1983 में असम में विधानसभा चुनाव कराए गए तो कांग्रेस को बहुमत मिला। हितेश्वर सैकिया राज्य के मुख्यमंत्री बने। लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने के बावजूद असम में असंतोष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और हिंसा का दौर जारी रहा। इसी बीच 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या हो गई और केन्द्र में परिवर्तन हुआ। राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने और उन्होंने खुले दिल से असम में शांति स्थापना के लिए वार्ता की पहल की। 15 अगस्त 1985 को असम समझौता अस्तित्व में आया। बाहरी व्यक्ति को परिभाषित करने के लिए 25 मार्च, 1971 की तारीख निर्धारित की गई। इसके बाद आए सभी व्यक्तियों को सरकार ने राज्य से बाहर करने का वादा किया। यह समझौता असम गण परिषद और असम गण संग्राम परिषद के साथ हुआ था। इसके बाद इस संगठन के नेताओं ने असम गण परिषद के रूप में काम करना शुरू कर दिया। इस समझौते को उल्फा ने मानने से इन्कार कर दिया था।
उसने साथ चल रहे असम गण परिषद से दूरियां बना लीं। इसके ठीक बाद 1985 के आम चुनावों में असम गण परिषद सत्ता में आई और प्रफुल्ल कुमार महंत मुख्यमंत्री चुने गए। केन्द्र सरकार ने उल्फा से बातचीत जारी रखी लेकिन हर बार वार्ता विफल हो जाती। उल्फा ने अपना विस्तार जारी रखा तथा उसने पाकिस्तान की खुफिया एजैंसी आईएसआई आैर बंगलादेश में सक्रिय आईएसआई के कुछ गिरोहों से सांठगांठ कर ली। बाहरी व्यक्तियों की हत्याएं, बम धमाके और सुरक्षा बलों से गुरिल्ला पद्धति से लड़कर राज्य में आतंकवाद को फैलाया गया। आतंकवाद ने 1990 तक इतना जोर पकड़ा कि केन्द्र सरकार को फिर से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। सेना ने शांति स्थापना के लिए ऑपरेशन बजरंग चलाया जिसमें बड़ी संख्या में आतंकवादियों को मौत के मुंह में जाना पड़ा। इस अभियान में सेना के जवान शहीद हुए लेकिन उल्फा कमजोर हो गया और राज्य में शांति स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ।
1991 में उल्फा ने फिर सिर उठाया तो सेना ने ऑपरेशन राइनो चलाया। उल्फा नेताओं ने खुद को बचाने के लिए भूटान, म्यांमार और बंगलादेश में अपने कैम्प खोल दिए। उल्फा के बड़े नेताओं ने इन्हीं देशों में शरण ली। भारत सरकार के दबाव में भूटान ने 2003 में उल्फा के आतंकवादी शिविरों को नष्ट करने के लिए ऑपरेशन ऑल क्लीयर चलाया। धीरे-धीरे उल्फा की ताकत कम हो गई। उसके नेताओं ने हथियारों की तस्करी का धंधा शुरू कर बंगलादेश में अपनी सम्पत्ति बना ली। बंगलादेश की शेख हसीना सरकार ने कुछ उल्फा नेताओं को पकड़ कर भारत सरकार के हवाले कर दिया। कुछ ने आत्मसमर्पण कर दिया। हालांकि उल्फा अपना जनसमर्थन खो चुका है लेकिन अभी भी वह स्वतंत्र असम का नारा बुलन्द कर रहा है। तब से लेकर वर्ष 2018 भी आधे से अधिक बीत चुका है लेकिन बाहरी लोगों की समस्या का समाधान नहीं हो सका है। 15 अक्तूबर, 1993 को भारत सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर ऐसे ट्रिब्यूनलों को गठित किया जिनका काम अवैध अप्रवासियों को बाहर करना था।
यह अध्यादेश 12 दिसम्बर, 1993 को संसद में पारित हुआ और कानून अस्तित्व में आया। यह कानून केवल असम में लागू किया गया। शेष राज्यों को इस समस्या से निपटने के लिए विदेशी नागरिक कानून 1946 को आधार बनाया गया। दोनों कानूनों में बड़ा अन्तर था। आईएमडीटी एक्ट के तहत किसी भी व्यक्ति की विदेशी पहचान को सिद्ध करने की पूरी जिम्मेदारी शिकायतकर्ता पर डाली गई। यह कानून काफी विरोधाभासी रहा। सबूतों के अभाव में शिकायतकर्ता अपनी बात को साबित नहीं कर सकता था क्योंकि अवैध अप्रवासियों ने भ्रष्ट तंत्र का सहारा लेकर अपने राशन कार्ड बनवा लिए थे और मतदाता सूचियों में अपना नाम दर्ज करवा लिया था। इसके पीछे कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति थी। कांग्रेस ने अवैध बंगलादेशियों को अपना वोट बैंक बना लिया था। आज के भाजपा मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने सुप्रीम कोर्ट में आईएमडीटी एक्ट को चुनौती दी और इसकी वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगाया। अन्ततः 12 जुलाई, 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट को अवैध घोषित कर दिया। बाकी चर्चा मैं कल के लेख में करूंगा। (क्रमशः)