मध्य पूर्व पहले से ही काफी अस्थिर था, लेकिन सऊदी अरब की सरकारी तेल कम्पनी अरामको के दो बड़े ठिकानों पर ड्रोन हमलों ने इस अस्थिरता को और बढ़ा दिया है। इन हमलों के चलते सऊदी अरब ने तेल उत्पादन घटा दिया है। हर दिन 50 लाख बैरल की कमी आएगी। कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने लगी हैं जिससे भारत भी प्रभावित होगा। इन हमलों के लिए अमरीका ईरान को जिम्मेदार ठहरा रहा है। उधर ईरान ने भी यह कह दिया है कि वह युद्ध के लिए तैयार है। एक तरफ अमरीका और ईरान उलझे हुए हैं तो दूसरी तरफ सऊदी अरब यमन में घिरता जा रहा हैै।
यद्यपि यमन में ईरान से जुड़े हूती ग्रुप ने तेल ठिकानों पर ड्रोन हमलों की जिम्मेदारी ली है और दावा किया है कि इस हमले में सऊदी शासन के भीतर के प्रतिष्ठित लोगों ने मदद की है। पिछले महीने शयबार प्राकृतिक गैस की साइट पर भी हमला हुआ था और इसके लिए हूती विद्रोहियों को जिम्मेदार ठहराया गया था। हूती विद्राेहियों को ईरान से मदद मिलती है और हूती विद्रोही यमन की सरकार और सऊदी अरब के नेतृत्व वाले सैन्य बलाें से लड़ रहे हैं। यमन में 2015 से जंग छिड़ी हुई है।
तब यमन के तत्कालीन राष्ट्रपति अबदराब्बुह मंसूर हादी को हूती विद्रोहियों ने राजधानी से भागने को मजबूर कर दिया था। सऊदी अरब हादी का समर्थन कर रहा है। सऊदी अरब के नेतृत्व वाला सैन्य गठबन्धन यमन में हूती विद्रोहियों के खिलाफ हवाई हमले करता है तो हूती विद्रोही भी सऊदी में मिसाइलें दागते रहते हैं। जिस तेल कम्पनी के ठिकानों पर ड्रोन हमले किए गए हैं, उसकी स्थापना अमरीकी तेल कम्पनी ने की थी। अरामको यानी अरबी अमरीकन आयल कम्पनी, इसका राष्ट्रीयकरण 70 के दशक में किया गया था। यह कम्पनी सऊदी के शाही परिवार के लिए बहुत मायने रखती है।
ईरान और अमरीका के रिश्तों में तनाव बढ़ता जा रहा है, वहीं मध्यपूर्व में सऊदी अरब अमरीका का करीबी सहयोगी है। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ईरान से किया गया समझौता तोड़ देने के बाद से ही उसने ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए हुए हैं। सऊदी अरब को भी इस क्षेत्र में ईरान का दबदबा कभी रास नहीं आया। ईरान का प्रभाव सीरिया, इराक, लेबनान में नजर आता है, अगर यमन भी ईरान के प्रभाव में आ जाता है तो स्थितियां काफी बदल जाएंगी। यह क्षेत्र इतना महत्वपूर्ण है कि इराक, ईरान, सीरिया, लेबनान और यमन तेल से भरे पड़े हैं। इन देशों से बड़े देशों के हित जुड़े हुए हैं। सऊदी अरब को इन देशों से कहीं न कहीं खतरा महसूस होता है। उसकी नजरें यमन के तेल और गैस भण्डारों पर भी है। सऊदी अरब यमन पर अपना दबदबा कायम करना चाहता है।
यमन में अमरीका की भी दिलचस्पी है। अमरीका हमेशा अपने हित देखता है, उसकी नजरें हमेशा दूसरे देशों के तेल कुओं पर रहती हैं। यमन के संघर्ष में अब तक दस हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। यमन की पूरी आबादी कराह रही है और अमरीका अपनी चालें चल रहा है। सऊदी अरब यमन में लड़ाई को लेकर दलदल में फंस चुका है। अगर हूती विद्रोहियों ने सऊदी अरब के हवाई अड्डों और दूसरे ठिकानों पर बमबारी कर दी तो पूरा कबाड़ा हो जाएगा।
इन परिस्थितियों के बीच अमरीका ईरान को निशाना बना रहा है। उसका कहना है कि सऊदी अरब के तेल ठिकानों को ईरान ने निशाना बनाया है। यद्यपि ईरान ने इन आरोपों को नकार दिया है। मध्य-पूर्व पर नजर रखने वालों में से कुछ विशेषज्ञ मान रहे हैं कि अमरीका ईरान के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान छेड़े हुए है जैसा कि उसने इराक के खिलाफ छेड़ रखा था। इराक में सद्दाम हुसैन का तख्ता पलट दिए जाने के बाद वहां कोई रासायनिक हथियार बरामद नहीं हुए थे।
यह भी सच है कि जो हथियार यमन के पूर्व राष्ट्रपति सालेह ने रूस और चीन से खरीदे थे, वे हूती विद्रोहियों के हाथों के पहुंच गए हैं। स्थितियां काफी नाज़ुक हैं। अगर युद्ध अनियंत्रित होता है तो खाड़ी में इतना बड़ा संकट पैदा हो जाएगा जिससे निपटना आसान नहीं होगा। जंग शुरू करना आसान है लेकिन खत्म करना मुश्किल होता है। वैश्विक शक्तियों को यमन में संघर्ष विराम के प्रयास करने चाहिएं और सऊदी अरब को यमन से बाहर आ जाना चाहिए। अगर यह सब जल्दी नहीं किया गया तो इस जंग का नतीजा पूरी दुनिया भुगतेगी।