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‘इंडिया’ खुश ‘भारत’ नाराज!

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देश के सामने आज सबसे बड़ा संकट जो पैदा हो गया है वह इसके ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के स्वरूप में बंटने का हो गया है। यह भारत के हर शहर-कूचे की दीवारों पर लिखी इबारत है कि गांधी ने जिस मुल्क हिन्दोस्तान की तरक्की का पैमाना यह तय किया था कि गांव में रहने वाले आदमी की हालत में जब तक सुधार नहीं होता है तब तक भारत प्रगति नहीं कर सकता है, वह ‘इंडिया’ की भेंट चढ़ता जा रहा है मगर पिछले कुछ दशकों से हम जिस विकास की गाथा का पाठ पढ़ रहे हैं उसमें अक्सर ‘शाइनिंग इंडिया’ की बातें तो की जाती हैं मगर ‘मजबूत भारत’ को हाशिये पर डाल दिया जाता है। यह शाइनिंग इंडिया ही है जो भारत को अक्सर चिढ़ाता रहता है और उसी की कीमत पर खुद के चमकने का दंभ भरता रहता है।

राजनीतिज्ञ भूल जाते हैं कि उनके द्वारा पेश किये गये तरक्की के आंकड़े भारत के लोगों की जिन्दगी की हकीकत से बहुत दूर छलांग भरते हुए उन लोगों के दिमाग का खलल होते हैं जो आम आदमी को उसकी असली मुश्किलों से छुटकारा दिलाने की तजवीजें कागज पर लकीरें खींचकर बनाते रहते हैं। किसी भी अर्थशास्त्री ने अभी तक इस सवाल का जवाब देने की कोशिश नहीं की है कि नोटबन्दी के असर से खेती व ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादित होने वाले सामान के दामों में ही जबर्दस्त गिरावट क्यों दर्ज हुई और बड़े-बड़े उद्योगों में बनने वाले माल के दाम लगातार या तो स्थिर रहे अथवा उनमें किसी प्रकार की गिरावट दर्ज नहीं हुई। इस सवाल का जवाब भी कोई राजनीतिज्ञ देने को तैयार नहीं है कि जिस प्रकार शिक्षा का बाजारीकरण किया जा रहा है और उच्च शिक्षा को केवल धन के बदले प्राप्त करने का औजार बनाया जा रहा है उससे इस मुल्क के गरीब व आम कहे जाने वाले आदमी को निजात कैसे मिलेगी और उसे शिक्षा का वह अधिकार कैसे मिलेगा जो धनी लोगों के पास है। किसी भी मन्त्री से लेकर राजनीतिज्ञ तक ने यह नहीं बताया कि स्वास्थ्य या चिकित्सा के क्षेत्र में जिस तरह खुला व्यापार हो रहा है उसका मुकाबला करने के लिए और गरीब आदमी को स्वस्थ बनाये रखने के लिए सरकार ने कौन से कारगर कदम उठाये हैं जिससे उसे और उसके बच्चों को भी दवा-दारू की किल्लत न हो मगर क्या कयामत है कि बड़े-बड़ेकार्पोरेट अस्पतालों के इश्तहार खूब छपते हैं जिनमें बड़े से बड़े मर्ज के इन्तजाम का दावा किया जाता है। इस पर भी गरीब आदमी का तब मजाक उड़ाया जाता है जब उससे कहा जाता है कि वह सरकारी दवा की दुकानों से सस्ती दवाएं खरीद सकता है लेकिन इन दवाओं के लिखने वाले डाक्टर की फीस चुकाने के दाम उसकी जेब में नहीं होते हैं।

प्रचार किया जाता है कि ‘टेली मेडिसिन’ के जरिये वह भी अपना इलाज करा सकता है। यही फर्क है भारत और इंडिया का जिसने इस मुल्क की तरक्की के पैमाने को दिमागी खलल में तब्दील कर दिया है। जब भारतीयों से यह कहा जाता है कि उसके देश का व्यापार सुगमता (ईज ऑफ डुइंग बिजनेस) में नम्बर बढ़ गया है तो कस्बे का छोटी सी बिस्कुट फैक्टरी का मालिक सोचता है कि उसके माल की खपत बाजार में बढ़ेगी और उसके सिर पर लटक रही विभिन्न प्रकार के इंस्पैक्टरों की तलवार हटेगी। बैंकों के दरवाजे पर जब स्टैंड अप इंडिया स्कीम के तहत बेरोजगार युवा पहुंचते हैं तो उनसे दो-टूक तरीके से कह दिया जाता है कि जिस अखबार में खबर छपी है उसी के दफ्तर पर जाओ मगर ऐसा नहीं है कि लोगों ने इन सब मुद्दों पर गौर नहीं किया है। जिस उत्तर प्रदेश के पालिका चुनावों का ढिंढोरा पीटा जा रहा है उनकी असलियत यह है कि छोटे कस्बों व ग्रामीण इलाकों को छूते क्षेत्रों की नगर पालिकाओं में राज्य की सत्तारूढ़ भाजपा पार्टी की करारी पराजय हुई है। इसके कुल 640 प्रत्याशियों में से 470 हारे हैं। बड़े-बड़े शहरों की 16 नगर निगमों से 14 पर विजय प्राप्त करके इसने ‘इंडिया’ में ही जीत दर्ज की है जबकि ‘भारत’ ने इसे हरा दिया है। यह आंखें खोल देने वाली हकीकत है जो बताती है कि भारत में हवा का रुख किस तरफ बह रहा है लेकिन जो मुद्दे मैंने ऊपर गिनाये हैं उनका जवाब यह कभी नहीं हो सकता कि राहुल गांधी का धर्म क्या है अथवा सरदार पटेल की कांग्रेस पार्टी में क्या स्थिति थी। इतिहास को तोडऩे-मरोडऩे से कभी झूठ को सच में नहीं बदला जा सकता। यह पुख्ता इतिहास है कि 1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद कांग्रेस संसदीय दल के भीतर इसके नेता पद के लिए बाकायदा चुनाव हुआ था और उसमें स्व. मोरारजी देसाई की जबर्दस्त शिकस्त हुई थी जबकि उन्हीं की मांग थी कि चुनाव होने चाहिएं।

उन्होंने तो धरने तक पर बैठने की धमकी दे दी थी मगर उन्हें केवल 160 से ऊपर मत मिले थे व स्व. इन्दिरा गांधी को 350 से अधिक। स्वतन्त्र भारत में कांग्रेस संसदीय दल के इतिहास में यह पहला और आखिरी चुनाव था जो स्व. कामराज जैसे समर्पित कांग्रेसी व निष्पक्ष अध्यक्ष के नेतृत्व में हुआ था। मोरारजी कभी भी इस देश के आम लोगों के नायक नहीं रहे और उनकी छवि बड़े-बड़े पूंजीपतियों के हितैषी की थी। ऐसा उन्हीं की सरकार में 1977 में उपप्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री बने स्व. चौधरी चरण सिंह ने कहा था। नेहरू और पटेल के बीच भी कभी भी कांग्रेस संसदीय दल में चुनाव नहीं हुआ। आजादी के बाद प्रधानमन्त्री बनने के लिए जो चुनाव हुआ था वह आचार्य कृपलानी और सरदार पटेल के बीच हुआ था जिसमें सरदार को बहुमत मिला था मगर गुजरात के ही महात्मा गांधी ने तब स्वयं फैसला लेकर पं. जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमन्त्री बनाया था और कहा था कि सरदार को बनाने का मतलब होगा कि एक गुजराती ने दूसरे गुजराती का पक्ष लिया जबकि पं. नेहरू के मातहत गृहमन्त्री के रूप में ही सरदार पटेल 1946 अप्रैल से ब्रिटिश सरकार के ‘कैबिनेट मिशन’ के तहत काम कर रहे थे अत: इतिहास को कभी नहीं बदला जा सकता मगर इतिहास के पर्दे में आम आदमी के वर्तमान के मुख्य मुद्दों को किस तरह घुमाया जा सकता है। अक्सर राजनीतिज्ञ ऐसी भूलें करते रहे हैं और मतदाता उन्हें ‘भारत दर्शन’ कराकर सही राह दिखाते रहे हैं।

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