भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा में इसकी जल सीमाओं का महत्व तो है ही मगर ऐतिहासिक काल से भारत की सम्पन्नता में इसका जल क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है। सम्राट अशोक के काल से लेकर मुगल काल तक समुद्र मार्ग के रास्ते व्यापार करने में भारतीय व्यापारियों का महत्ती योगदान रहा है। समुद्र भारत की सम्पन्नता में योगदान निभाते रहे परन्तु दुर्भाग्य से इसकी विपन्नता का कारण भी यही समुद्र बने जब डच, फ्रांसीसी व अंग्रेज व्यापारियों ने 17वीं सदी से भारत के साथ व्यापार करने को प्रमुखता दी और इसके वैभव का क्षरण करने के रास्ते अपनी व्यापारी रणनीतियों के तहत निकाले। वर्तमान में ‘हिन्द महासागर’ क्षेत्र को लेकर जिस तरह चीन व अमेरिका के बीच प्रतिस्पर्धा का माहौल बना हुआ है उसके वैश्विक आयामों को हमें इस तरह समझना होगा कि दुनिया के विश्व व्यापार परिवहन का बहुत बड़ा हिस्सा एशिया-प्रशान्त सागर क्षेत्र से ही होता है।
विश्व में जिस तरह की आर्थिक प्रतिद्वन्द्विता चल रही है उसमें चीन का एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में उदय होना अब कोई रहस्य नहीं रहा है और अमेरिका द्वारा इसे चुनौती देना स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानी जा रही है परन्तु इन दोनों के बीच भारत को अपनी स्थिति इस प्रकार महफूज रखनी है कि वह दोनों में से किसी के भी ‘जबर’ को रोक सके क्योंकि भारत भी अब दुनिया की बहुत तेजी से तरक्की करती अर्थव्यवस्था है। इसमें सबसे बड़ा तथ्य यह है कि चीन भारत का ऐसा पड़ौसी देश है जिसकी भारत के साथ छह तरफ से सीमाएं लगती हैं। अतः हम चीन की भारत के साथ जो रणनीति देख रहे हैं वह यह है कि चीन अपनी धौंस जमाने की गरज से भारत पर छह में से किसी एक या दो दिशा में दबाव बनाने का काम करने लगता है। वह ऐसा तब करता है जब उसे लगता है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रख कर विश्व के दूसरे देशों के साथ मिल कर हिन्द महासागर क्षेत्र में ऐसी युगलबन्दी कर रहा है जिससे चीन की धौंस को धत्ता दिया जा सके।
हिन्द-प्रशान्त क्षेत्र में भारत ने आस्ट्रेलिया, जापान व अमेरिका के साथ मिल कर ‘क्वाड’ नौसैनिक सहयोग संगठन बना कर पूरे हिन्द महासागर क्षेत्र को चीन के सामरिक केन्द्र बनने से रोकने का एक उपाय भर किया है जिससे चीन बार-बार परेशान होने लगता है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ‘वैश्विक सुरक्षा उपाय’ का मन्त्र जब दिया था तो यह सोचा था कि उनकी सामरिक सोच को विश्व के दूसरे देश बिना किसी तर्क के स्वीकार कर लेंगे मगर यह कैसे संभव हो सकता था क्योंकि चीन की अभी तक जो नीति रही है वह केवल अपने हितों के समक्ष दूसरे देशों के हितों की बलि देने की रही है। वह हिन्द व प्रशान्त महासागर क्षेत्र में युद्ध पोत तैनात करके अपनी ताकत के बूते पर मनमानी करने की रही है जिसके कई उदाहरण भी हमारे सामने हैं। दूसरी तरफ अमेरिका भी इस मामले में कम नहीं है उसने भी अरब सागर से लेकर खाड़ी के क्षेत्रों में अपने जंगी जहाजों के बेड़े तैनात कर रखे हैं। मगर चीन के उपविदेश मन्त्री ली-यू- चेंग ने हाल ही में ‘20 देशों के वैश्विक विचार मंच’ को सम्बोधित करते हुए यह चेतावनी दी कि अमेरिका यूरोपीय देशों के साथ मिलकर वैश्विक नाटो (ग्लोबल नाटो) का गठन करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहता है और एशिया प्रशान्त महासागर क्षेत्र को युद्ध के मैदान में बदलना चाहता है।
रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध का संज्ञान लेते हुए चीनी राजनयिक ने अमेरिकी रणनीति के सम्बन्धित अंगों की अपने तरीके से व्याख्या भी की। भारत की इस युद्ध के बारे में नीति बहुत स्पष्ट रही है कि वह शान्ति वार्ता के रास्ते से ही समस्या का हल चाहता है और रूस के साथ अपने दृढ़ व ऐतिहासिक रिश्तों पर भी आंच नहीं आने देना चाहता परन्तु अमेरिका इस मामले में जिस तरह समूचे यूरोपीय देशों की अगवाई करते हुए इस ‘युरोएशियाई’ इलाके को सुलगाये रखना चाहता है उससे दुनिया को सचेत रहने की जरूरत भी है। मगर भारत का इस सन्दर्भ में रुख जो रहा है वह बहुत दूरदर्शितापूर्ण रहा है। हिन्द महासागर क्षेत्र के बारे में 80 के दशक तक भारत की स्पष्ट नीति थी कि पूरे एशिया प्रशान्त महासागर क्षेत्र को ‘अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति क्षेत्र’ घोषित किया जाये। स्व. इदिरा गांधी के समय में ही जब दियेगो गार्शिया में अमेरिका परमाणु सैनिक अड्डा बनाना चाहता था तो उन्होंने इसका पुरजोर विरोध करते हुए शान्ति क्षेत्र घोषित करने की मांग अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर की थी। इसकी प्रमुख वजह यही थी कि एक बार इस क्षेत्र में सामरिक स्पर्धा शुरू होने पर उसे रोका नहीं जा सकेगा। हालांकि बाद दियेगो गार्शिया में सैनिक अड्डा बन गया और उसके बाद विश्व की राजनीति में बहुत परिवर्तन भी आ गया परन्तु सामरिक बखेड़ा शुरू करने का काम इसके बाद चीन ने ही शुरू किया। जिसकी वजह से क्वाड जैसे संगठन को बनाने की जरूरत पड़ी हालांकि भारत इसका सदस्य होने के बावजूद चीन के साथ अपने सम्बन्ध मधुर बनाये रखने पर ही जोर देता रहा। ली- यू-चेंग भारत में चीन के राजदूत भी रहे हैं अतः वह जानते हैं कि भारत की मंशा हमेशा से ही चीन के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाने की रही है। अतः अमेरिका के साथ अपनी बढ़ती प्रतिद्वन्द्विता के कारणों का स्वयं चीन को ही जवाब देना होगा। भारत हिन्द महासागर क्षेत्र में अपने जायज हक और वाजिब जिम्मेदारी से कैसे पीछे हट सकता है। बेशक भारत चीन व अमेरिका दोनों के बीच में तनाव समाप्त कराने की भूमिका के लिए उपयुक्त शक्ति हो सकता है।