खेलों में मुक्केबाजी लम्बे समय से हिस्सा रही है और इसे दुनिया में सबसे लोकप्रिय खेलों में से एक माना गया है। भारत के इतिहास में भी मुक्केबाजी का एक अलग रूप पाया गया है। महाभारत सहित प्राचीन ग्रंथों में मुश्ति युद्ध नामक मुक्केबाजी की चर्चा हुई है। शौकिया मुक्केबाजी का इतिहास तो काफी पुराना है। भारत में शौकिया मुक्केबाजी का पहला उदाहरण 1925 में देखा गया जब बोम्बे प्रैसीडेंसी एमैच्योर बॉक्सिंग फैडरेशन का गठन किया गया था। बोम्बे (अब मुम्बई) पहला ऐसा शहर था जहां औपचारिक मुक्केबाजी मुकाबला आयोजित किया गया। भारत को आजादी मिलने के बाद 1949 में मुक्केबाजी फैडरेशन का गठन किया गया था। भारत में पहली बार राष्ट्रीय मुक्केबाजी चैम्पियनशिप 1950 में मुम्बई में ही आयोजित की गई थी। वैश्विक स्तर पर ओलिम्पिक, विश्व चैम्पियनशिप, एशियन गेम्स और राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय मुक्केबाज भाग लेते रहे हैं। कोई दौर था जब भारतीय महिलाओं के मुक्केबाजी में भाग लेने को कल्पना ही माना जाता था लेकिन आज भारतीय लड़कियां गोल्डन पंच लगाने को तैयार हैं।
भारतीय मुक्केबाज निखहत जरीन, लवलीना बोरगोहाई, नीतू और स्वीटी बूरा अपने-अपनेे भार वर्ग में आईबीए महिला विश्व मुक्केेबाजी चैम्पियनशिप में पहली बार फाइनल में पहुंची हैं और यह भारत के लिए गर्व का विषय है कि इनमें से नीतू गंघास व स्वीटी बूरा ने गोल्डन पंच मार दिया है। दो स्वर्ण पदक भारत की झोली में आने के बाद अब नजरें निखहत और लवलीना पर लगी हुई हैं। निखहत जरीन ने भले ही कम उम्र में बड़ी सफलता हािसल कर ली है लेकिन यहां तक पहुंचने के लिए उसे कड़ी ट्रेनिंग करने के साथ ही समाज का सामना भी करना पड़ा है। उस पर हिजाब पहनने का दबाव भी डाला गया। उसके शार्ट्स पहनने पर भी आपत्ति जताई गई। पुरुषों के साथ बाक्सिंग की प्रैक्टिस करने पर तरह-तरह के तंज सहने पड़े लेकिन निखहत और उसके परिवार ने कट्टरपंथी विचारधारा से लड़ते हुए आगे बढ़ना जारी रखा और निखहत की जीत ने सभी आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब दिया। निखहत की उड़ान रुढ़िवादी और कट्टरवादी सोच के खिलाफ रही है। आज वह महिलाओं के लिए एक आदर्श बन चुकी है। निखहत की तरह ही अन्य महिला मुक्केबाजों को भी कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा। लवलीना के पिता एक छोटे व्यापारी थे। उनकी इतनी आमदनी नहीं थी कि वह अपनी बेटी का मुक्केबाजी का खर्च उठा सकें लेकिन इरादों की पक्की लवलीना तमाम मुश्किलों के बावजूद मुकाम हासिल करने में कामयाब रही। नीतू गंघास की खूबी यह है कि वह अपने इरादे हमेशा बुलंद रखती है।
मुक्केबाज विजेन्द्र के 2008 के बीजिंग ओलिम्पिक में कांस्य पदक जीतने से प्रेरित होकर ही उसके पिता ने अपनी बेटी को विजेन्द्र के कोच से ही प्रशिक्षण दिलवाया। चोटिल हो जाने के बावजूद उसने अपनी इच्छाशक्ति के बल पर चोट से उभर कर रिंग में वापसी की। जहां तक स्वीटी बूरा का सवाल है उसको खेल परिवार की विरासत से ही मिला है। किसान पिता की इस बेटी ने पहले कबड्डी में हाथ आजमाया था, बाद में उसने मुक्केबाजी को अपनाया।
महिला विश्व मुक्केबाजी चैम्पियनशिप का एक रोचक पहलू यह है कि भारतीय मुक्केबाजी की पोस्टर गर्ल निखहत जरीन और नीतू इस समय देश का सम्मान बढ़ाने के लिए मुकाबला लड़ रही हैं जबकि अगले वर्ष 2024 के ओलिम्पिक के लिए दोनों आपस में मुकाबला करती नजर आएंगी। निखहत जरीन दूसरे विश्व कप में स्वर्ण पदक जीतने की तरफ बढ़कर भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की सफलतम महिला मुक्केबाज मैरीकॉम के पदचिन्हों पर चलती नजर आ रही हैं। मैरीकॉम ने इस चैम्पियनशिप में 6 गोल्ड मैडल समेत कुल 8 गोल्ड मैडल जीते हैं। मैरीकॉम पर जितना लिखा जाए उतना कम है। फाइनल में पहुंचने वाली चारों भारतीय महिला मुक्केबाज तकनीक और आक्रामकता से भरी पड़ी हैं और अपने-अपने प्रतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ रही हैं। सवाल केवल स्वर्ण पदक का नहीं है। फाइनल में पहुंचना ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। उम्मीद है कि निकहत और लवलीना अपने फाइनल मुकाबले जज्बे और जुनून के साथ लड़ेंगी और इतिहास रचते हुए भारत का सपना पूरा होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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