प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने के अवसर पर चीन के राष्ट्रपति शी-जिनपिंग से प्रथक द्विपक्षीय बातचीत करके दोनों देशों के सम्बन्धों के बारे में जो गंभीर चर्चा की उसके सुखद परिणाम निकट भविष्य में देखने को मिल सकते हैं परन्तु फिलहाल शुभ संकेत यह है कि श्री मोदी को चीनी राष्ट्रपति ने अगले वर्ष अनौपचारिक वार्ता के लिए आमन्त्रित किया है। हकीकत में दोनों देशों के सम्बन्ध सामान्य कहे जा सकते हैं परन्तु इनमें कहीं न कहीं ‘ऐंठन’ भी दिखाई पड़ती है। सम्बन्धों के इस धागे पर ‘बल’ निश्चित रूप से चीन की ओर से ही डाला जाता रहा है।
अतः उसे सीधा करना भी चीन का कर्त्तव्य बनता है। हाल में चीन ने कश्मीर के मुद्दे पर अपना जो दृष्टिकोण बदला है वह निसन्देह भारत के लिए चिन्ता का विषय है क्योंकि इससे पहले चीन का रुख कमोबेश भारत के रुख के करीब ही रहा है। यह रुख था कि कश्मीर भारत व पाकिस्तान के बीच का मसला है जिसे आपसी बातचीत से सुलझाया जाना चाहिए परन्तु चीन ने पाकिस्तान के साथ अपने सम्बन्धों की छाया में कश्मीर पर अपना नजरिया इस तरह बदला कि उसका रुख पाकिस्तान के पक्ष की तरफ खिसक गया।
उसने कश्मीर पर राष्ट्रसंघ के उसी ‘मुर्दा’ प्रस्ताव की वकालत करनी शुरू कर दी जिसमें भारतीय संघ के इस पूरे राज्य में जनमत संग्रह कराने की बात कही गई थी और भारत ने इसे उसी वक्त 1948 में कूड़ेदान में फैंक कर ऐलान कर दिया था कि कश्मीर घाटी के दो-तिहाई हिस्से को हड़प कर बैठे हुए पाकिस्तान की हैसियत इस मामले में सिर्फ एक हमलावर मुल्क की है और जिसकी ताईद किसी भी तरह नहीं की जा सकती।
मगर वक्त बदलने के साथ पाकिस्तान ने ही 1963 में इस नाजायज तौर पर हड़पे गये कश्मीरी भूभाग का एक हिस्सा चीन को तोहफे में दे दिया और चीन ने इसके मद्देनजर पाकिस्तान के साथ एक नया सीमा समझौता कर लिया। इसके साथ ही चीन ने जिस तरह भारत सरकार के इस कदम का विरोध किया कि इसने जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 हटा कर इसे दो केन्द्र शासित राज्यों में विभक्त करके उसकी प्रभुसत्ता को चुनौती है, पूरी तरह से अनाधिकार चेष्टा और तथ्यों के विपरीत जमीनी वास्तविकता का चित्रण है क्योंकि हककीत यही रहेगी कि भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के समय चीन की सीमाएं जम्मू-कश्मीर राज्य के परे तिब्बत से सटी हुई थीं।
इसके साथ ही 2003 में तिब्बत में तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने जब तिब्बत को चीन का स्वायत्तशासी अंग स्वीकार किया था तो उसके साथ सीमा विवाद को समाप्त करने के लिए उच्च स्तरीय वार्ता तन्त्र भी स्थापित किया था। इसका अनुपालन करने में पिछली मनमोहन सरकार ने भी कोई कोताही नहीं की और वार्ताओं के दौर लगातार होते रहे। इनमें मुख्य सहमति इस बात पर थी कि भारत-चीन सीमा के विवादित स्थलों पर जो हिस्सा जिस देश के प्रशासनिक नियन्त्रण में चल रहा हो उस पर उसका अधिकार स्वीकार किया जाये।
इसकी असली वजह यह है कि भारत के स्वतन्त्र होने पर चीन के साथ उसकी सीमारेखा स्पष्टतः निर्धारित नहीं थी क्योंकि अंग्रेजों ने तिब्बत को पृथक देश मान कर 1914 के करीब जो मैकमोहन रेखा सीमा के रूप में खींची थी उसे चीन ने तभी नकार दिया था अतः 2003 में वाजपेयी सरकार द्वारा चीन से किया गया समझौता दोनों देशों के रिश्तों में मील का पत्थर है। पाकिस्तान के साथ अपने सम्बन्धों को देखते हुए चीन ने गत सितम्बर महीने में होने वाली उच्च स्तरीय वार्ता के अगले दौर को भी मुल्तवी कर दिया था।
इसी पृष्ठभूमि में जनाब शी-जिनपिंग महाबलिपुरम में अनौपचारिक वार्ता के लिए आये थे। बेशक श्री मोदी ने ब्राजील के ब्रासिलिया शहर में हुए ब्रिक्स सम्मेलन के साये में उनसे अलग से दोस्ताना बातचीत की और आपसी व्यापारिक व वाणिज्यक सहयोग बढ़ाने के लिए महाबलिपुरम में जिस उच्च स्तरीय तन्त्र की स्थापना का फैसला किया गया था उसकी बैठक भी जल्दी बुलाई जाये किन्तु हकीकत यह भी है कि भारत ने आसियान देशों के बीच गहन क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग बढ़ाने वाले समझौते (आरसेप) पर हस्ताक्षर इसीलिए नहीं किये हैं कि इससे भारत समेत अन्य सदस्य देशों के बाजार भी चीनी माल से पट जायेंगे और भारत में तो चीनी माल का आयात बहुत बढ़ जायेगा।
भारत-चीन का व्यापार अभी भी चीन के पक्ष में ही है हालांकि चीनी निवेश भारत में अच्छी मिकदार में माना जाता है लेकिन चीन के मामले में फिर वही मूल सवाल आता है कि वह पाकिस्तान को अपने कन्धे पर बैठा कर कब तक भारत के साथ भी ‘मीठी-मीठी’ बातें करके कब तक ‘कड़वी’ गोलियां देता रहेगा? ऐसा नहीं है कि चीन इस हकीकत से वाकिफ न हो कि एशिया में चीन की बढ़त तभी हो सकती है जबकि भारत के साथ उसके हर संजीदा मोर्चे पर दोस्ताना सम्बन्ध हों। चूंकि वह भारत का निकटतम और ऐतिहासिक व सांस्कृतिक रूप से सबसे निकट का देश है इसलिए उसकी और भारत की सीमाओं पर हमेशा शान्ति व सौहार्द बने रहना कितना जरूरी है।
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि चीन ब्रिक्स सम्मेलन के बाद उस हकीकत को समझेगा जिसमें पाकिस्तान वर्तमान वैश्विक परिस्थितियों में पाकिस्तान आतंकवाद की जरखेज जमीन बन चुका है और ‘ब्रिक्स’ के सभी पांच देशों ने इसका मुकाबला करने के लिए एक प्रतिरोधी तन्त्र खड़ा करने पर सहमति व्यक्त की है।