‘आदमी’ से ‘इंसान’ होना जरूरी - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

‘आदमी’ से ‘इंसान’ होना जरूरी

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री मोहन भागवत ने मानव मात्र की उन संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयास किया है जो उसे ‘आदमी’ से ‘इंसान’ बनाती हैं

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक श्री मोहन भागवत ने मानव मात्र की उन संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयास किया है जो उसे ‘आदमी’ से ‘इंसान’ बनाती हैं। हम छठी कक्षा से ही पढ़ते आ रहे हैं कि मानव एक सामाजिक प्राणी (सोशल एनीमल) है। वह मनुष्य तभी कहलाता है जब वह अपने भीतर की संवेदनाओं को जागृत करके समस्त समाज के लिए उपयोगी बनता है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर या प्रकृति ने मानव या आदमी को जो मस्तिष्क या दिमाग दिया है वह उसका प्रयोग करके इस पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणियों व चर-अचर को समाज के लिए उपयोगी बनाता है। विज्ञान के अनुसार उसमें और पशु में केवल इतना अन्तर ही होता है कि समाज के विभिन्न प्राणियों के बीच रहते हुए ऐसा  सामंजस्य स्थापित करता है जिससे उसका अस्तित्व न केवल निश्चिन्तता की तरफ बढ़ सके बल्कि प्रकृति से लेकर अन्य प्राणियों के बीच भी अस्तित्व का संकट पैदा न हो सके। सभ्यता के विकास का यही सिद्धान्त है और इसी सौपान पर चढ़ कर मानव मनुष्य या इंसान बनता है। इसी वजह से दार्शनिक शायर मिर्जा गालिब ने आज से डेढ़ सौ वर्षों से भी पहले यह लिखा था कि,
‘‘बस कि दुश्वार है हर काम का ‘आसां’ होना, 
आदमी को भी मयस्सर नहीं ‘इसां’ होना।’’
श्री भागवत के कथन को कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम नेता जिस साम्प्रदायिक चश्मे से देखने की कोशिश में यह भूल रहे हैं कि आदमी और जानवर में मूलभूत अन्तर विज्ञान के अनुसार केवल खाना-पीना, सोना और अपनी तादाद बढ़ाना नहीं होता बल्कि समाज को नवीन विचारों से ओत-प्रोत कर उसे आगे बढ़ना होता है। 
जनसंख्या वृद्धि ऐसा ही मसला है जिस पर मनुष्य स्वयं ही नियन्त्रण कर सकता है क्योंकि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रतिफल होता है। आदमी और इंसान में मूलभूत अन्तर यही है कि वह अपनी आवश्यकताओं को समय के अनुसार बढ़ा भी सकता है और उन्हें घटा भी सकता है जबकि पशुओं में यह कला नहीं होती क्योंकि वे दिमाग का इस्तेमाल करने में असमर्थ होते हैं। मनुष्य पशुओं को अपना पालतू बना कर उनमें अपने निर्देशानुसार काम करने के क्षमता तो पैदा कर सकता है परन्तु अपने जैसा नहीं बना सकता क्योंकि दिमाग का पूरा इस्तेमाल करने के योग्य नहीं होते। पशु अपनी प्रकृति प्रदत्त आदतों के नियन्त्रण में  ही रहना चाहता है  और प्रकृति उसमें प्रजनन क्षमता भर कर ही पृथ्वी पर उतारती है। इस क्षमता का उपयोग वह हर सुअवसर मिलने पर करता है। हर पशु का प्रजनन करने का एक मौसम भी होता है। परन्तु मनुष्य अपनी इस क्षमता का उपयोग सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों को देख कर ही करता है। जो मनुष्य इस सिद्धान्त का पालन नहीं करते उनमें और पशुओं में फिर कोई अन्तर नहीं रहता। परन्तु हर बात पर भगवान या अल्लाह की दुहाई देने वाले लोग भूल जाते हैं कि वे जिस देश में रहते हैं, उसके प्रति भी उनकी जिम्मेदारी होती है और किसी भी देश की तरक्की उसके साधनों व आय स्रोतों व प्राकृतिक सम्पदा पर निर्भर करती है। किसी भी देश की भौगोलिक सीमाएं सुनिश्चित होती है। 
भारत अपनी  भौगोलिक सीमाओं के भीतर बसे हर धर्म व सम्प्रदाय और समुदाय के लोगों का देश है (टेरीटोरियल स्टेट)। अतः देश की सरकार जो भी नियम-कानून बनाती है वह हर वर्ग के लोगों पर एक समान रूप से लागू होता है। परन्तु आजादी के बाद से ही भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि इस्लाम धर्म को मानने वाले मुसलमान नागरिकों के लिए उनके घरेलू कानूनों में विशेष छूट दी गई और उन्हें अपने मजहब के कानून ‘शरीया’ का आंशिक पालन करने की अनुमति दी गई। धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले भारत की यह सबसे बड़ी सामाजिक विसंगति है जिसकी वजह से जब भी सरकार कोई सामाजिक कानून लाती है तो इस मजहब के मुल्ला-मौलवी और उलेमा उसकी व्याख्या अपने मजहब के हवाले से करने लगते हैं और हर बात पर हिन्दू-मुसलमान का सवाल खड़ा कर देते हैं। उनके मजहबी ठेकेदार उन्हें गफलत में भी आसानी से केवल इस वजह से डाल देते हैं क्योंकि किसी भी प्रगतिशील कदम के विरोध में वे ‘अल्लाह हो अकबर’ का नारा बुलन्द करके मुसलमानों की स्थिति को जड़वत बनाये रखना चाहते हैं जिससे मजहब के ठेकेदारों की दुकानदारी चलती रहे और आम मुसलमान में तार्किक बुद्धि जागृत न हो सके। यही वजह है कि मुस्लिम उलेमों ने तीन तलाक कानून का भी ऊल-जुलूल तर्क करके विरोध करने की कोशिश की और संसद द्वारा बनाये गये इस तीन तलाक कानून को सर्वोच्च न्यायालय में भी चुनौती दी। 
जब किसी मनुष्य की निजी जिन्दगी की रवायतों को मजहब से बांध दिया जाता है तो उसमें उसके विरोध की शख्ति स्वयं ही समाप्त हो जाती है। दुर्भाग्य से मुस्लिम समाज में यही रवायत तीन तलाक को लेकर चली आ रही थी जिससे इस समाज की महिलाएं नर्क की जिन्दगी जीने के लिए मजबूर हो जाती थीं। नारी को जो समाज सिर्फ बच्चे पैदा करने वाली मशीन समझता हो सर्वप्रथम उसे ही यह समझाने की जरूरत है अल्लाह या खुदा ने ही महिला को बनाया है और वह भी मनुष्य होने का हक रखती है। बिना शक जनसंख्या का सम्बन्ध शिक्षा से हैं मगर जब मुस्लिम समाज में सिर्फ धार्मिक शिक्षा देने वाले मदरसों पर ही जोर दिया जायेगा तो इनसे निकलने वाले छात्र पिछली सदियों की सोच लेकर समाज में आयेंगे। शिक्षा पर ही यदि जोर देना सबसे पहले मदरसों को स्कूलों में बदला जाना चाहिए और मौलवियों की जगह प्रशिक्षित अध्यापकों की नियुक्ति की जानी चाहिए और पाठ्यक्रम को पूरी तरह बदल दिया जाना चाहिए। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में मजहबी मदरसों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए , साथ ही अन्य अल्पसंख्क स्कूलों के पाठ्यक्रम को भी सामान्य स्कूलों जैसा बनाया जाना चाहिए। इसके लिए यदि संविधान संशोधन की जरूरत पड़े तो उसे भी शीघ्र किया जाना चाहिए क्योंकि एक देश में दो प्रकार के नागरिक हम तैयार नहीं कर सकते। धार्मिक शिक्षा के लिए घर हैं। स्कूलों में सांस्कृतिक शिक्षा एक समान रूप से प्रदान की जानी चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

2 × four =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।