क्या गजब ढहाया है ‘लाॅकडाऊन’ ने कि ‘भारत’ सड़कों पर चल रहा है और ‘इंडिया’ घरों में बन्द बैठा है! आजादी के बाद हिन्दोस्तान को बनाने वाले लोग आज पूछ रहे हैं कि कहां है वह गांधी का भारत जो गांवों में रहा करता था? हिन्दोस्तान का बजट 259 करोड़ रुपए (1947 में) से 2019-20 में बढ़ कर 28 लाख करोड़ रुपए के करीब हो गया मगर भारत के नसीब में सड़कें ही रहीं और इंडिया भेष बदल कर कोठियों, बंगलों और फ्लैटों में रहने लगा। बेशक हम तरक्की की नई-नई कहानियां सुनते-सुनाते रहें मगर हकीकत यह है कि देश के कुल 26 करोड़ परिवारों में से 13 करोड़ की आमदनी 20 हजार रुपए माहवार से भी कम है। लाॅकडाऊन ने इन्हीं लोगों को आइना दिखाया है कि उनकी हैसियत अभी भी सड़कों पर ही रहने की है।
पूरे भारत में जिस तरह प्रवासी मजदूर लावारिसों की तरह अपनी सारी जमा-पूंजी खर्च करके लाॅकडाऊन की विभीषिका को झेलने के लिए अपने गांवों की तरफ पलायन कर रहे हैं उससे यही साबित होता है कि शहरों के विकास की कीमत गांवों ने बुरी तरह चुकाई है। सवाल पैदा होता है कि लगातार दो महीने तक बिना आमदनी के गुजारा करने वाले इन मजदूरों की आिर्थक भरपाई कौन करेगा? मैं आज किसी बड़ी योजना की बात नहीं कर रहा हूं बल्कि सिर्फ यह पूछ रहा हूं कि जब ‘खेत’ पर संकट मंडरा रहा हो तो ‘खलिहान’ की सुरक्षा की मुनादी पिटवा कर फसल को किस तरह सुरक्षित रखा जा सकेगा? किसान, मजदूर, कामगर इस देश के विकास के वे औजार हैं जिनसे शहरों में रौनक पैदा होती है।
इन्हीं शहरों में रोजी-रोटी के लिए वे जाते हैं और इंडिया के लोगों के जीवन को सुगम ही नहीं बनाते बल्कि सारी रौनकें बख्शीश करते हैं। क्या कोई सोच सकता है कि किसी रईसे आजम के बेटे या बेटी की शादी भारत के इन्हीं लावारिस हालत में सड़कों पर दौड़ते लोगों की शिरकत के बिना पूरी हो सकती है क्योंकि इन्हीं में से दस्तकार से लेकर फनकार और कारीगर होते हैं। उनकी मुफलिसी में उनकी कोई गलती नहीं है क्योंकि कोरोना को भारत में लाने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। कोरोना विदेश यात्रा करने वाले इंडिया के लोगों की मार्फत भारत के लोगों में फैला है।
सवाल यह है कि कहीं फड़ लगा कर सामान बेचने वालों, कहीं फेरी लगा कर चीजें बेचने वालों से लेकर रिक्शा चलाने वालों और इंडिया के लोगों के मकान बनाने वाले मजदूरों तक कोरोना की पहुंच कैसे हुई? क्या बड़े-बड़े दावे राज्य सरकारों से लेकर केन्द्र सरकार के मन्त्रियों द्वारा हो रहे हैं मगर मजदूरों से यात्रा टिकट के पैसे आड़े-तिरछे तरीकों से वसूले जा रहे हैं। जरा सोचिये जिस व्यक्ति को दो महीने से न तो वेतन मिला हो और न ही उसका काम धंधा खुला हो तो वह अपने नामचारे के रिहायशी मकान का किराया देने के बाद कहां से दाल-रोटी खायेगा। बेशक दावे किये जा रहे हैं कि मजदूरों के लिए ठहरने और खाने-पीने की सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं मगर फिर लोग सड़कों पर पैदल निकल कर साइकिलें खरीद कर सैकड़ों मील दूर अपने घरों की तरफ क्यों जा रहे हैं? सरकार ने 11 हजार करोड़ रुपए 28 राज्यों व छह संघ प्रशासित क्षेत्रों की सरकारों को दिया है कि वे इस पैसे का उपयोग करके मजदूरोंं के लिए अस्थायी शरण स्थल व भोजन की व्यवस्था करें। बड़े अदब से यह सवाल क्या पूछा जा सकता है कि यही धन सीधे मजदूरों के जन-धन खाते में क्यों नहीं जमा कराया जा सकता था? अगर और थोड़ी हिम्मत की जाती तो यह धनराशि 60 हजार करोड़ रुपए भी हो सकती थी और प्रत्येक गरीब मजदूर-कामगर परिवार के जन-धन खाते में पांच-पांच हजार रुपये जमा कराए जा सकते थे! लेकिन भारत का दुर्भाग्य यह है कि इस देश की नौकरशाही हमेशा इंडिया के बारे में सोचती रही है और भारत की फिक्र वह केवल तब करती है जब उसे खुद राजनीति में आना होता है। यह तो इस देश का सौभाग्य है कि इसे चाय बेचने वाला एेसा प्रधानमन्त्री मिला हुआ है जिसके दिल में गरीबों के लिए दर्द है मगर उस पूरी शासन व्यवस्था का क्या किया जाये जो पिछले 72 सालों से हिन्दोस्तान को इंडिया और भारत में बांटती चली आ रही है। मजदूर कोई भिखारी नहीं है कि उसे मुफ्त में कुछ गेहूं या चावल, दाल देकर कहा जाये कि चुप रहो और पेट भरो। भारत का यह कामगर और मजदूर तथा छोटा-मोटा काम धंधा करके अपना परिवार चलाने वाला यह तबका देश का सबसे साहसी और मेहनती वर्ग है जिसकी औलादें फौज से लेकर सुरक्षा बलों और पुलिस में भर्ती होकर देश पर मर मिटती हैं। खेत में जब किसान पसीना बहाता है और कोई कामगर फैक्ट्री में मेहनत करता है तो उसका ही बेटा सीमा पर चौकीदारी करता होता है। ये इस देश की सम्पत्ति हैं, कोई कर्ज नहीं। कर्ज तो वे लोग हैं जो बैंकों से मोटी-मोटी रकमें लेकर गड़प कर जाते हैं और आलीशान बंगलों में रहते हुए इन्हीं लोगों की मेहनत के बूते पर मौज उड़ाते हैं। इनमें राष्ट्रवादी जज्बा कूट-कूट कर भरा होता है मगर क्या कयामत है कि लाॅकडाऊन के दौरान इन्हें ही लावारिस समझा जा रहा है और अभी तक साढे़ पांच सौ से ज्यादा मजदूर सड़कों पर ही दम तोड़ चुके हैं। यह समझ लिया जाना चाहिए कि ‘इंडिया’ की रौनक ‘भारत’ से ही है क्योंकि भारत ही इस देश की संस्कृति की धरोहर को संभाले हुए है। इसी के बूते पर होली-दीवाली से लेकर ईद की रौनकें होती हैं। खुश किस्मती से ईद आने वाली है और उम्मीद करनी चाहिए कि तब तक लाॅकडाऊन की मनहूसियत से यह देश उबर चुका होगा। हम सोचें कि बर्क नजीबाबादी ने यह क्यों लिखा थाः
जश्ने होली, जश्ने दीवाली, या कि फिर हो जश्ने ईद
क्या मनाएंगे इन्हें जो हैं, चन्द रोटी के मुरीद !