इन्दिरा गांधी और जम्मू-कश्मीर - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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इन्दिरा गांधी और जम्मू-कश्मीर

आज 31 अक्टूबर से जो व्यवस्था जम्मू-कश्मीर राज्य में भाजपा से बने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी लागू कर रहे हैं उसका सिद्धान्ततः विरोध करने का अधिकार कांग्रेस को इसलिए नहीं है क्योंकि इसके दो यशस्वी नेताओं ने भी स्वयं कभी भी इसे कश्मीरियों के लिए अपरिहार्य नहीं बताया।

आज 31 अक्टूबर का दिन स्वतन्त्र भारत के इतिहास में दोहरा महत्व रखता है। पहला तो इस दिन 1984 में देश की तब तक की सर्वाधिक शक्तिशाली मानी जाने वाली प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी की कुछ मजहबी सिरफिरों ने हत्या कर दी थी और दूसरे 2019 में इस दिन से भारत का मुकुट कहा जाने वाला राज्य जम्मू-कश्मीर दो केन्द्र शासित राज्यों में विभाजित हो जायेगा। इन्दिरा जी की क्रूर हत्या के बाद भारत ने एक अजीब पागलपन का दौर देखा था जिसमें एक ही समुदाय के लोगों को निर्मम तरीके से हिंसा का निशाना बनाया गया था।
भारत की राजनीति के नियमित सिद्धान्तों में यह गिरावट का नया दौर था जिसका प्रतिफल बाद में भी कई स्थानों पर देखने को मिला परन्तु Zसे इंदिरा गांधी का गहरा नाता केवल उनके पिता पं. जवाहर लाल नेहरू के कश्मीरी होने की वजह से ही नहीं था बल्कि कश्मीर की सदियों से चली आ रही अलिखित धर्मनिरपेक्ष संस्कृति की सच्ची संवाहक होने से जुड़ा हुआ था। कश्मीरी माता-पिता (मां कमला कौल) की सन्तान होने के बावजूद उन्होंने एक पारसी पुरुष फिरोज गांधी से विवाह किया था। दरअसल इंदिरा गांधी ने जब 1974 के दिसम्बर महीने के अन्त में जम्मू-कश्मीर की नेशनल कान्फ्रेंस के नेता स्व. शेख अब्दुल्ला को राज्य की बागडोर सौंपते हुए समझौता किया था 
तो उनका लक्ष्य इस राज्य के भारतीय संघ में विलीनीकरण की उन रेखाओं को हल्का करना था जिनकी वजह से राज्य में अलगाववादी ताकतें मजहब की आड़ लेकर ‘आजादी’ की तहरीक को हवा देती रहती थीं।यह संयोग ही कहा जायेगा कि बाद में शेख साहब का राजनैतिक विरोध करने की जिम्मेदारी भी कांग्रेस ने ही संभाली  और दुर्भाग्य से उस समय इस पार्टी के नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद ने उस खाली स्थान को भरने का प्रयास किया जो दक्षिणी कश्मीर में शेख साहब के निकट सहयोगी मिर्जा अफजल बेग ने शेख अब्दुल्ला के जेल में रहते ‘जनमत संग्रह मोर्चा’ के जरिये बनाया था परन्तु इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी के मुख्यमन्त्री सैयद मीर कासिम को 1975 के जनवरी महीने में सत्ता से उतार कर जब शेख साहब को मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर बैठाया था तो वह इस राज्य में राजनैतिक गतिविधियों को पूरे शबाब पर देखना चाहती थीं जिससे अनुच्छेद 370 का असर मिटाने का काम खुद-ब-खुद राजनैतिक दल ही करें परन्तु 1984 में उनकी हत्या के बाद सब कुछ गड़बड़ा गया और उनकी जगह प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठे उनके पुत्र स्व. राजीव गांधी के शासनकाल में राज्य के हालात उलझ गये जिसका सर्वाधिक लाभ स्व. मुफ्ती मुहम्मद सईद ने ही उठाया और उन्होंने 1988 के लगभग कांग्रेस छोड़ कर अपनी नई पार्टी  पीडीपी बनाई। 
अतः आज 31 अक्टूबर से  जो व्यवस्था जम्मू-कश्मीर राज्य में भाजपा से बने प्रधानमन्त्री  नरेन्द्र मोदी लागू कर रहे हैं उसका सिद्धान्ततः विरोध करने का अधिकार कांग्रेस को इसलिए नहीं है क्योंकि इसके दो यशस्वी नेताओं ने भी स्वयं कभी भी इसे कश्मीरियों के लिए अपरिहार्य नहीं बताया। पं. नेहरू ने तो स्वयं इसके अस्थायित्व स्वरूप को अपने विद्वत उदार शब्दों में व्यक्त करते हुए संसद के भीतर ही कहा था कि ‘यह घिसते-घिसते घिस जायेगी।’ वहीं इंदिरा जी ने 1975 में केन्द्र की संविधान की शक्ति से आवेशित केन्द्र सरकार के अधिकारों का उपयोग करते हुए अपनी शर्तों पर शेख अब्दुल्ला से समझौता करके सिद्ध किया कि भारतीय संघ के हर भौगोलिक हिस्से की संरक्षक भारत की सरकार ही है। (इसका प्रमाण  इमरजेंसी के दौरान चंडीगढ़ जेल में बन्द स्व. जय प्रकाश नारायण का शेख अब्दुल्ला को लिखा वह पत्र है जिसमें उन्होंने शेख अब्दुल्ला से अधिक अधिकार लेने की अपेक्षा की थी)।
अतः अब विचारणीय मुद्दा यह होना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के दो राज्यों में विभक्त हो जाने के बाद प्रशासनिक व्यवस्था क्या रूप लेगी जिससे इन दोनों ही राज्यों के लोगों के जनतांत्रिक  अधिकारों का संरक्षण हो सके और उनका समुचित विकास हो सके। इस मामले में वित्तीय संरचनात्मक परिवर्तन बहुत महत्वपूर्ण होंगे जिनके बूते पर विकास की योजनाएं मूर्त रूप लेंगी। राज्य मूलक कानूनों का परिवर्तन केन्द्र की अधिसूचित सूची के अनुरूप होगा।
 जो अधिकार अभी तक जम्मू-कश्मीर के लोगों को नहीं मिल रहे थे विशेष रूप से महिला सशक्तीकरण व बाल संरक्षण और आरक्षण के सन्दर्भ में उन्हें लागू किया जायेगा। भूमि सम्बन्धी कानून भी केन्द्र के अनुरूप लागू होंगे और अनुसूचित जातियों व जनजातियों को भी उनके संविधान प्रदत्त अधिकार प्राप्त होंगे।इसके साथ ही जो भी कानून भारत की संसद से इस शर्त के साथ पारित होते थे कि ‘यह जम्मू-कश्मीर को छोड़ कर शेष पूरे देश में लागू होगा’ अब समान रूप से इन दोनों राज्यों के लोगों पर भी लागू होगा। कम से कम ऐसे  153 कानून हैं जो इस राज्य के लिए विशिष्ट थे, अब सभी मृत हो जायेंगे और 108 ऐसे  केन्द्र के कानून होंगे जो आज से लागू हो जायेंगे। यह बहुत बड़ा संरचनात्मक परिवर्तन है जो जम्मू-कश्मीर व लद्दाख क्षेत्रों में होगा। फिलहाल जरूरी यह है कि सरकार समूचे विपक्ष को इन मुद्दों पर एकजुट करके अपने साथ ले। 
इस बात पर विवाद करना कि मोदी सरकार ने किसी पूर्ण राज्य को दो अर्ध राज्यों में विभक्त करके उलटा काम किया है, इसलिए उचित नहीं है क्योंकि संसद मंे राज्य पुनर्गठन विधेयक पारित कराते हुए स्वयं सरकार ने कबूल किया था कि यह वक्त की जरूरत को देखते हुए किया जा रहा है, भविष्य में पूर्ण राज्य का दर्जा देने का विकल्प खुला हुआ है परन्तु विपक्ष को यह अधिकार है कि वह सरकार की खामियों की तरफ जनता का ध्यान आकृष्ट करे। अतः विभक्तीकरण कानून को लागू करते समय किसी भी प्रकार की कोताही न होने देना सरकार का ही दायित्व है। जहां तक राजनैतिक नुक्ताचीनी का प्रश्न है तो 1966 में असम को सात राज्यों में बांटने और पंजाब को तीन राज्यों में बांटने का विरोध उस समय के विपक्ष ने यह तक कह कर किया था कि इससे  देश कमजोर होगा। अतः लोकतन्त्र सभी प्रकार के विचारों को खपाने की अद्भुत क्षमता रखता है।

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