सबसे पहले यह साफ हो जाना चाहिए कि भारत महात्मा गांधी का देश है सावरकर का नहीं जो स्वतन्त्र भारत की राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैनिकीकरण करना चाहते थे। आजाद भारत के लोगों ने उनके जीवित रहते ही उनकी राजनीति को दफन करके उनकी पार्टी हिन्दू महासभा को इतिहास का पन्ना बना दिया था। दीवार पर लिखी इस इबारत को हर हिन्दुस्तानी इस तरह पढ़ता है कि इसकी 130 करोड़ आबादी में हर हिन्दू में एक मुसलमान रहता है और हर मुसलमान में एक हिन्दू रहता है क्योंकि दोनों के सामाजिक, आर्थिक और यहां तक कि सांस्कृतिक व धार्मिक कार्य भी एक-दूसरे की शिरकत के बिना पूरे नहीं होते हैं।
भारत पूरी दुनिया में इसलिए अनूठा देश नहीं है कि इसकी संस्कृति पांच हजार साल से भी ज्यादा पुरानी है क्योंकि चीन, यूनान और मिस्र आदि देशों की संस्कृति भी बहुत पुरानी है। यह अनूठा इसलिए है क्योंकि इसमें रहने वाले लोग एक-दूसरे की परंपराओं का सम्मान करते हैं और उन्हें निभाने में निजी से लेकर सामूहिक योगदान करते हैं। इसकी झलक उत्तर प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक में देखी जा सकती है।
सम्राट अशोक से लेकर अन्तिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर तक के शासनकाल में विभिन्न तबकों और सम्प्रदायों के बीच जो मजबूत ताना-बाना बुना गया था उसे अंग्रेजों ने अपनी हुक्मरानी के दौरान इस तरह तोड़ा कि महात्मा गांधी के 1942 में शुरू किये गये क्विट इंडिया (अंग्रेजो भारत छोड़ो) आन्दोलन तक का विरोध तब की कुछ हिन्दू व मुस्लिम मूलक सियासी तंजीमों ने खुल कर किया और 1946 के आते -आते अंग्रेजों ने एेसा वातावरण बना दिया कि हिन्दू-मुसलमान के आधार पर भारत का बंटवारा इसकी आजादी की शर्त बन गया।
इसी पृष्ठभूमि में भारत का संविधान लिखा गया जिसने धर्म निरपेक्षता को इस देश का मूल मन्त्र माना। अतः संविधान भारत की ऐसी महान विरासत है जिसका लेखन इसी देश के अछूत माने जाने वाले समाज के एक होनहार व ज्ञान के भंडार काल पुरुष भीमराव अम्बेडकर की निगरानी में पूरा हुआ और यह कार्य युग पुरुष महात्मा गांधी के आग्रह पर ही अम्बेडकर ने किया।
अतः भारत में जब नागरिकता का आधार तय हुआ तो हिन्दुस्तानी को ही केन्द्र में रखा गया, हिन्दू या मुसलमान को नहीं किन्तु 1947 के बंटवारे ने कुछ ऐसी विसंगतियां पैदा कीं जिनका परिमार्जन समय-समय पर तत्कालीन केन्द्र सरकारें करती रहीं और भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में सताये गये या प्रताड़ित नागरिकों को इस देश में पनाह देती रहीं। इसमें सबसे बड़ा दिल असम समेत पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों ने ही दिखाया जिन्होंने 1971 में पाकिस्तान से टूट कर अलग हुए बांग्लादेश के नागरिकों को स्वीकार किया और 25 मार्च 1971 से पहले (पूर्वी पाकिस्तान) आये लोगों को भारत का नागरिक मानने में संकोच नहीं किया।
इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही शामिल थे। इसकी वजह यह थी कि 16 दिसम्बर 1971 को बाकायदा बांग्लादेश बन जाने पर श्रीमती इन्दिरा गांधी और बांग्लादेश के राष्ट्र नायक शेख मुजीबुर्रहमान के बीच जो समझौता हुआ था उसमें भारत में आये शरणार्थियों को छूट दी गई थी कि वे दोनों में से किसी भी देश की नागरिकता स्वीकार कर सकते हैं परन्तु यह तारीख 24 मार्च 1971 की अर्ध रात्रि होगी। इसके बावजूद कालान्तर में असम में बांग्लादेश से लोग आते रहे जिसकी वजह से इस राज्य में 1984 से भारी आन्दोलन हुआ और इसकी समाप्ति 1985 में ‘राजीव-असम छात्र परिषद’ समझौते में हुई जिसमें मार्च 1971 को आधार मान कर नागरिक रजिस्टर तैयार करने का भी फैसला हुआ।
यह रजिस्टर बनाने का कार्य अब जाकर पूरा हुआ जिसमें 19 लाख लोग बाहर रह गये किन्तु केन्द्र सरकार ने जो नागरिकता संशोधन कानून बनाया है उसमें बांग्लादेश समेत बाहर (विदेश) से आने वाले लोगों की तारीख दिसम्बर 2014 कर दी है जिसका असम समेत सभी पूर्वोत्तर राज्यों में भारी विरोध हो रहा है, इसके साथ ही इस कानून में यह प्रावधान भी जोड़ दिया गया है कि जो भी पाकिस्तान, बांग्लादेश व अफगानिस्तान से आने वाले लोग अपने मूल देश में धार्मिक प्रताड़ना के शिकार होंगे उन्हें भारत की नागरिकता आसानी से मिल जायेगी। इसमें मुस्लिम शामिल नहीं होंगे क्योंकि ये तीनों देश इस्लामी राष्ट्र हैं। इन लोगों में हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, इसाई शामिल होंगे।
पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को इस नये कानून की वजह से अपने ही अल्पमत में रहने का खतरा सताने लगा है। उन्हें डर है कि इससे उनकी आबादी का गणित ही गड़बड़ा सकता है। अतः अधिसंख्य पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा की सरकारें होने के बावजूद इस कानून का प्रबल विरोध हो रहा है। जहां तक शेष भारत में नागरिकता कानून के विरोध का सवाल है तो वह संविधान की मूल भावना को लेकर है जिसमें नागरिकता को धार्मिक पहचान से अलग रखा गया है। दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्र इस कानून का विरोध महात्मा गांधी और अम्बेडकर की तस्वीरें लेकर कर रहे थे। इस विश्वविद्यालय में हिन्दू छात्र भी भारी संख्या में विद्या ग्रहण करते हैं और उच्च शिक्षा के क्षेत्र मेंे इसका पूरे देश में खास रुतबा भी है।
यह केन्द्रीय विश्वविद्यालय है जिसके ‘विजीटर’ स्वयं संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति हैं। छात्रों का आन्दोलन शान्तिपूर्ण था परन्तु न जाने छात्रों के बीच उपद्रवी लोग कहां से घुस आये और उन्होंने हिंसा शुरू कर दी परन्तु इसे दबाने के लिए पुलिस ने बर्बरता की सारी सीमाएं तोड़ डाली और विश्वविद्यालय प्रशासन की इजाजत के बगैर ही इसकी परिसीमा में प्रवेश करके पुस्तकालय और शौचालय तक में प्रवेश करके छात्र-छात्राओं को पीटा और छात्रावासों में घुस कर आंसू गैस तक छोड़ी। क्या इसे संयोग कहा जायेगा कि जिस दिल्ली पुलिस के साथ कुछ समय पहले वकीलों के साथ संघर्ष में आम दिल्ली वासियों की सहानुभूति थी वह इस जामिया कांड के बाद पलट गई।
जाहिर है इसके पीछे पुलिस का अपना काम है। पुलिस का कार्य सिर्फ संविधान के अनुसार कानून का पालन करना होता है, यह सिर्फ कानून या संविधान की जवाबदेह होती है। पुलिस कानून को लागू करती है उसे अपने हाथ में नहीं लेती। ऐसा करते ही वह स्वयं कानून तोड़ देती है और गुनहगार के दर्जे में आ जाती है। अतः विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उसकी कार्रवाई के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराना पूरी तरह न्याय सम्मत और वाजिब है लेकिन आंदोलन में हिंसा का प्रयोग कोई भी सरकार किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं कर सकती इसलिए नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि विरोध-प्रदर्शन पूरी तरह शान्तिपूर्ण हो लेकिन हमें इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेेगा कि कानून का विरोध बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से लेकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बेंगुलूरु से लेकर चेन्नई आईआईटी में हो रहा है।
ये छात्र ही तो युवा शक्ति हैं जो विरोध कर रहे हैं। जाहिर है यह सवाल वे हिन्दू-मुसलमान से ऊपर का मानते हैं और केरल में तो कमाल ही हो गया है। वहां का सत्तारूढ़ वाम मोर्चा और विरोधी लोकतान्त्रिक मोर्चा एक ही मंच पर आकर विरोध कर रहे हैं। विपक्ष का नेता और मुख्यमन्त्री जब एक ही मंच पर आकर विरोध पर सहमत हों तो लोकतन्त्र लोकधुन में बजने लगता है।