संशोधित नागरिक कानून के मुद्दे पर जो लोग भारतीय नागरिकों को हिन्दू-मुसलमान के बीच बांट कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते हैं वे इस कदर नादान हैं कि हिन्दोस्तान की उस रूहानी ताकत को भी नकारने की गलती करते हैं जो हर हिन्दू में एक मुसलमान को बसाये रहती है और हर मुसलमान में एक हिन्दू को नुमाया रखती है। बेशक 1947 में मुहम्मद अली जिन्ना ने पूरी कौम को बहका कर नया मुल्क पाकिस्तान सिर्फ मजहब की बुनियाद पर ही तामीर करा लिया था मगर वह इन दोनों मुल्कों की उस सांझा विरासत को नहीं बांट पाया जो दोनों ही तरफ बिखरी पड़ी है और जिसकी हिफाजत करने के लिए दोनों ही मुल्कों की सरकारें पूरी तरह बाजाब्ता तौर पर पाबन्द हैं,
चाहे वह कराची शहर के बीच में स्थित ‘स्वामी नारायण मन्दिर’ हो या बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज देवी का मन्दिर हो अथवा सिन्ध के इलाके में प्राचीन जैन मन्दिर हो, पाकिस्तान की इस्लामी सरकारें इन धार्मिक स्थलों की हिफाजत करने की जिम्मेदारी से पाबन्द हैं और इसी की तासीर से अपने देश में रहने वाले हिन्दुओं व अन्य अल्पसंख्यकों की सुरक्षा से बन्धी हुई हैं, ठीक इसी तरह भारत में भी जो इस्लामी धार्मिक स्थल हैं उनकी सुरक्षा बाजाब्ता तौर पर एलानिया तरीके से हिन्द की हुकूमत करती है जिसका मुजाहिरा यहां रहने वाले मुसलमान नागरिकों के बेफिक्र अन्दाज से होता है, उनके फिक्र वही हैं जो दूसरे हिन्दू नागरिकों के हैं यानि कि रोजी-रोटी से लेकर बेहतर जिन्दगी जीने की तमन्ना के, भारत का संविधान उन्हें अपने मजहब और रवायतों की तरफ से बेफिक्री बख्शता है और यकीन दिलाता है कि उनके दीन की इज्जत भी हुकूमत उसी तरह करेगी जिस तरह हिन्दुओं या अन्य किसी फिरके की।
यही वजह है कि हिन्दोस्तान अकेला ऐसा मुल्क है जहां इस्लाम धर्म के 70 से ज्यादा फिरके के लोग आराम से अपनी जिन्दगी गुजर करते हैं जबकि पाकिस्तान में कुछ मुस्लिम फिरकों को ही फिक्रमन्दी में जिन्दगी गुजारनी पड़ती है। इनमें शिया से लेकर आगाखानी, वोहरा और अहमदिया तक शामिल हैं इसलिए यह बेवजह नहीं है कि जिन्ना के नवासों के लिए हिन्दोस्तान ही मुफीद मुल्क बना रहा और उन्होंने इसी मुल्क को अपना मुल्क माना। क्या पाकिस्तान के बे-ईमान होने के लिए एक यही नजीर काफी नहीं है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि पाकिस्तान को अपने हिन्दू या गैर मुस्लिम नागरिकों पर जुल्म ढहाने का लाइसेंस दे दिया जाये और भारत के खिलाफ दुश्मनी का जज्बा कायम रखने की गरज से ‘हिन्दू विरोध’ को वहां का ‘कौमी कलमा’ करार दे दिया जाये।
पाकिस्तान की अवाम ने अपने हुक्मरानों की इस नीति का शुरू से ही विरोध किया है जिसका सबूत यह है कि पाकिस्तान बनने के बाद इस देश की लोकप्रिय राजनैतिक पार्टियों में से रिपब्लिकन पार्टी भी एक पार्टी थी जिसे पसमान्दा (दबे, कुचले व गरीब) लोगों की पार्टी माना जाता था। जाहिर है कि पाकिस्तान बनने के बाद वहां मुस्लिम लीग के मुकाबले ऐसी पार्टी की भी सियासत में पैठ बनी थी जिसके उसूल आर्थिक आधार पर गैर बराबरी खत्म करने के लिए थे और जो मजहबी मामलात को दूसरे पायदान पर रखती थी। यह जज्बा आज के पाकिस्तान के लोगों में भी इस तरह कायम रहा है कि वे लाहौर में उस चौराहे का नाम ‘भगत सिंह चौक’ रखना चाहते हैं जहां शहीदे आजम ने मुल्क पर मरने की कसमें खाई थीं।
यह सोच कर देखिये कि भारत के जम्मू इलाके के सुचेत गढ़ से स्यालकोट की दूरी जब केवल 11 कि.मी. हो तो भला दोनों तरफ के लोगों की संस्कृति में क्या फर्क हो सकता है। पहनावे से लेकर भाषा एक समान होने और मौसम के मिजाज का एक जैसा असर होने के बावजूद दोनों जगह के लोग दो मुल्कों में तकसीम कर दिये गये और पाकिस्तान की तरफ के लोगों से यदि यह कहा जाये कि तुम पहले मुसलमान हो बाद में इंसान तो अल्लाह की कायनात का क्या हश्र होगा जिसका कानून है कि ‘जब तक तुम्हारा पड़ोसी भूखा है तब तक तुम्हारा पेट भरना हराम है।’ हर हिन्दू-मुसलमान सबसे पहले इंसान होता है। पाकिस्तान इस खुदाई कानून की मुखालफत पूरी बेगैरती से करता रहता है और सजा भी भुगतता रहता है।
1971 में उसने पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) के लोगों को मुसलमान होते हुए भी उन्हें इंसान मानने से इन्कार कर दिया था और उन पर बेइंतेहा जुल्म ढहाये थे। नतीजा बांग्लादेश का उदय हुआ, जिसमें मजहब का तास्सुबी खमीर कोई उबाल पैदा नहीं कर सका और न ही यह यह आगे संभव है क्योंकि बांग्लादेश का इमान महान बांग्ला संस्कृति है लेकिन अफसोस है कि भारत में असीदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ नेता मुस्लिम नागरिकों को लगातार गुमराह करके अपनी सियासी दुकानें चलाना चाहते हैं। ऐसा ही काम उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने भी एक वक्त तक किया था।
मुसलमान धोखे में इसलिए आ गये क्योंकि मुलायम सिंह एक हिन्दू नेता हैं। भारत के मुसलमानों का आजादी के बाद से ही पुख्ता यकीन रहा है कि उनकी रहनुमाई जब कोई हिन्दू नेता करता है तो वह इंसानियत की तौफीक से लबरेज होता है और सभी मजहब के लोगों को तराजू पर एक समान रख कर तोलता है। इससे पहले उत्तर प्रदेश के मुस्लिम नागरिकों में स्व. चरण सिंह से लेकर स्व. हेमवती नन्दन बहुगुणा तक मकबूलियत हासिल कर चुके थे मगर इस बार उनसे चूक हो गई और वे हिन्दू-मुसलमान की नफरत भरी सियासत के फेर में पड़ गये जिसका मकसद सिर्फ हुकूमत में फिरकापरस्ती को बाजाब्ता तौर पर दाखिल करना था। सियासत के इस अंदाज को और ज्यादा तेज नाखून बख्शने का काम ओवैसी साहब कर रहे हैं और जवाब में कुछ हिन्दू नेता भी उनकी सियासत को धार बख्शने का काम कर रहे हैं।
यह भारत के मिजाज के खिलाफ है, पाकिस्तान और भारत में सबसे बड़ा फर्क यही है, भारत तो वह मुल्क है जहां एक जमाने में रिपब्लिकन पार्टी के नेता रहे स्व. बुद्धिप्रिय मौर्य ने यह कसम खाई थी कि वह स्वयं अनुसूचित जाति के होने के बावजूद कभी भी सुरक्षित सीट से चुनाव नहीं लड़ेंगे और सामान्य सीट से चुन कर ही लोकसभा में जायेंगे। जीवन भर उन्होंने अपना अहद निभाया और लोकसभा में भी पहुंचे। यह है वह हिन्दोस्तान की राजनीति जिसकी तरफ शायद रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह ने ध्यान दिलाने की कोशिश की है। इसलिए ओवैसी साहब हों या और कोई अन्य हिन्दू नेता सबसे पहले हिन्दोस्तान की तासीर समझे।
जनसभाओं में पाकिस्तान जिन्दाबाद अथवा शाहीन बाग में जिन्ना वाली आजादी के नारे लगाने से हिन्दू और मुसलमानों के बीच वोटों का बंटवारा करके सियासत नहीं हो सकती बल्कि यह लोगों के मुद्दों पर ही होगी। ओवैसी की पार्टी के वारिस पठान अगर यह कहने की हिमाकत करते हैं कि 15 करोड़ मुसलमान 100 करोड़ हिन्दुओं पर भारी पड़ेंगे तो वे न तो मुसलमान हैं और न हिन्दोस्तानी, उन्हें सिर्फ गद्दार ही कहा जा सकता है उनकी गिरफ्तारी वाजिब होगी और संवैधानिक होगी। ओवैसी में अगर गैरत है तो पठान को वह अपनी पार्टी से बाहर करें और चुनाव आयोग को भी उनके बयान का संज्ञान लेते हुए उनकी चुनावी हैसियत की समीक्षा करनी चाहिए।