दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल ने उपराज्यपाल निवास पर चल रहा अपना नौ दिन पुराना धरना समाप्त करके राजधानी में उस प्रशासनिक अराजकता को खत्म किया है जो एक अर्धराज्य की उलझी हुई प्रणाली से बावस्ता मानी जाती है। दिल्ली की बहुस्तरीय प्रशासनिक प्रणाली के चलते एेसे कई अवसर आते रहते हैं जब चुनी हुई सरकार और उपराज्यपाल के बीच टकराव पैदा हो जाता है मगर यह दिल्ली राज्य की विशेष स्थिति से जुड़े हुए सवाल हैं जिनका हल आपसी विचार-विमर्श की सकारात्मकता पर निर्भर करता है मगर केजरीवाल की राजनीति शुरू से ही टकराहट की टंकार से उपजे जयघोष पर निर्भर रही है इसलिए उन्होंने मुख्यमन्त्री बनने के बाद और दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीतने के बाद भी यही दस्तूर जारी रखा जिसकी वजह से कभी-कभी राजधानी में गतिरोध का बोलबाला नजर आने लगा लेकिन सत्ता के काम टकराहट से नहीं बल्कि सौहार्द से निपटाये जा सकते हैं।
इसका पुख्ता प्रमाण उनसे पहले दिल्ली की लगातार 15 साल तक मुख्यमंत्री रहीं कांग्रेस की नेता श्रीमती शीला दीक्षित रहीं जिन्होंने केन्द्र में भाजपा की सरकार होने के बावजूद अपनी कांग्रेस की सरकार की गाड़ी को बिना रोकटोक के खींचा और राजधानी का चहुंमुखी विकास भी किया। एेसा नहीं है कि केजरीवाल के शासन में दिल्ली में कुछ काम ही न हुआ हो। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उन्होंने बेमिसाल काम किया है परन्तु उनकी सरकार की छवि एक झगड़े-टंटे की सरकार की ही बनकर उभरी है इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती लेकिन अब प्रश्न यह है कि उपराज्यपाल द्वारा दिल्ली की अपसरशाही को नियमतः काम करने के निर्देश के बाद मुख्यमन्त्री को भी व्यर्थ के विवाद और विरोध की राजनीति को तिलांजिल देकर उस जनता के कामों पर ध्यान देना चाहिए जिसने उन्हें चुनकर भेजा है। सबसे बड़ा मसला बिजली और पानी की समस्या का है।
इसके साथ ही गरीबी की सीमा रेखा पर जी रहे राशनकार्ड धारियों के घर पर राशन की सप्लाई करने का है। केजरीवाल सरकार का यह कदम प्रशंसनीय कहा जायेगा कि वह गरीबों को उनके घर पर राशन की सप्लाई करना चाहते हैं। इस काम में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करने के िलए उपराज्यपाल को दिल्ली सरकार के साथ सहयोग करना चाहिए और इसे एक मन्त्रालय से दूसरे मन्त्रालय या विभाग पर नहीं टाला जाना चाहिए। मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के बीच जो भी विवाद हैं उनका निपटारा दोनों को ही आपस में बातचीत से करके आगे बढ़ना चाहिए। दिल्ली उच्च न्यायालय में जो भी मुकदमा चल रहा है उसकी कार्यवाही का अभी तक का निष्कर्ष यही निकाला जा सकता है कि न्यायालय भी यही चाहता है कि इस विवाद को बिना आगे खींचे प्रशासन को पंगु नहीं बनने देना चाहिए। राजनीतिक मोर्चे पर केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच लड़ाई हो सकती है मगर प्रशासनिक स्तर पर इन दोनों दलों की दिल्ली व केन्द्र सरकार के बीच किसी प्रकार के विवाद का कोई प्रश्न पैदा नहीं होना चाहिए क्योंकि भारत का समूचा प्रशासन संविधान के अनुसार चलता है और इसके तहत दिल्ली व केन्द्र सरकार के अधिकार सुपरिभाषित हैं किन्तु जब प्रशासन में राजनीति घुस जाती है तो इस प्रकार के विरोधाभास पैदा होने लगते हैं।
केजरीवाल साहब को मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठने से पहले ही पता था कि उनकी चुनी हुई सरकार के अधिकार किसी पूर्ण राज्य की सरकार के बराबर नहीं हैं और उन्हें केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त किये गये उपराज्यपाल के मातहत होकर ही अपने कामों को पूरा करना होगा। इसके लिए उन्हें केन्द्र सरकार के वििभन्न मन्त्रालयों के साथ सामंजस्य स्थापित करने के साथ ही दिल्ली की कानून-व्यवस्था के मामले में गृह मन्त्रालय के सम्पर्क में लगातार रहना होगा और अपने कारगर सुझावों से उसे लगातार अवगत कराते रहना होगा किन्तु यह स्थिति क्यों नहीं बनी इसके बारे में तो सही जवाब केजरीवाल ही दे सकते हैं। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि दिल्ली में जो गतिरोध टूटा है उसका प्रयोग दिल्ली की समस्याओं के त्वरित समाधान में होना चाहिए और आईएएस अफसरों को भी यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि चुने हुए प्रतिनिधियों से बनी सरकार के मन्त्रियों की अवमानना करके वे स्वयं की अवमानना के ही दरवाजे खोलते हैं। लोकतन्त्र में हमेशा बुराई ऊपर से नीचे की तरफ चलती है, नीचे से ऊपर की तरफ नहीं।