आगामी किश्तों में मैं लालाजी द्वारा 2 फरवरी 1977, 20 नवम्बर 1978, 8 फरवरी 1979 और 24 नवम्बर 1980 के सम्पादकीय पेश कर रहा हूं। आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि लालाजी की लेखनी किस कदर शेख अब्दुल्ला के विरुद्ध चलती थी।
जमाने की नैरंगियां- शेख की नई करवट
आलेख-2 फरवरी 1977
लालाजी ने अपने इस आलेख में लिखा है- शेख अब्दुल्ला गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर हैं। जब जम्मू-कश्मीर में महाराजा हरि सिंह का राज था तो शेख साहिब ने एक मुस्लिम मजलिस खड़ी की थी और एक साम्प्रदायिक नेता के रूप में अपना राजनीतिक जीवन आरंभ किया था तथा जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों के अंदर साम्प्रदायिकता की भावनाएं बुरी तरह उभारी थीं।
इस अवसर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दंगे भी हुए थे। जब महाराजा हरि सिंह ने उनके इस आंदोलन को फेल करके दिखा दिया तो फिर उन्होंने रंग बदला और जम्मू-कश्मीर में प्रजा मंडल की तरह नेशनल कांफ्रेंस की बुनियाद रखी और स्व. पं. नेहरू को इस बात का विश्वास दिलाया कि महाराजा हरि सिंह साम्प्रदायिक हैं और हम जम्मू-कश्मीर में धर्मनिरपेक्षता का प्रचार करके महाराजा के शासन से मुक्ति पाना चाहते हैं। पं. नेहरू उनकी बातों में आ गए और उन्हें अपना समर्थन दे दिया। हालांकि सरदार पटेल और अन्य नेता इसके विरुद्ध थे।
एक अन्य जगह लालाजी ने लिखा है, “एक जमाना था कि शेख अब्दुल्ला श्रीमती इंदिरा गांधी की बेहद तारीफ किया करते थे और कहा करते थे कि यदि भारत में लोकतंत्र बचा है तो वह केवल श्रीमती इंदिरा गांधी की बदौलत ही बचा है। यदि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में जीत जाती तो उन्होंने कांग्रेस के गुण गाकर मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने का पूरा प्रयत्न करना था परंतु आज परिस्थितियां बदल गई हैं। जनता पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ हो गई है इसलिए अब शेख अब्दुल्ला ने कांग्रेस का राग अलापना बंद करके जनता पार्टी की डफली बजाना शुरू कर दिया है।”
राष्ट्रपति जी! भेस बदलकर स्थिति का अवलोकन करें
आलेख-8 फरवरी 1979
लालाजी अपने इस आलेख में लिखते हैं- कुछ समाचार पत्रों में भारत के राष्ट्रपति श्री नीलम संजीवा रेड्डी ने एक बयान में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला की प्रशंसा में धरती और आकाश को एक करके रख दिया है। राष्ट्रपति ने नई दिल्ली के पोस्ट मिनी ऑडीटोरियम में जम्मू-कश्मीर के सांस्कृतिक दल द्वारा प्रस्तुत एक सांस्कृतिक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि शेख अब्दुल्ला के इस संदेश कि यदि देश समृद्ध है तो हम समृद्ध हैं, को देश के कोने-कोने में पहंुचाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि शेख साहिब के मार्गदर्शन में जम्मू-कश्मीर के लोग शानदार सांस्कृतिक सम्पदा और साम्प्रदायिक एकता को बदल देने के काम में जुटे हैं।
अपने भाषण में एक जगह राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि शेख अब्दुल्ला कश्मीर के ही नहीं बल्कि सारे भारत के शेर हैं और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है। लालाजी लिखते हैं- मैंने जब राष्ट्रपति महोदय का यह बयान पढ़ा तो मुझे बेहद दुख हुआ क्योंकि एक ओर जम्मू-कश्मीर की सीमा पर स्थित पुंछ का वह क्षेत्र, जो हर समय पाकिस्तानी गोलियों और गोलों की लपेट में रहता है, बुरी तरह आग से जल रहा है और दूसरी ओर राष्ट्रपति महोदय शेख अब्दुल्ला को यह कहने की बजाय कि वह इस आग को बुझाएं उनकी निराधार प्रशंसाओं के पुल बांध रहे हैं।
कांग्रेस को नहीं नैशनल कांफ्रेंस को समाप्त किया जाए
आलेख-24 नवम्बर 1980
पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने एक अंग्रेजी पाक्षिक ‘नई दिल्ली’ को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि जम्मू-कश्मीर में इंदिरा कांग्रेस को समाप्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि इंदिरा कांग्रेस और नैशनल कांफ्रेंस एक ही विचारधारा की 2 पार्टियों का होना कोई अर्थ नहीं रखता। उन्होंने यह भी कहा कि नैशनल कांफ्रेंस के लिए प्रदेश के लोगों में एक भावनात्मक लगाव है। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप नैशनल कांफ्रेंस में ही प्रदेश की इंदिरा कांग्रेस को मिलाने की बात से सहमत हैं तो उन्होंने कहा कि हम केवल उन्हीं इंदिरा कांग्रेसियों को नैशनल कांफ्रेंस में शामिल करेंगे जिन्हें जनता का सम्मान और विश्वास प्राप्त हो।
आलेख में एक जगह लालाजी लिखते हैं- मैंने जब इंदिरा कांग्रेस के नेताओं का बयान पढ़ा तो मुझे बहुत हैरानी हुई। मुझे लगा कि अब इंदिरा कांग्रेस के नेता अपनी गलती को महसूस करने लगे हैं। अगर श्रीमती गांधी सैयद मीर कासिम को कश्मीर विधानसभा में कांग्रेस का पूर्ण बहुमत और नैशनल कांफ्रेंस का एक भी सदस्य न होने के बावजूद हटाकर शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का सर्वेसर्वा न बनातीं तो आज यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती। मेरी राय में शेख साहिब की जिंदगी का एक ही मिशन है कि जैसे भी हो वह जम्मू-कश्मीर के सुल्तान बन जाएं और उनके बाद जम्मू-कश्मीर में उनके ही वंश के लोग वहां का शासन चलाते रहें।