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बैंकों के ​विलय में आम जनता?

सर्वप्रथम यह ध्यान में रखने की बात है कि भारत की अर्थव्यवस्था के विकास व आम नागरिकों के चौतरफा आर्थिक-सामाजिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है।

सरकार ने पिछले वर्ष देना बैंक और विजया बैंक का बैंक आफ बड़ौदा में विलय करके बेहतर परिणाम पाने की आशा में  इस बार दस बड़े सार्वजनिक बैंकों की पहचान चार बैंकों में सीमित करने का जो फैसला किया है उससे बैंकिंग क्षेत्र का कितना कायाकल्प होगा, इस बारे में पूर्ण विश्वास के साथ अभी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है क्योंकि कुल मिलाकर 27 सार्वजनिक क्षेत्रों की संख्या इस महाविलय के बाद केवल एक दर्जन अर्थात 12 रह जायेगी। सर्वप्रथम यह ध्यान में रखने की बात है कि भारत की अर्थव्यवस्था के विकास व आम नागरिकों के चौतरफा आर्थिक-सामाजिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है। 
विशेष रूप से 1969 में स्व. इन्दिरा गांधी द्वारा 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के बाद वास्तव में इस फैसले के बाद बैंकों की वित्तीय सक्रियता भारत के असंगठित व ग्रामीण आर्थिक क्षेत्र में बहुत तेजी के साथ बढ़ी और यह भ्रम टूटा कि बैंकों में जमा सम्पत्ति पर केवल उद्योगपतियों या पूंजीपतियों का ही अधिकार होता है। मध्यम व साधारण वर्ग के नागरिकों के लिए इस फैसले के बाद बैंकों के दरवाजे खुलते चले गये परन्तु कालान्तर में विशेष रूप से 1991 में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का दौर शुरू होने के बाद बैंकिंग क्षेत्र में भी प्रतियोगिता का माहौल पैदा हुआ और विदेशी बैंकों समेत निजी बैंकों ने वित्तीय बाजार में प्रवेश किया और उच्च मध्यम व मध्यम वर्ग के समाज के लोगों को अपनी तरफ खींचने में आंशिक सफलता प्राप्त की भी और बैंकिंग सेवाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तनों की शुरूआत की जिससे बैंकिंग व्यवसाय अधिकाधिक उपभोक्ता मूलक बना परन्तु इसका स्वरूप ‘जन मूलक’ नहीं बन पाया। 
बैंकों को जन मूलक चेहरा देने का काम बिना शक के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने किया और प्रत्येक गरीब व्यक्ति के बैंक खाते खुलवाकर इनके दरवाजे समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के लिए भी खोल डाले। वास्तव में बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में यह ऐसा समाजवादी कदम था जिसकी परिकल्पना कभी स्व. डा. राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे समाजवादी चिन्तक किया करते थे परन्तु दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि इसी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के वित्तीय व्यवसाय को नफे की जगह नुकसान की तरफ धकेलना शुरू किया जिसकी वजह इन बैंकों से लिये गये बड़े ऋणों की अदायगी बड़े उद्योगपतियों व व्यापारियों द्वारा न किये जाने से इनकी रकम बट्टेखाते में बढ़ती चली गई और एक बार स्थिति यहां तक आ गई कि इन बैंकों के पास पूंजी की कमी का खतरा बढ़ता चला गया।
बैंकों की आय का एकमात्र साधन दिये गये ऋण पर लिया जाना वाला ब्याज और लिये गये ऋण (सावधि जमा रकम आदि) पर दिये जाने वाले ब्याज का अन्तर ही लाभ होता है और उसी के बूते पर बैंक अपने खर्चे (कर्मचारियों का वेतन व रखरखाव आदि) पूरे करके अपने व्यवसाय को लाभप्रद बनाते हुए उसका विस्तार करते हैं और अपने पास पूंजी की सुलभता लगातार बनाये रखते हैं और देश के ओद्यौिगकरण व कृषि क्षेत्र के आधुनिकीकरण में मदद करते हैं परन्तु दिये गये ऋणों की वापसियों के बट्टे खाते में जाने की वजह से जो पूंजी की सुलभता इन बैंकों के पास कम हुई उससे रिजर्व बैंक समेत केन्द्र सरकार काे चिन्ता हुई और तब यह फैसला किया गया कि इन बैंकों की पूंजी उपलब्धता बढ़ाने के लिए सरकार 75 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की धनराशि इन्हें देगी जिससे इनमें फिर से मजबूती आ सके। 
इसी क्रम में इन बैंकों को भीतर से मजबूत बनाने के लिए आपसी विलय का फार्मूला निकाला गया जिससे कमजोर हो गये बैंकों की मानव शक्ति का उपयोग करते हुए अपेक्षाकृत मजबूत बैंक में उनका विलय करके एकल इकाई बैंक को खड़ा किया जा सके और रोकड़ा सुलभता की समस्या को सरल किया जा सके परन्तु हमें इस बारे में सबसे ज्यादा सचेत इस मोर्चे पर होना है कि सभी विलयित बैंकों की शाखाओं का जाल अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में फैला हुआ था और वे ग्रामीण क्षेत्रों समेत सामान्य वर्ग की वित्तीय सेवाओं में भी लगे हुए थे। अब इनके दस बैंकों से चार बैंकों में सीमित हो जाने पर इनकी शाखाएं भी विलय करने वाले चार प्रमुख बैंकों की शाखाओं में सिमट जायेंगी जिससे सामान्यजन ही सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे और वे कालान्तर में छोटी-छोटी गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों के पास जाने को मजबूर हो सकते हैं।
पंजाब नेशनल बैंक, केनरा बैंक, यूनियन बैंक आफ इंडिया व इंडियन बैंक में ओरियंटल  बैंक आफ कामर्स, युनाइटेड बैंक आफ इंडिया, सिंडीकेट बैंक, आन्ध्रा बैंक, कार्पोरेशन बैंक व इलाहाबाद बैंक का विलय हो जायेगा। अतः सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि बैंकों के जनमूलक चेहरे के तेवरों पर बुरा असर न पड़े। हालांकि पिछले वर्ष ही स्टेट बैंक आफ इंडिया में भी इसके सभी सहायक बैंकों का विलय हुआ था मगर केवल स्टेट बैंक की शाखाओं में ही सभी खाताधारकों का व्यापार आने से व्यावहारिक कामकाज की सुगमता में गुणात्मक कमी आयी है। बेशक विलय फार्मूला से बैंकों के खर्चे में थोड़ी कमी आयेगी परन्तु दीर्घकालीन लक्ष्य को देखते हुए यह बचत बहुत मामूली है। 
सबसे बड़ी बात यह है कि सार्वजनिक बैंकों की साख विभिन्न नकारात्मक घटनाओं के बावजूद आज भी आम जनता में बहुत ऊंची है और लोग इन बैंकों में रखी गई अपनी बचत को पूरी तरह सुरक्षित मानते हैं। अतः इस मामले में किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं हो सकता है। हालांकि घरेलू बचत की दर प्रतिवर्ष घट रही है परन्तु इसके बावजूद सामान्यजन का विश्वास सरकारी बैंकों में ही सर्वाधिक है। जाहिर है कि वित्त मन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमण के विचार में ये सभी पक्ष होंगे क्योंकि सरकार के पास एक से बड़ा एक वित्तीय विशेषज्ञ मौजूद है जो सरकारी नीतियों की समीक्षा करता है। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2008-09 में जब विश्व में मन्दी आयी थी और अमेरिका समेत यूरोपीय देशों के बड़े से बड़े बैंकों का दिवाला पिट रहा था तो भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक ही थे जिन्होंने भारत के लोगों में अपनी मजबूती का अहसास भर रखा था।

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