कश्मीर में ‘जमीनी’ लोकतंत्र - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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कश्मीर में ‘जमीनी’ लोकतंत्र

1989 में पंचायती राज कानून बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से आधारभूत विकास प्रणाली से साधारण नागरिकों को बाहर रखा गया उसका खात्मा इन चुनावों के साथ हो जायेगा।

जम्मू-कश्मीर में आगामी 24 अक्तूबर को ब्लाक विकास परिषद के चुनावों की घोषणा चुनाव आयोग ने कर दी है। इसका सीधा मतलब है कि 31 अक्तूबर से राज्य का दर्जा बदल जाने का प्रभाव वर्तमान जम्मू-कश्मीर के किसी जिले के विकास कार्यों पर नहीं पड़ेगा। 1989 में पंचायती राज कानून बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में जिस तरह से आधारभूत विकास प्रणाली से साधारण नागरिकों को बाहर रखा गया उसका खात्मा इन चुनावों के साथ हो जायेगा। ब्लाक विकास परिषद के चुनाव में केवल गांवों में चुने हुए पंच और सरपंच ही हिस्सा लेते हैं। 
वे अपने-अपने ब्लाक के चेयरमैन का चुनाव करते हैं जिसके बाद ‘जिला विकास बोर्ड’ का गठन होगा और इसमें चुने गये चेयरमैन के अलावा सम्बन्धित क्षेत्र के विधायक व सांसद सदस्य रूप में होंगे। विकास बोर्ड राज्य सरकार द्वारा आवंटित धन का सीधा इस्तेमाल करने में सक्षम होगा जिसमें प्रत्येक गांव की हिस्सेदारी होगी। विकास का यह पंचायती ‘माडल’ हमारे लोकतन्त्र की ऐसी अनूठी मिसाल बनने की क्षमता रखता है जिसमें गांवों की जरूरतों के मुताबिक उनकी विकास योजनाओं को लागू किया जा सकता है लेकिन विकास परिषदों का चुनाव ‘पार्टीगत’ आधार पर होता है जिसमें प्रत्येक राजनीतिक दल को ब्लाक परिषद के चेयरमैन पद के लिए अपना प्रत्याशी खड़ा करने की छूट होती है। 
अतः सवाल खड़ा किया जा रहा है कि जब राज्य के प्रमुख राजनीतिक दलों जैसे नेशनल कान्फ्रेंस व पीडीपी आदि के प्रमुख नेता नजरबन्द हैं तो इन चुनावों की हैसियत क्या होगी ? यह तर्क बेमानी इसलिए है क्योंकि पूरे राज्य के मतदाता मंडल (इलैक्टाेरल कालेज)  केवल 13 हजार 629 पंचों व तीन हजार 652 सरपंचों का होगा। इस प्रकार कुल तीस हजार के लगभग मतदाता हैं जिनका चुनाव पिछले वर्ष अक्तूबर 2018 में हुए पंचायत चुनावों में हुआ था। चुने गये पंचों व सरपंचों की अपनी-अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताएं थीं अतः ब्लाक परिषद के चेयरमैन का चुनाव भी ये सभी पंच व सरपंच इन्हीं दलगत प्रतिबद्धताओं के तहत करेंगे। 
हालांकि राज्य सरकार के रिकार्ड के अनुसार पंच व सरपंचों के क्रमशः 61 प्रतिशत और 41 प्रतिशत पद खाली पड़े हुए हैं मगर जो लोग भी मतदान में भाग लेंगे वे पंचायती राज के कानून और नियमों के अनुसार अनुसूचित जाति, जनजाति व महिलाओं के लिए आरक्षित पदों पर इन्हीं वर्गों के चेयरमैनों का चुनाव करेंगे जो कि जम्मू-कशमीर के लिए शुभ शुरूआत होगी। दीगर सवाल यह है कि सरकार इन चुनावों को कराना जरूरी क्यों समझ रही है? इसकी मुख्य वजह यह लगती है कि अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के फैसले के बाद कुछ राजनैतिक तत्वों ने जिस प्रकार राज्य की आम जनता को बरगलाने और भ्रम में रखने की मु​िहम छेड़ी हुई है उसका पर्दाफाश ये चुनाव कर डालेंगे। 
राज्य के विकास के लिए पिछले सत्तर सालों में जो धनराशि केन्द्र सरकार भेजती थी उसका उपयोग किस प्रकार होता था इसके बारे में कोई पारदर्शिता नहीं थी, क्योंकि 370 ने राज्य में भ्रष्टाचार निरोधी कानून को लागू होने से रोक रखा था। सत्ता पर अपना हक समझने वाले कुछ राजनीतिज्ञों ने विकास कार्यों को ही व्यापार में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। विकास बोर्डाें के गठन के बाद राज्य के नागरिक ग्रामीण स्तर तक स्वयं देख सकेंगे कि उनके क्षेत्रों में विकास किस रूप से होता है और राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने तीन अगस्त को जो सैकड़ों करोड़ रुपये इसके लिए आवंटित किये हैं वह जमीन को किस तरह बदलने का काम करते हैं। 
पिछले दिनों ही जम्मू-कश्मीर के पंचों ने दिल्ली आकर गृहमन्त्री श्री अमित शाह से भेंट की थी और अपनी वरीयताएं बताई थीं। अतः यह शीशे की तरह साफ है कि 370 के नाम पर सक्रिय क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने कश्मीरियों की भावनाओं को भड़का कर उन्हें विकास की जगह मुफलिसी ही बांटी जिसकी वजह से आम कश्मीरी विकास की वे सीढि़यां नहीं चढ़ पाया जो उसके हिस्से में उसके राज्य की विशेषता और विशिष्टता ने रखी थी। राज्य में अलगाववादी ताकतों के साथ जिस प्रकार का गठजोड़ कुछ  राजनीतिक तत्वों ने किया हुआ था उसी की वजह से पिछले तीस साल में 40 हजार से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी जिनमें पांच हजार से अधिक सुरक्षा बलों के सैनिक हैं। 
आखिरकार इन सैनिकों का क्या दोष था? वे तो केवल अपने देश को आतंकवादियों और अलगाववादियों से सुरक्षित रखने का काम ही कर रहे थे किन्तु राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्र में खुद को खुदाई खिदमतगार बताने वाले लोग 22 हजार से अधिक हलाक हुए जो आतंकवादियों के मानवाधिकारों की ही बात कर रहे थे? मातृभूमि पर प्राणों को न्यौछावर करने वाले अमर शहीदों के प्रति क्या ‘राजनीति’ का कोई दायित्व नहीं होता है। राजनीति कभी भी देश से ऊपर नहीं हो सकती और देश देशवासियों से मिलकर बनता है जिनके अधिकारों के संरक्षण की जिम्मेदारी लोकतन्त्र में चुनी हुई सरकार की होती है और सरकार का पहला काम आम नागरिक को चौतरफा अधिकार सम्पन्न बनाने का होता है जिसमें आर्थिक सम्पन्नता केन्द्र में होती है क्योंकि ऐसा होने से ही कोई भी समाज स्वयं को प्रगति की राह पर डालने में सक्षम हो सकता है। 
अतः जमीनी विकास ही समाज की प्रगति का सूचकांक होता है इसलिए जो राजनीति गरीब को गरीब बनाये रखने के उपचार को साध कर चलती है वह भ्रष्टाचार की सहगामिनी होती है और समाज को जड़ता में रखना उसकी रणनीति होती है जिससे यथास्थितिवाद को सम्मान मिल सके। कश्मीर में अभी तक यही होता रहा है जिससे यहां के लोगों के लिए विकास की रोशनी ख्वाब ही बनी रही मगर जड़ता कभी स्थायी नहीं हो सकती और परिवर्तन कभी रुक नहीं सकता इसलिए समस्त कश्मीरवासियों के लिए प्रत्येक भारतवासी को उनके हिस्से की रोशनी पहुंचाने का काम करना चाहिए।

क्या फर्ज है कि सबको मिले एक सा जवाब
आओ न ‘हम’ भी सैर करें ‘कोह-ए-तूर’ की 
गालिब गर इस सफर में मुझे साथ ले चलो 
‘हज’ का सबाब ‘नज्र’ करूंगा ‘हुजूर’ की

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