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हिन्द का ‘राकेट’ नीरज चोपड़ा

भाला फेंक ओलिम्पिक स्पर्धा में हरियाणा के नीरज चोपड़ा ने भारत को स्वर्ण पदक दिला कर सदी का वह कीर्तिमान स्थापित कर दिया है जिससे देश की आने वाली पीढि़यां प्रेरणा लेकर क्रीड़ा जगत में विश्व स्तर पर अपना स्थान बनाने के प्रयास करती रहेंगी।

भाला फेंक ओलिम्पिक स्पर्धा में हरियाणा के नीरज चोपड़ा ने भारत को स्वर्ण पदक दिला कर सदी का वह कीर्तिमान स्थापित कर दिया है जिससे देश की आने वाली पीढि़यां प्रेरणा लेकर क्रीड़ा जगत में विश्व स्तर पर अपना स्थान बनाने के प्रयास करती रहेंगी। एक किसान के बेटे नीरज चोपड़ा ने भारत की धरती की वह तासीर नमूदार कर दी है कि किस तरह इसकी मिट्टी में खेल कर बड़े हुए लोग जब अपनी मेहनत और लगन में लथ-पथ होकर कुछ पाने की ठान लेते हैं तो ‘सितारे जमीं पर’ ले आते हैं। वास्तव में पिछले एक सौ साल से भी ज्यादा से ओलिम्पिक खेलों की ‘ट्रैक एंड फील्ड’ स्पर्धाओं में कोई पदक लाना भारत के लिए सितारे जमीन पर लाने जैसा ही बना हुआ था । इस सपने को हरियाणा के पानीपत से 22 कि.मी. दूर बसे एक गांव ‘खन्दरा’ के  23 वर्षीय युवक ने न केवल पूरा कर दिखाया बल्कि सर्वश्रेष्ठ स्थान भी पाया।  भाला फेंक में नीरज ने अपने तकनीकी कौशल का इस्तेमाल करते हुए दुनिया के सभी अन्य देशों के प्रतियोगियों को पीछे छोड़ते हुए अपने भाले को ‘राकेट’ की भांति छोड़ा और वह अचम्भा कर दिखाया जिसे देख कर केवल भारत के ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय उप महाद्वीप के लोग रोमांचित हो उठे।  
यही वजह है कि उनकी इस जीत को लेकर पूरे उपमहाद्वीप के देशों में खुशी है।  लेकिन एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि पूरे भारत में हरियाणा व पंजाब ही ऐसे प्रदेश हैं जहां से सर्वाधिक खिलाड़ी आते हैं और ट्रैक एंड फील्ड में तो विशेषकर इन दो राज्यों का ही दबदबा रहता है। कुश्ती में भी जिस तरह रवि दहिया (रजत पदक) व बजरंग पूनिया (कांस्य पदक) जीते हैं उससे यही सिद्ध होता है कि ये दोनों राज्य ही ‘विश्व विजयी गामा’ की विरासत को अभी तक थामे हुए हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश व महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी कुश्ती बहुत लोकप्रिय है। खासकर उत्तर प्रदेश ने भी ‘कीकड़ सिंह’ जैसे पहलवान दिये हैं मगर अब यह राज्य खेलों में नाम भर को भी नहीं है। हालांकि यह देश का सबसे बड़ा राज्य है। बेशक नीरज चोपड़ा नई सदी में ‘भारत के राकेट’ सिद्ध हो सकते हैं और आने वाले 2024 व 2028 के ओलिम्पिक खेलों में भारत का झंडा तोक्यो ओलिम्पिक की तरह ही बुलन्द रख सकते हैं मगर इस तरफ हमें अभी से ध्यान देना होगा और ट्रैक एंड फील्ड की अन्य स्पर्धाओं की तरफ भी जोर देना होगा।
भारत ने तोक्यो ओलिम्पिक में कुल सात पदक जीते हैं जबकि इसकी आबादी 140 करोड़ को पार कर रही है। इतनी बड़ी आबादी वाले देश का ओलिम्पिक में 44वें स्थान पर रहना बताता है कि हम क्रीड़ा के क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकते हैं क्योंकि भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। जिला स्तर पर ही युवा प्रतिभाओं को पहचान कर हमें उन्हें आगे बढ़ाना होगा और हर जिले में सुव्यवस्थित खेल सुविधाओं का जाल बिछाना होगा। इसके लिए खेल विभाग का बजट भी हमें पर्याप्त करना होगा और इसमें कटौती करने की आदत बदलनी होगी। खास कर भारत में ट्रैक एंड फील्ड स्पर्धाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए जिला स्तर पर क्रीड़ा स्पर्धाओं को बढ़ावा देना होगा और इस काम में सरकारी सहयोग को बढ़ाना होगा। भारत में जिस तरह क्रिकेट को खेलों का ‘बुखार’ दिखा कर पेश किया जाता है उससे नई पीढ़ी को ओलिम्पिक स्पर्धाओं तक के बारे में कोई जानकारी नहीं रहती। यहां तक कि हाकी जैसे लोकप्रिय खेल की तरफ भी नई पीढ़ी विशेष ध्यान नहीं देती है।
 हाकी में भी अधिकतर खिलाड़ी पंजाब के ही होते हैं। जहां तक फुटबाल का प्रश्न है तो इसे लोकप्रिय बनाने के लिए देश के सूचना व प्रसारण मन्त्री रहे  स्व. प्रिय रंजन दास मुंशी ने बहुत मेहनत की थी । फुटबाल संघ के अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने इस खेल को पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर प. बंगाल व गोवा से लेकर उत्तर प्रदेश तक में नई पीढ़ी को तैयार करने की एक योजना तैयार की थी। नीरज चोपड़ा ने जो कुछ भी हासिल किया है वह अपनी  लगन व मेहनत से हासिल किया है और इसके लिए किसी प्रायोजक की कृपा पर निर्भर नहीं रहा है। वह ‘हिन्द का राकेट’ बना है अपने बुलन्द इरादों से। चोपड़ा का उदाहरण सामने रखकर हम चक्का फेंक से लेकर गोला फेंक और विभिन्न प्रकार की दौड़ों के लिए भारत की नई पीढ़ी को तैयार करने के लिए हर राज्य में मूलभूत सुविधाएं इंटरमीडियेट विद्यालय स्तर पर तो उपलब्ध करा ही सकते हैं। अब से पचास साल पहले तक प्राथमिक पाठशाला के स्तर पर ही पांचवीं कक्षा के छात्र ट्रैक एंड फील्ड की विभिन्न स्पर्धाओं में भाग लिया करते थे जिनका आयोजन स्कूल प्रबन्धन किया करता था। खास कर सरकारी व चुंगी के स्कूलों में ये प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं। मगर शिक्षा का बाजारीकरण होने के बाद यह परिपाठी बन्द हो गई ।  हमें अपनी खेल नीति में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा और नई पीढ़ी को बताना होगा कि खेलों का मतलब सिर्फ क्रिकेट के मैच देख कर पटाखे बजाने से नहीं होता बल्कि मैदान में शारीरिक कसरत करते हुए हर स्पर्धा में प्रतियोगिता करने से होता है। इलैक्ट्रानिक खेलों के युग में इस तरफ ध्यान मोड़ना और भी ज्यादा जरूरी हो गया है। 

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