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संसद में गतिरोध टूटना जरूरी

भारत की संसदीय प्रणाली के लोकतन्त्र में संसद इस प्रकार सार्वभौम है कि इसके ऊपर संविधान के मूल ढांचे को बनाये रखने का दायित्व है। अतः लोकतन्त्र के सभी आधारभूत स्तम्भों को सतत् जीवन्त बनाये रखने की जिम्मेदारी भी इसके कन्धों पर है। इसलिए जब भी संसद में गतिरोध बनता है तो उसके असर से पूरी लोकतान्त्रिक प्रशासनिक व्यवस्था जड़वत स्थिति में पहुंच जाती है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद के भीतरी ढांचे को इसीलिए सत्तारूढ़ सरकार से निरपेक्ष रखने की प्रणाली अपनाई जिससे राजनैतिक आधार पर गठित संसद के भीतर जो भी कार्य हो वह पूर्णतः पारदर्शी तरीके से हों और इसके सदस्य सभी सांसदों के अधिकार एक समान हों। संसद के दोनों सदनों लोकसभा व राज्यसभा के अध्यक्षों को संसद की कार्यवाही को न्यायिक समीक्षा से ऊपर रखने हेतु ही न्यायिक अधिकार भी दिये गये और उन्हें सांसदों के अधिकारों का संरक्षक भी बनाया गया। अपने अधिकारों का प्रयोग करते समय उन्हें सरकार की सत्ता के प्रभाव से भी विमुक्त रखा गया और संसद की कार्यवाही चलाने के नियमों का उन्हें प्रतिष्ठाता बनाया गया। अतः कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी के लन्दन में दिये गये जिस बयान को लेकर संसद में गतिरोध बना हुआ है उसे संसदीय कार्यवाही के नियमों के तहत दोनों सदनों के अध्यक्षों को मिले सर्वाधिकारों से जोड़ कर देखना होगा। यहां यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है कि सत्तारूढ़ दल और विरोधी दलों के बीच बंटी संसद में सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। 

विपक्षी दल सरकार का विरोध केवल अपना विरोध दर्ज कराने के लिए न कर सकें और सत्तारूढ़ दल केवल अपनी हुकूमत का रुआब दिखाने के लिए संसदीय कार्यवाही को अपने कब्जे में लेने के लिए न कर सके, इसके लिए सदनों के अध्यक्षों को न्यायाधीश की भूमिका दी गई जिससे वे यह फैसला कर सकें कि कोई भी पक्ष अपने दायित्व से न भाग सके। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों में सत्तारूढ़ दल यह मांग कर रहा है कि राहुल गांधी पहले लन्दन में दिये गये अपने बयान पर माफी मांगें और विपक्षी दल यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें दोनों सदनों के नियमों के अतर्गत स्थागन प्रस्ताव रखने की अनुमति दी जाये जिससे वे अपने मुद्दों पर संसद में बहस कर सकें, उससे संसद की सार्वभौमिकता ही विवाद में आती लग रही है। संसद के हर सदस्य को इसके भीतर अपने विचार रखने की छूट है, बशर्ते अध्यक्ष इसकी अनुमति प्रदान करें और वह कार्यवाही के नियमों से बंधे होते हैं। इन्हीं नियमों के तहत वह किसी भी सांसद को अपना वक्तव्य या विचार रखने की अनुमति देते हैं। 

श्री राहुल गांधी के मामले में सत्तारूढ़ पक्ष के सांसदों ने बढ़त ले ली है और उन्होंने दोनों सदनों में उन पर आरोप लगाये हैं कि लन्दन में दिया गया उनका बयान देश की तौहीन करने वाला है अतः वह पहले माफी मांगे। मगर राहुल गांधी मांग कर रहे हैं कि संसद की कार्यवाही की नियमावली के अनुसार उन्हें अपने ऊपर लगाये गये आरोपों का स्पष्टीकरण देने के लिए समुचित अवसर दिया जाये क्योंकि उनके ऊपर आरोप सत्तारूढ़ दल के जिन सदस्यों ने लगाये हैं उनमें चार तो मन्त्री हैं। पेंच यहीं आकर फंसता है क्योंकि राहुल गांधी के बयान की संसद में तसदीक हुए बिना उन्हें दोषी सिद्ध नहीं किया जा सकता और विपक्ष यह मांग भी कर रहा है कि लोकसभा के नियमों के अनुसार इस मामले में कार्रवाई हो। अर्थात जो भी बयान राहुल गांधी ने दिया है आरोप लगाने वाले संसद सदस्य उसका सत्यापन भी करें। मगर राहुल गांधी लोकसभा के साधारण सदस्य हैं। संसद से बाहर वह कोई भी वक्तव्य देने के लिए स्वतन्त्र हैं। यदि विदेश में दिये गये उनके किसी बयान में राष्ट्र अवहेलना का भाव है तो संसद में उसकी तसदीक किये जाने का अधिकार किसी भी अन्य संसद सदस्य को है। मगर यह सिद्ध करने के लिए भी उन्हें संसद में बोलने का अवसर दिया जाना इसलिए जरूरी है जिसके संसद के अध्यक्ष किसी नतीजे पर पहुंच सकें और उन सांसदों की मांग पर विचार कर सकें जो उनसे माफी मांगने की मांग कर रहे हैं। राहुल गांधी के मुद्दे पर सत्तापक्ष और विपक्ष का अपना-अपना राजनैतिक गणित हो सकता है मगर इस मुद्दे पर संसद को ही अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता क्योंकि अंत में संसद के भीतर ही यह तय हो सकता है कि राहुल गांधी का वक्तव्य किस श्रेणी में रखा जाये। अतः संसद के गतिरोध को तोड़ने के लिए अब दोनों सदनों के अध्यक्षों को ही अग्रणी भूमिका निभानी होगी और सत्तापक्ष व विपक्ष के नेताओं को संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए बाध्य करना होगा।

 सवाल उठना लाजिमी है कि जब संसद में विधेयक शोर- शराबे के बीच ही पारित हो जाते हैं तो यह ऐसा बड़ा मुद्दा नहीं है जिस पर संसद की कार्यवाही को लगातार लम्बित रखा जाये। यह मामला जितना लम्बा खिंचेगा उतना ही लोकतन्त्र का नुक्सान होगा और भारत की जनता यह सोचने पर मजबूर होगी कि संसद केवल नारेबाजी का अखाड़ा बनती जा रही है। संसद की गरिमा को बनाये रखने की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ व विपक्ष दोनों की ही है क्योंकि इसी वर्ष के भीतर भारत में जी-20 देशों का सम्मेलन हो रहा है और शंघाई में सहयोग संगठन के देशों की बैठक भी होनी है। हम लगातार यह उद्घोषित करते हैं कि भारत लोकतन्त्र की जननी है अतः भारत के 130 करोड़ से अधिक लोगों की चुनी हुई सबसे बड़ी संस्था संसद से इसकी प्रतिध्वनी की गूंज पूरे विश्व को सुनाई देनी चाहिए। अतः विपक्ष व सत्तापक्ष को अपना विवाद जल्दी से जल्दी समाप्त करना चाहिए।