायी प्रक्रिया से ही निकलना चाहिए। समलैंगिकता भारतीय संस्कृति पर आक्रमण होगा। हमारे शास्त्रों में इसे अपराध माना गया है। समलैंगिक विवाह प्रकृति से सुसंगत एवं नैसर्गिक नहीं है। इसलिए इस विषय को सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्तर पर ही सम्भालने की जरूरत है।