निर्वाचन आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के साथ ही आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द हो चुकी है। इस फैसले से दिल्ली की सियासत में तूफान आना स्वाभाविक है। विचारहीन, तर्कहीन और बेसिर-पैर की गैर-जिम्मेदाराना राजनीति करने वाली पार्टी का ऐसा हश्र होना कोई चौंकाने वाली बात नहीं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि मुख्यमंत्री केजरीवाल को न्यायालय से कोई राहत मिलती है या नहीं।
विधि विशेषज्ञों का मानना है कि राहत की संभावना लेशमात्र भी नहीं। चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को सौंपे 60 पृष्ठ के अपने फैसले में विस्तार से सदस्यता रद्द होने के कारण समझाए हैं। आप के पूर्व हो चुके विधायक भी अपने पक्ष में ठोस दलील नहीं दे पाए। आप ने इस फैसले के लिए सेवानिवृत्त हो रहे मुख्य निर्वाचन आयुक्त ए.के. जोती पर आरोप लगाकर अपना दामन साफ रखने की कोशिश की है लेकिन माना जा रहा है कि ‘आप’ के पास कानूनी लड़ाई के अलावा कोई ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं। न्यायपालिका के पास राष्ट्रपति के आदेशों पर पुनर्विचार का अधिकार तो है। कोर्ट यह जांच कर सकता है कि क्या फैसला दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम, 1991 का उल्लंघन तो नहीं। यदि न्यायालय पाता है कि आदेश बिना प्रक्रिया के जारी किया गया है या फिर उससे नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ है, तो वह आदेश को रद्द कर सकता है। फिलहाल 20 विधायक हाईकोर्ट का दरवाजा तो खटखटाएंगे। 20 विधायकों की सदस्यता रद्द करने संबंधी अधिसूचना जारी होने के बाद इन सीटों पर उपचुनाव होना निश्चित है।
आम आदमी पार्टी के भीतर सब-कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा। एक ओर जहां दो विधायक पार्टी से निलम्बित चल रहे हैं तो दूसरी ओर तीन विधायक ऐसे हैं जिन पर आरोप लगने के बाद मंत्री पद से हटाया गया था। पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक प्रख्यात कवि कुमार विश्वास विद्रोही तेवर अपनाए हुए हैं। भाजपा और कांग्रेस ने तो चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं और टी.वी. चैनलों ने तो 20 सीटों के सर्वेक्षण भी करा लिए हैं। सर्वेक्षणों में कहा गया है कि आप 20 में से 11 सीटें हार जाएगी। जिस पार्टी ने विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को पूरी तरह साफ कर दिया था और भाजपा के केवल तीन सदस्य ही जीत कर आए थे, उसके सामने 20 सीटों को बरकरार रखने की जबरदस्त चुनौती होगी। आप ने उपचुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो पार्टी के भीतर तोड़फोड़ हो सकती है, फिर विधायक भाजपा या कांग्रेस का रुख करेंगे। आप के भीतर एक वर्ग एेसा है जो चाहता है कि 20 सीटों पर उपचुनाव में जाने की बजाय मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर देनी चाहिए।
आप की राजनीति हमेशा मुठभेड़ की रही है और यही उसकी आक्रामकता है। इसके साथ ही आप ने हमेशा खुद को केन्द्र से पीड़ित पार्टी के तौर पर पेश किया है। केजरीवाल का दिल्ली के उपराज्यपाल से हमेशा टकराव बना रहा है। आप के सभी नेता एक सुर में कहते रहे हैं कि केन्द्र उनकी सरकार को कामकाज नहीं करने दे रहा, उपराज्यपाल केन्द्र के एजेंटों के तौर पर काम करते हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने खुद को आम आदमी की छवि में परिवर्तित किया था, जिसका लाभ भी उन्हें मिला। जिस तरह उन्होंने 49 दिन की सरकार से लोकपाल के नाम पर इस्तीफा दिया था, उसी तरह का नैतिक स्टैंड लेकर वह फिर विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर सकते हैं। केजरीवाल केन्द्र से पीड़ित अपनी सत्ता का त्याग कर मध्यावधि चुनाव का दांव खेल सकते हैं। केजरीवाल जबरदस्त भावनात्मक कार्ड खेल सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि जमीनी धरातल पर आप का वोट बैंक एकजुट है। आप नेताओं को भी लगता है कि वोट कम जरूर होंगे लेकिन पार्टी फिर से सरकार बना लेगी जबकि 20 सीटों के उपचुनाव में जाना जोखिम भरा हो सकता है।
नगर निगम चुनावों के बाद आप कार्यकर्ताओं में कुछ हताशा जरूर है। निगम चुनावों में उत्तरी दिल्ली में भाजपा को 64 सीटें मिली थीं जबकि आप को 21, दक्षिण दिल्ली में भाजपा को 70 और आप को 16 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस 12 सीटों पर सिमट गई थी। अगर निगम चुनावों के आधार पर अनुमान लगाया जाए तो ‘आप’ को आघात लग सकता है। केजरीवाल को चुनाव मैदान में उतरने के लिए पार्टी में असंतोष के स्वरों को शांत करना होगा, साथ ही इस बार भाजपा और कांग्रेस की चुनौती का भी सामना करना होगा। दिल्ली को अब 2013 के बाद से आम आदमी पार्टी की वजह से चौथी बार चुनाव का सामना करना पड़ेगा। दिल्ली नगर निगम चुनाव, गोवा, पंजाब आैर गुजरात चुनाव बुरी तरह हारने के बाद ‘आप’ के लिए जोखिम कोई कम नहीं हुआ। गुजरात में तो उसके सभी उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गई थीं। देश की राजधानी दिल्ली के इतिहास का सिरा महाभारत के समय तक जाता है। इंद्रप्रस्थ ने न जाने कितने राजाओं, महाराजाओं को देखा, राजधानी ने अनेक प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्री देखे, चौधरी ब्रह्मप्रकाश से लेकर आज तक अनेक मुख्यमंत्री देखे, इंद्रप्रस्थ की सियासत के अनेक रंग देखे। अब देखना यह है कि राजनीति की बिसात पर कौन नया दांव खेलता है।