पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में नामजद किये जाने पर जिस तरह न्याय जगत के ही कुछ विशेषज्ञ भौंवे टेढ़ी कर रहे हैं उसका औचित्य यही है कि 8 रंजन गोगोई के सर्वोच्च न्यायालय से अवकाश प्राप्त किये अभी केवल चार महीने का समय ही हुआ है और उन्होंने अपने मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल में कई ऐसे महत्वपूर्ण मुकद्दमों का फैसला दिया जिनमें केन्द्र सरकार एक प्रमुख पक्ष थी और इनका चरित्र राजनीतिक था। संयोग से इनका फैसला कमोबेश सरकार के पक्ष में ही गया, परन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद की शोभा बढ़ाने वाले व्यक्ति का राष्ट्रपति द्वारा संसद में नामजद किया जाना उनके पद की गरिमा औऱ प्रतिष्ठा के स्तर के किस तरह अनुकूल माना जायेगा?
इस संशय का निवारण जरूर होना चाहिए जबकि बहस उल्टी हो रही है कि श्री गोगोई को सरकार ने उपकृत करने का प्रयास किया है। भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को पद व गोपनीयता की शपथ देश के ‘मुख्य न्यायाधीश’ दिलाते हैं औऱ मुख्य न्यायाधीश को उनके पद की शपथ ‘राष्ट्रपति’ दिलाते हैं। संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति संसद के भी संरक्षक होते हैं। उन्हीं के आदेश से संसद का सत्र प्रारम्भ होता है औऱ उसका सत्रावसान होता है। यही संसद कानून बनाने का काम करती है जिसकी संवैधानिक समीक्षा मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जाती है।
अतः राष्ट्रपति औऱ मुख्य न्यायाधीश का पद लगातार समानान्तर रूप से संविधान और उसके शासन को अक्षुण्य रखने की दिशा में काम करता है। स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना के पीछे हमारे संविधान निर्माताओं की मंशा इसे ‘निरापद’ बनाने की बिल्कुल नहीं थी बल्कि ‘निरपेक्ष’ बनाने की थी अतः सर्वोच्च न्यायालय की प्रमुख भूमिका यह निर्धारित की गई कि राजनीतिक प्रणाली संवैधानिक मर्यादाओं में बंधकर ही प्रशासनिक व्यवस्था चलाये..इन समीकरणों के बीच भारतीय लोकतन्त्र का वह ब्रह्मास्त्र एक वोट का अधिकार आता है जो राष्ट्रपति से लेकर गांव में रहने वाले एक मुफलिस मजदूर को एक समान आधार पर दिया गया है। मुख्य न्यायाधीश भी इसके दायरे में आते हैं
अतः पद से निवृत्त होने के बाद जिस तरह राष्ट्रपति महोदय को राजनीति में सक्रिय होने का अधिकार हमारा संविधान देता है उसी प्रकार मुख्य न्यायाधीश को भी यह अधिकार प्राप्त है.. अभी तक केवल एक मुख्य न्यायाधीश श्री रंगनाथ मिश्रा ही हुए हैं जिन्होंने पद मुक्त होने के सात वर्ष बाद बाकायदा कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करके राज्यसभा का चुनाव लड़ा था हालांकि उनसे पहले 1967 में मुख्य न्यायाधीश पर कार्यरत ‘न्ययामूर्ति स्व. कोका सुब्बाराव’ ने पद से इस्तीफा देकर डा. जाकिर हुसैन के खिलाफ राष्ट्रपति चुनाव लड़ा था।
वह उस समय विपक्ष के साझा उम्मीदवार बनाये गये थे, परन्तु इसके बाद मुख्य न्यायाधीश पद पर कार्यरत होते हुए 1970 मे पूर्व राजा महाराजाओं के प्रिवीपर्स उन्मूलन के प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी की सरकार के फैसले को अवैध करार देने वाले न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला को 1977 में बनी मोरारजी भाई की जनता पार्टी सरकार राज्यसभा में लाई और उन्हें उपराष्ट्रपति बनाया.. मुख्य न्यायाधीश के पद को सेवानिवृत्ति के बाद संसदीय प्रणाली में निचले पायदान पर रखने का यह पहला मामला था मगर हिदायतुल्ला ने इसे स्वीकार किया था बेशक इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को सरकारी पदों पर बैठाया जाता रहा था। पहला मामला 1953 का ही था जिसमे पं. नेहरू की सरकार ने रिटा. मुख्य न्यायाधीश श्री फजल अली को राज्य पुनर्गठन आयोग का अध्यक्ष बनाया था। इसके बाद 1958 में उन्होंने ही बम्बई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री एम.सी. चागला को अमेरिका में राजदूत बना कर भेजा था। जहां राज्यों के पुनर्गठन के लिए न्यायविद् की जरूरत थी वहीं अमेरिका में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए कुशल राजनीतिज्ञ की जरूरत थी। स्व. चागला अद्वितीय विधिवेत्ता होने के साथ राजनयिक भी थे औऱ राजनीति के प्रगाढ़ पंडित भी थे।
उन्होंने भारत के बंटवारे का न केवल कहा विरोध किया था बल्कि मुहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के मुकाबले अपनी अलग पार्टी भी बनाई थी बाद में वह देश के विदेशमन्त्री भी रहे, परन्तु इंदिरा गांधी का कार्यकाल स्वतन्त्र न्यायपालिका के उज्ज्वल अध्याय में स्याही के धब्बे छोड़ रहा था औऱ हद यह हो गई थी कि 1974 में उन्होंने यहां तक कह दिया था कि न्यायालयों को सरकार की नीतियों को देखते हुए अपने फैसले देने चाहिएं.. वह एक सफल और शक्तिशाली प्रधानमन्त्री जरूर थीं मगर संसद के माध्यम से न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को क्षीण भी करना चाहती थीं.. अतः 1980 में जनता पार्टी सरकार के विफल होने के बाद धमाकेदार जीत से सत्ता पर आयी इन्दिरा गांधी ने न्यायपालिका की प्रतिष्ठा को ‘सत्तासेवी’ स्वरूप देने का काम बहुत चालाकी के साथ किया और सर्वोच्च न्यायालय के कार्यरत न्यायाधीश बहरुल इस्लाम से इस्तीफा दिलवा कर उन्हें राज्यसभा में कांग्रेस का प्रत्याशी बना डाला.. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता औऱ संसद की प्रभुसत्ता के बीच बना हुआ सत्वाधिकारी सेतु टूट गया, जिसे बाद में स्वयं न्यायपालिका ने ही अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप पुनः निर्मित किया अतः प्रश्न यह है कि श्री गोगोई की राज्यसभा में नामजदगी से क्या न्यायपालिका की प्रतिष्ठा पर असर पड़ेगा?
इसका कोई कारण तब नजर नहीं आता है जबकि श्री गोगोई के व्यक्तित्व और विशेषज्ञता का संज्ञान लेकर विश्लेषण किया जाये। राज्यसभा उच्च सदन है और बदलते हालात व राजनीति को देखते हुए इस सदन में देश के जाने – माने दिमाग हर क्षेत्र से होने चाहिएं, जिस ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को हमने अपनाया है उसमे इसका उच्च सदन ‘हाऊस आफ लार्ड्स’ ही 2010 तक सुप्रीम कोर्ट का काम करता था। इस देश में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना 2010 में ही हुई। भारत की संसदीय प्रणाली में राज्यसभा की महत्ता बहुमत के ‘आवेश को सुगम्य’ बनाने की होती है क्योकि लोकसभा में पांच साल बाद मिला बहुमत राजनैतिक आवेग के वशीभूत रहता है जबकि राज्यसभा में बहुमत विभिन्न राज्यों की आन्तरिक राजनीतिक परिस्थितियों के वशीभूत होता है।
इसीलिए लोकसभा द्वारा पारित विधेयकों पर जब राज्यसभा विचार करती है तो उसका फलक अल्पमत औऱ बहुमत के समीकरणों से परे चला जाता है। ऐसे सदन में श्री गोगोई की उपस्थिति से निश्चित रूप से लाभ ही होगा। अतः उनकी नामजदगी बदलते समय की बदलती राजनीति में कुछ बेहतर ही करेगी। रिटायर होने पर न्यायाधीशों की जरूरत भारत को आज संभवतः सबसे ज्यादा है।