भूख से खंड-खंड ‘झारखंड’ - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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भूख से खंड-खंड ‘झारखंड’

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आजादी के सत्तर साल बाद विकास के आसमानी दावों के बीच जब किसी भारतीय नागरिक की मृत्यु भूख के कारण अनाज न मिलने से होती है तो हमारी प्रगति के सभी मानक बेमानी हो जाते हैं और हमें चेतावनी देते हैं कि सम्पन्नता का अर्थ सिर्फ शहरों में खड़ी ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं और निजी कम्पनियों का बढ़ता कारोबार नहीं हो सकता बल्कि गरीब आदमी का वह आर्थिक सशक्तीकरण ही हो सकता है जिससे वह दो जून की भरपेट रोटी का इन्तजाम कर सके। झारखंड के गिरीडीह जिले के डुमरी ब्लाक के मनगरगड्डी गांव में सावित्री देवी नाम की महिला की मृत्यु तीन दिन से भोजन न मिलने की वजह से जिन विकट परिस्थितियों के चलते हुई है उससे जाहिर है कि हमारी लोकतान्त्रिक प्रशासन प्रणाली कितनी गैर-संजीदगी के साथ काम करती है। यह इस तथ्य का भी प्रमाण है कि 2013 में लागू ‘भोजन का अधिकार’ कानून कितनी बेरहमी से नागरिकों के साथ पेश आ रहा है।

झारखंड की पूरी प्रदेश सरकार ने जिस प्रकार संवेदनहीनता की हदें पार करते हुए अपनी दो पुत्रवधुओं व पोते-पोतियों के साथ रहने वाली महिला सावित्री देवी के परिवार को राशन कार्ड तक बनाकर नहीं दिया उससे साबित होता है कि गांव व गरीब के लिए हिन्दोस्तान की हुकूमत में कोई स्थान नहीं है। जिस परिवार के घर में पिछले कई दिनों से अनाज का एक भी दाना न हो वह किस तरह अपनी बुजुर्ग महिला की पेट की क्षुधा को शान्त कर पाता ? हम लगातार अनाज उत्पादन में नये कीर्तिमान स्थापित करने के दावे ठोकते रहते हैं और शान बघारते रहते हैं कि भारत अब अन्न निर्यातक देश बन गया है मगर अपने ही लोगों को भरपेट अनाज उस मात्रा में उपलब्ध नहीं करा पाते जिनकी आर्थिक हालत अच्छी नहीं है तो हमें विकास के दावे करने का कोई अधिकार नहीं है। जब किसी भी देश में कोई एक व्यक्ति भी भूख से दम तोड़ता है तो समूचा प्रशासन तन्त्र जवाबदेह हो जाता है और उसे सिद्ध करना पड़ता है कि उसकी निगरानी में कोई भी व्यक्ति इस वजह से भूख से दम नहीं तोड़ेगा कि उसके पास अन्न खरीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं है।

भोजन के अधिकार का इसके अलावा कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं हो सकता क्योंकि सरकार स्वयं दावे करती है कि गरीब से गरीब आदमी की आमदनी कम से कम इतनी हो चुकी है कि वह साल भर का अनाज सस्ते दामों पर खरीद कर अपना पेट भर सके मगर हमने जिस विकास के रास्ते को पकड़ा है उसमें गरीब को बाजार की कृपा पर छोड़ दिया है और सोच लिया है कि बैंक खाते खुलवा कर या गैस का मुफ्त कनैक्शन देकर उसमें बाजार कीमत पर उपभोक्ता वस्तुएं खरीदने की ताकत आ जायेगी। यह ताकत तभी आयेगी जब उसकी आमदनी में इजाफा होगा और आमदनी में इजाफा तभी हो सकता है जब स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक उसके रोजगार के रास्ते सुलभ होंगे। सावित्री देवी के दो बेटे हैं और दोनों ही अपने गांव से दूर दूसरे राज्यों में काम करते हैं। इनमें से एक उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर की किसी निजी बिजली कम्पनी में काम सीख रहा है और दूसरा महाराष्ट्र के भुसावल शहर में एक निजी कम्पनी में प्रशिक्षु के रूप में काम कर रहा है। इस गरीब परिवार को राज्य की रघुबर दास सरकार के कर्मचारियों ने राशन कार्ड ही बनाकर नहीं दिया। उसके परिवार का गुजारा भुसावल से उसके बेटे द्वारा भेजे गये कुछ पैसों से ही होता था।

अनाज के लिए यह परिवार स्वयं सेवी संस्थाओं के चक्कर भी काटता रहा और वे इसे आधी-अधूरी मदद भी देते रहे मगर उसका राशन कार्ड नहीं बना जिससे वह भोजन के अधिकार के तहत सस्ती दरों पर अनाज खरीद सके। झारखंड में यह पहला मामला नहीं है। छह महीने पूर्व भी एक 16 वर्षीय कन्या की इन्हीं विकट परिस्थितियों में मृत्यु हुई थी। सावित्री देवी ने तीन दिन से भोजन नहीं किया था जिसकी वजह से उसका शरीर जवाब दे गया। जाहिर है कि उसके परिवार के दूसरे सदस्य भी इसी तरह भूख से पी​िड़त होंगे और जिन्दगी जीने के लिए कोई जुगत लगा रहे होंगे मगर देखिये प्रशासन की बेशर्मी कि झारखंड का खाद्य मन्त्री कह रहा है कि भोजन के अधिकार के तहत राशन कार्ड न बनने पर किसी को अनाज देने की व्यवस्था वह कायम नहीं कर सकता है। सबसे प्रमुख सवाल यह है कि गरीब आदमी का राशन कार्ड बनाकर देने की जिम्मेदारी किसकी है? यदि गांव स्तर से लेकर कस्बे के स्तर तक गरीबों का राशन कार्ड बनाने में धांधली की जाती है तो इसके लिए जिम्मेदार किसे ठहराया जायेगा? पहले राशन कार्ड के लिए आधार कार्ड का होना जरूरी बताया गया था जबकि भोजन के अधिकार में इसकी कोई जरूरत नहीं है। गांव स्तर पर ही क्या हम गरीबों की फेहरिस्त ग्राम प्रधान के जरिये प्राप्त नहीं कर सकते हैं ? मगर झारखंड में तो मन्त्रियों को यहां की खनिज से भरपूर ‘धनवान धरती’ के सौदे करने से ही फुर्सत नहीं मिलती है तो वे गरीब लोगों के बारे मंे कैसे सोचेंगे? यहां तो होड़ लगी हुई है कि किस तरह यहां के आदिवासियों के जंगल, जल और जमीन निजी कम्पनियों को बेचे जायें। यहां तो भोलेभाले नागरिकों को भगवान भरोसे छोड़कर समझाया जा रहा है कि
मेरा भारत देश कि जिसकी माटी स्वर्ग समान है
भूखा-नंगा देश कि जिसके कण-कण में भगवान है

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