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न्यायपालिका का बुनियादी ढांचा

देश के कानूनी तंत्र के बुनियादी ढांचे में सुधार और इसके रखरखराव अस्थाई और अनियोजित तरीके से किए जाने पर भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा ने नाराजगरी व्यक्त की है। न्यायपालिका के बुनियादी ढांचे में सुधार का मुद्दा कई वर्षों से चला आ रहा है। हालांकि अदालतों की समस्याएं कभी-कभार ही सामने आती हैं। देश की अदालतों में आधारभूत संरचनाओं और प्रशासनिक कर्मचारियों की कमी और बढ़ते लम्बित मामलों पर चिंता जताते हुए उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक बुनियादी सरंचना निगम स्थापित करने की आवश्यकता जताई है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश की जिला और निचली अदालतें ब्रिटिशकालीन हैं। उनमें जरूरी सुुविधाओं का अभाव है। न तो वादियों और प्रतिवादियों के लिए बैठने की जगह है और न ही वकीलों के लिए। इन अदालतों में महिला वकीलों के लिए जरूरी बुनियादी सुविधाएं ही नहीं हैं। 

अनेक अदालतों की इमारतें जर्जर हो चुकी हैं। ऐेसी खबरें सामने आती रही हैं कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण एक गेस्ट हाउस में चलता रहा। कुछ न्यायधिकरण अस्थबलों में चलते रहे। ग्रामीण अदालतों के पास स्टेशनरी नहीं। इनकी हालत तो गांवों के प्राथमिक स्कूलों से भी बदतर है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी अखिल भारतीय न्यायिक अधिकारी संगठन बनाम भारत संघ जैसे कई मामले सामने आए, जिन्होंने करोड़ों केसों का भार ढो रही सहायक न्यायपालिका की खस्ता हालत को जगजाहिर किया था। कभी अदालतें कुछ पहलुओं का अध्ययन करने के​ लिए न्यायाधीशों या कानून विशेषज्ञों की समिति का गठन करती रही हैं। इनकी रिपोर्ट भी विधि मंत्रालय को भेजी जाती रही हैं लेकिन यह भी लम्बित पड़ी अन्य फाइलों के ढेर में खो जाती रही हैं।

चीफ जस्टिस एन.वी. रमणा ने पिछले मही​ने भी यह कहा था कि उन्होंने अदालतों के लिए जरूरी बुनियादी सरंचनाओं के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की है और इसे वह जल्द ही विधि एवं न्याय मंत्री को सौंप देंगे। अब उन्होंने यह रिपोर्ट विधि मंत्रालय को भेज दी है। उम्मीद जताई जानी चाहिए कि रिपोर्ट में प्रस्तावित नेशनल जुडिशियल इंफ्रास्ट्रक्चर अथारिटी बनाने की प्रक्रिया जल्द शुरू होगी। 

अभी तक यह एक धारणा है कि देश की अदालतें पुराने ढांचे पर ही चलती हैं। ऐसे लचर ढांचे में पूरी क्षमता और असरदार ढंग से काम करना मुश्किल होता है। अदालतों के ढांचागत विकास से न्याय के लिए गुहार लगाने वाले फरियादियों की पहुंच आसान होती है। न्याय की राह आसान होती है। अदालतों को भी आर्थिक रूप से स्वायत्त होना चाहिए। अगर अदालतों का ढांचा ही दुरुस्त नहीं होगा तो लम्बित मामलों और निपटाए जाने वाले मुकदमों की खाई नहीं पार सकते। देश में सिर्फ 54 फीसदी अदालतों में ही पीने के साफ पानी की व्यवस्था है। केवल पांच फीसदी कोर्ट परिसरों में ही​ चिकित्सा की सुविधा है। अलग से रिकार्ड रूम तो सिर्फ 32 फीसदी अदालतों में है। अभी तक सिर्फ 27 फीसदी कोर्ट में हीज जों की टेबल पर कम्यूटर लगे हैं। 73 फीसदी जजों की टेबल पर तो फाइलों का अम्बार नजर आता है। मानसून के​ दिनों में जिला अदालतों और ग्रामीण अदालतों की छतें टपकने लगती हैं। अदालत परिसरों में पानी खड़ा हो जाता है और कामकाज ठप्प हो जाता है।​ जिस तरह बजट में हर मद के लिए धन का वार्षिक आवंटन किया जाता है उसी तरह न्यायिक तंत्र के लिए भी बजटीय आवंटन होना चाहिए। 

देशभर में हाईकोर्टों और निचली अदालतों में जजों की भारी कमी है। सुप्रीम कोर्ट कालेजियम लगातार नामों की सिफारिश कर रही है। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट का ही देख लीजिए। जजों के 85 पद मंजूर होने के बावजूद केवल 45 जज कार्यरत हैं। हाईकोर्ट को इस समय 40 जजों का इंतजार करना पड़ रहा है। जिसके चलते लोगों को तारीख पर तारीख मिल रही हैं। जजों की कमी के चलते पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में लम्बित मामलों की संख्या 4 लाख तक पहुंच गई है। जजों की कमी की सूची में इलाहाबाद हाईकोर्ट पहले स्थान पर है। जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया बहुत धीमी है। देश में जजों के 1098 स्वीकृत पद हैं, इनमें से 471 पद रिक्त पड़े हैं जो कुल पदों का करीब 43 फीसदी है। सुप्रीम कोर्ट को हाईकाेर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए समयबद्ध प्रक्रिया तय करनी चाहिए। समस्याएं और भी हैं। अगर कालेजियम जिन लोगों के नाम बतौर जज नियुक्ति के लिए भेजती है तब उनके खिलाफ झूठी या सच्ची शिकायतों को भेजने का सिलसिला शुरू हो जाता है। जो उनके नाम पर स्वीकृति की प्रक्रिया में देरी का बड़ा कारण बनता है। जजों की नियुक्ति बहुत सोच-समझ कर की जाती है इसलिए समय तो लगता ही है। सुप्रीम कोर्ट का कालेजियम तब तेजी से जजों की नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश कर रहा है और सरकार उन नामों को स्वीकृति भी दे रही है। लम्बित केसों के बोझ के बावजूद न्यायपालिका हर स्तर पर एतिहासिक फैसले दे रही है और देश के लोगों का भरोसा न्यायपालिका पर कायम है। न्यायाधीशों ने समय-समय पर ऐसे फैसले ​दिए हैं जो हमेशा के​ लिए नजीर बन गए हैं।

न्य​ायिक तंत्र के बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने के​ लिए लगातार प्रयास किए जाने चाहिए। अभी तक अदालतों के ढांचागत विकास और सुविधाएं अस्थाई और अनियोजित ढंग से ही उपलब्ध कराई गईं। अब जरूरत है कि नेशनल जुडीशियल इंफ्रास्ट्रक्चर अथार्टी बने जो अदालतों की जरूरतों को देखकर योजनाबद्ध तरीके से काम करें।

आदित्य नारायण चोपड़ा

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