जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन

जम्मू-कश्मीर में और छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने का सीधा अर्थ है कि राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक भंग विधानसभा के नये चुनावों के लिए राज्य में उपयुक्त वातावरण बनाना चाहते हैं।

जम्मू-कश्मीर में और छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने का सीधा अर्थ है कि राज्यपाल श्री सत्यपाल मलिक भंग विधानसभा के नये चुनावों के लिए राज्य में उपयुक्त वातावरण बनाना चाहते हैं। विगत 20 जून 2018 को इस राज्य में राष्ट्रपति शासन तब लागू किया गया था जब तत्कालीन पीडीपी व भाजपा की सांझा महबूबा मुफ्ती सरकार गिर गई थी क्योंकि भाजपा ने इससे अपना समर्थन वापस ले लिया था। तब विधानसभा को स्थगन की स्थिति में रखा गया था मगर 20 नवम्बर 2018 को परिस्थिति में अचानक नाटकीय मोड़ तब आया था जब पूर्व मुख्यमन्त्री महबूबा मुफ्ती ने श्रीनगर स्थित राजभवन को एक फैक्स सन्देश भेजकर राज्यपाल को सूचित किया था कि वह अपनी पूर्व सरकार की दो प्रमुख विपक्षी पार्टियों कांग्रेस व नेशनल कान्फ्रेंस के साथ मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में हैं। 
दूसरी तरफ उनकी ही सरकार में रहे मन्त्री पीपुल्स कान्फ्रेंस पार्टी के नेता सज्जाद लोन ने भी दावा ठोक दिया था कि उनके साथ भाजपा के विधायकों का समर्थन होने के साथ ही अन्य दो दर्जन विधायकों का भी समर्थन है और वह राज्य में स्थिर सरकार दे सकते हैं। जम्मू-कश्मीर विधानसभा के इतिहास में यह पहला अवसर था जब सरकार गठित करने के लिए ऐसे परस्पर विरोधी दावे व्यावहारिक राजनैतिक विरोध और दोस्ती को ताक पर रखकर किये जा रहे थे। राज्यपाल के लिए निश्चित रूप से यह परीक्षा की घड़ी थी। बेशक राज्यपाल को केवल सदन में बहुमत की संख्या का दावा करने वाले नेता का चुनाव करना होता है मगर उनकी एक दूसरी संवैधानिक जिम्मेदारी सरकार की स्थिरता की भी होती है। 
जिस प्रकार सज्जाद लोन ने महबूबा की पार्टी पीडीपी के ही कुछ विधायकों का समर्थन प्राप्त होने का दावा ठोका था उससे यही तय होता था कि राज्य में जो भी सरकार बनेगी वह बाहर या भीतर से राजनैतिक सौदेबाजी के तहत ही बनेगी और उसकी स्थिरता की कोई गारंटी नहीं होगी। दूसरे यह तथ्य भी था कि जब नवम्बर 2018 में राज्यपाल महोदय ने यह जायजा ले लिया था कि विधानसभा की चालू संरचना के तहत किसी वैकल्पिक सरकार का बनना संभव नहीं है और वह गृह मन्त्रालय से विधानसभा भंग करके नये चुनावों की तैयारी करने की पृष्ठभूमि तैयार कर चुके थे तो इसकी भनक मिलते ही राज्य के तीन वे प्रमुख दल एक साथ खड़े हो गये थे जिनकी राजनीति ही एक-दूसरे को पटकी मारकर चलती है। 
यह अवसरवादिता की परम पराकाष्ठा ही थी क्योंकि तीन दलों के इस गठबन्धन का कोई भी वैधानिक खाका नहीं खींचा गया था और राज्यपाल के विधानसभा को भंग करने के फैसले का गुमान लगाकर महबूबा मुफ्ती ने एक फैक्स सन्देश से सरकार गठित करने का दावा पेश कर दिया था। इसके जवाब में सज्जाद लोन ने टेढ़ी चाल चलकर मामले को और उलझा दिया था। ऐसी स्थिति में श्री सत्यपाल मलिक ने विधानसभा भंग करने की राष्ट्रपति से अनुशंसा कर दी थी मगर जब विगत मई महीने में पूरे देश में लोकसभा चुनाव हुए तो चुनाव आयोग ने राज्य विधानसभा चुनाव कराना मुमकिन नहीं पाया। 
इसे लेकर भी तब सवाल खड़े किये गये जबकि इससे पहले राज्य में स्थानीय निकायों के चुनाव हो चुके थे हालांकि इनमें मतदान प्रतिशत नामभर का ही था परन्तु लोकसभा चुनावों में मतदान प्रतिशत सम्मानजनक कहा जा सकता है। लोकसभा चुनावों से पूर्व हुई पुलवामा की आतंकवादी घटना ने भी मतदान प्रतिशतता को अधिक नहीं होने दिया। तर्क दिया जा सकता है कि इनके साथ ही विधानसभा चुनाव क्यों नहीं कराये गये। सुरक्षा की दृष्टि से चुनाव आयोग ने इसे व्यावहारिक नहीं पाया क्योंकि विधायकी के लिए खड़े होने वाले सैकड़ों प्रत्याशियों की सुरक्षा के साथ ही उन कश्मीरी मतदाताओं का सवाल भी खड़ा होता जो 1947 में बंटवारे के समय प. पाकिस्तान से इस राज्य में शरणार्थी के रूप में आये थे और आज तक कश्मीरी नागरिक का दर्जा उन्हें नहीं मिल पाया है बेशक उन्हें भारत के नागरिक का दर्जा इस प्रकार मिल चुका है कि वे लोकसभा चुनावों में भाग ले सकते हैं मगर विधानसभा चुनावों में मत नहीं डाल सकते। 
चुनाव आयोग को लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ कराने से वह व्यावहारिक कठिनाई सामने आती जिसका अन्दाजा किसी अन्य राज्य का भारतीय नागरिक नहीं लगा सकता है। लाखों की संख्या में ऐसे नागरिकों के होने की वजह से मतदान केन्द्रों का गठन किस प्रकार किया जाता और मतदान केन्द्र के भीतर जाने के बाद दो-दो मतदाता सूचियों के अनुसार मत देने की व्यवस्था किस प्रकार होती, यह बहुत टेढ़ा और व्यावहारिक प्रश्न था। यह स्थिति नागरिकों के बीच ही एक मतदान केन्द्र पर नई समस्या को जन्म दे सकती थी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है जिसकी विधानसभा का कार्यकाल पांच नहीं बल्कि छह वर्ष के लिए होता है। जम्मू-कश्मीर के संविधान के तहत यह प्रणाली भारतीय संविधान में समाहित है। 
अतः बुनियादी तौर पर ही यह व्यवस्था की गई है कि लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ न हों। इनका सिरा अनुच्छेद 35 (ए) और 370 से जाकर जुड़ता है जिनके तहत कश्मीरी नागरिक की व्याख्या और राज्य का दर्जा तय होता है। अतः लोकसभा और विधानसभा के चुनाव राज्य में एक साथ कराने का खतरा चुनाव आयोग मोल नहीं ले सकता। नवम्बर 2018 में परिस्थितियोंवश ऐसा मंजर बन गया कि लोकसभा चुनावों से पहले ही विधानसभा भंग हो गई। अतः अब जो हालात इस राज्य के हैं उनके तहत अकेले विधानसभा के चुनाव ही होंगे और बहुत संभव है कि ये अमरनाथ यात्रा के समाप्त होने के बाद हों। 
फिलहाल इस यात्रा से पहले अनन्तनाग में आतंकवादियों ने पांच सुरक्षा कर्मियों को शहीद करके जो नजारा पेश किया है उससे इस यात्रा को पुख्ता सुरक्षा मुहैया कराकर अंजाम तक पहुंचाना सरकार की पहली जिम्मेदारी है। अतः जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव आयोग को अब इसी नजरिये से काम करना होगा और राज्य के नागरिकों को उनकी चुनी हुई सरकार जल्द से जल्द देनी होगी मगर पूरे सुरक्षात्मक माहौल में।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

11 − two =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।