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लोकतन्त्र की ‘अजेय’ जनता

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लोकतन्त्र में कभी भी कोई नेता इतना शक्तिशाली नहीं होता कि उसे ‘अजेय’ कहा जा सके। इसकी वजह यह होती है कि लोकतन्त्र में नेता की अपनी कोई ताकत नहीं होती क्योंकि उसकी जो भी शक्ति होती है वह उसे जनता से ही प्राप्त होती है। इसके साथ ही लोकतन्त्र का दूसरा सबसे बड़ा गुण यह होता है कि इसमें जनता कभी भी डरती नहीं है बल्कि जब भी डरता है नेता ही डरता है। यह डर हमेशा उसे जनता का रहता है। जिस दिन नेता के दिल से जनता का डर समाप्त हो जाता है उस दिन वह नेता नहीं बल्कि ‘हुक्काम’ हो जाता है जिसे किसी कानून या कायदे की परवाह नहीं होती और वह खुद को रियाया (जनता) का मालिक समझ लेता है। लोकतन्त्र में असल हुक्काम केवल संविधान होता है और हुकूमत में बैठे हर किसी नेता को संविधान के बताये कायदे के अनुसार काम करते हुए राज-काज का काम संभालना पड़ता है और साबित करना पड़ता है कि उसका हर काम संविधान के नुक्तों पर खरा उतरने वाला है।

अतः लोकतन्त्र में यदि कोई अजेय होता है तो वह केवल जनता ही होती है। यदि गौर से देखा जाये तो नेता को जनता का डर इसलिए रहता है कि वह हुक्काम होकर भी उस संविधान का गुलाम होता है जिसमें आम जनता को ही अंतिम रूप से मुल्क का मालिक बनाया गया है और कहा गया है कि उसके पास जो एक वोट का अधिकार है उसी के माध्यम से हुकूमत की बागडोर उसकी मनपसन्द की सियासी पार्टी के नेता के हाथ में दी जायेगी और इस तरह दी जायेगी कि हर पांच साल बाद लोकसभा में चुनकर आने वाले नये सदस्य ही अपने नेता का चुनाव करेंगे। आज पूरे देश के 11 राज्यों और एक केन्द्र शासित राज्य की 95 लोकसभा सीटों पर मतदान हुआ जिसमें 23 मई को पता चलेगा कि किस पार्टी के किस नेता के भाग्य का सितारा चमकेगा।

इस मुल्क में हर राजनैतिक दल की सरकार में हुकूमत केवल संविधान की रहे इसका इंतजाम हमारे पुरखों ने आजादी मिलने के समय संविधान सभा में लम्बी-लम्बी बहसें करके इस तरह पुख्ता किया था कि भविष्य में कभी भी कोई पार्टी या उसका नेता खुद को जनता की ताकत से ऊपर मानने की भूल करके खुद को संविधान की जगह हुक्काम न मान बैठे। इसके लिए उन्होंने ऐसी संवैधानिक स्वतन्त्र संस्थाएं बनायीं जो सरकार की परवाह किये बिना अपना काम बेखौफ होकर इस तरह करेंगी कि असली मालिक आम जनता ही बनी रहे और हुकूमत में आने के लिए हर पांच साल बाद हर पार्टी को जनता की अदालत में पेश होना पड़े। साथ ही ऐसी स्वतन्त्र न्याय प्रणाली की स्थापना भी हमारे पुरखाें ने की कि वह हर वक्त हर मुद्दे की पड़ताल करती रहे कि लोगों द्वारा बनाई गई सरकार संविधान के अनुसार काम कर रही है या नहीं।

संवैधानिक मामलों पर न्यायपालिका को इस कदर मजबूत बनाया गया कि यह जनता द्वारा चुनी गई सबसे बड़ी पंचायत संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को भी संविधान की कसौटी पर कस सके। यह नायाब तोहफा हमें भारत को अंग्रेजों की दो सौ साल पुरानी दासता से छुड़ाने वाली कांग्रेस पार्टी के महान नेताओं ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में दिया जिसे गांधी बाबा ने एक दलित के होनहार बेटे बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर से लिखवा कर पूरी दुनिया को बताया कि नया भारत राजे-रजवाड़ों और सामन्तों व धन्ना सेठों का भारत नहीं बल्कि गरीब-गुरबा का भारत होगा जिसमें एक कपड़ा बुनकर और कपड़ा मिल मालिक के अधिकार बराबर होंगे मगर सत्तर साल बीतते-बीतते इसमें ऐसा विकार पैदा होता नजर आ रहा है जिसमें चन्द पूंजीपति और धन्ना सेठ फिर से इस मुल्क का मालिक बनना चाहते हैं और गरीब-गुरबों को अपनी जूठन परोस कर उनकी औलादों को अपना गुलाम ही बनाये रखना चाहते हैं।

भारत आज दुनिया का सबसे युवा देश माना जाता है जिसकी 60 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। अतः इसी आबादी का यह पहला फर्ज बनता है कि वह भविष्य के भारत की जैसी चाहे वैसी नींव डाले और विभिन्न राजनैतिक दलों को इन चालू चुनावों में अपने वोट का इस्तेमाल करके बताये कि उसके ख्वाब क्या हैं? इस युवा वर्ग को सबसे पहले यह बताना होगा कि भारत को जाति-बिरादरी और ऊंच-नीच व हिन्दू-मुसलमान के दायरे में बांटकर देखने वाले लोगों की पुरातनपंथी रूढ़ीवादी सोच चलेगी या पूरे देश के युवकों को एक शक्ति स्तम्भ मानकर राष्ट्र का विकास करने की गांधी व अम्मेबडकरवादी सोच चलेगी। मानवीय समस्याओं का साम्प्रदायीकरण करके क्या हम उस देश का विकास कर सकते हैं जिसमें विभिन्न संस्कृतियों का संगम हो और सैकड़ों भाषाओं का संवाहन हो और विविध प्रकार के खानपान का प्रचलन हो? क्या हमें उस भारत की प्राचीनतम धरोहर को हरा-भरा रखकर नये वैज्ञानिक युग में प्रवेश करना होगा जिसके केरल राज्य में ईसाई धर्म का आगमन यूरोप से भी पहले हुआ था और इस्लाम की पहचान अरब देशों के समानान्तर ही बनी थी।

क्या यह देश आतंकवाद जैसी समस्या को भी मजहब के दायरे में बांध कर देखने की गलती कर सकता है? मगर चुनावी मौसम में ये भेद मिटते नजर आ रहे हैं और कल के भेड़ियों को भेड़ बनाकर प्रस्तुत करने की हिमाकत तक की जा रही है। व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई ने बहुत पहले लिखा था कि भेडि़यों को भेड़ों का पहरेदार बनाकर जब से चलन शुरू हुआ तभी से भेड़ें मुंडी हुई ही पैदा होने लगीं इसलिए बाल बिकने का खतरा भी जाता रहा।

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