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जय ‘भारत’–जय ‘भारती’

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लोकसभा चुनाव सर पर आ गए हैं, यह मुल्क की फिजां इस तरह बता रही है कि हर तरफ राजनीतिक तोते रटी-रटाई भाषा बोलने लगे हैं। लोकतन्त्र में चुनाव केवल सरकार बदलने या नई सरकार बनाने के लिए नहीं होते हैं बल्कि आम जनता को राजनीति के मायने बताने के ​लिए भी होते हैं। सत्ता और विपक्ष के इस खेल में आम मतदाता न्यायाधीश का काम इस तरह करता है कि वह दूध का दूध और पानी का पानी अलग कर दे। इसी न्यायाधीश की अदालत में सियासी पार्टियां अपने सबूत पेश करके खुद के लिए इंसाफ मांगती हैं मगर बात तब बिगड़ जाती है जब इन्हीं सबूतों को झुठला देने की कवायद इस तरह शुरू होती है कि न्यायाधीश खुद चक्कर में पड़ जाए। इसका जीता-जागता प्रमाण महाराष्ट्र राज्य है जहां शिक्षा के अधिकार से लाभान्वित गरीब आदमी के बच्चों के हिस्से का खर्चा देने से राज्य सरकार मुकर रही है।

लगभग 600 करोड़ रु. की धनराशि राज्य सरकार को विभिन्न निजी स्कूलों को देनी है और वह सिर्फ वादे पर वादे करती जा रही है जबकि वादा तो यह था कि गरीब के बच्चे को मुफ्त शिक्षा देने का संवैधानिक इंतजाम इस तरह किया जायेगा कि उसका खर्चा केन्द्र व राज्य सरकार मिलकर उठाएंगी। यह कानून बेशक मनमोहन सरकार के काबिज रहते बनाया गया था मगर इसे लागू करने का भरोसा हर पार्टी की सरकार को देना था। लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यही होती है कि इसमें खैरात में दी गई इमदाद या सुविधा के कोई मायने नहीं होते बल्कि पुख्ता तौर पर आम लोगों को दिए गए संवैधानिक अधिकारों के मायने होते हैं। लोकतन्त्र और कम्युनिस्ट प्रणाली अथवा तानाशाही में यही अंतर होता है। अतः हर चुनाव हमें सजग करता है कि सरकार ने लोगों को कितने अधिकारों से लैस किया है।

कुछ लोग इसमें कर्तव्य की बात भी जोड़ कर सरकार की जिम्मेदारी हल्की करना चाहते हैं जबकि आम आदमी के कर्तव्य की सच्चाई सरकार के कर्तव्य पर सच्चा उतरने पर निर्भर करती है। यदि महाराष्ट्र सरकार ने अपने हिस्से का धन स्कूलों के खाते में जमा करा दिया होता तो क्यों आज मुम्बई के 100 से ज्यादा स्कूल बन्द होकर हड़ताल पर जाते और बच्चों के मां-बाप सड़कों पर प्रदर्शन करने को मजबूर होते? किन्तु राष्ट्र के प्रति निष्ठा के मामले में किसी प्रकार की मोहलत दिए जाने की गुंजाइश किसी भी स्तर पर नहीं दी जा सकती। इसमें भी सरकार और आम आदमी में कोई फर्क नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में हमें मेघालय के राज्यपाल महामहिम तथागत राय के अमल की तसदीक करनी होगी।

इस राज्य के संविधान के मुखिया के पद पर बैठे श्री राय सीधे तौर पर अपने कर्तव्यों को ठोकर मारकर भारत के आम आदमी को भी अपने कर्तव्यों का पालन न करने की प्रेरणा दे रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत की एकता को तोड़ने की खुलेआम वकालत करने वाला व्यक्ति किस प्रकार किसी भी राज्य के संवैधानिक मुखिया के पद पर बैठा रह सकता है जबकि वह संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति का प्रतिनि​िध होता है। तथागत राय का भारत के लोगों से यह अपील करना कि वे कश्मीर और कश्मीरी माल का बहिष्कार करें, भारत की अखंडता और एकता पर किसी बाहरी फौजी हमले से कम नहीं है क्योंकि वह भारतीय संघ के एक अभिन्न और अटूट हिस्से को भारत से अलग करने की अपील कर रहे हैं। यह सीधे राष्ट्रद्रोह का मामला बनता है।

हमारे पुरखों ने जो यह महान संवैधानिक-लोकतान्त्रिक विरासत हमें सौंपी है उसी का कमाल था कि हमने 1947 में अंग्रेजों से लुटे-पिटे इस भारत को उन बुलन्दियों तक पहुंचा दिया जहां पहुंचने में किसी भी मुल्क को सदियां लग सकती हैं। राष्ट्रीय अखंडता पर किसी भी प्रकार की संवेदनहीनता हमें बहुत महंगी पड़ सकती है क्योंकि भारत विभिन्न संस्कृतियों का इतना अनूठा संगम है कि अंग्रेज भी इसकी एकता को तब तक नहीं तोड़ सके जब तक कि उन्हें मुहम्मद अली जिन्ना की शक्ल में एक ऐसा इंसान नहीं मिल गया जिसने हिन्दू और मुसलमानों को ही दो नस्लों का बता दिया। भारत को तोड़ने का यही औजार बना। तथागत राय को जिन्ना की मानसिक औलाद के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि भारत के कश्मीर को ही भारतीयों से अलग करने की हिमाकत दिखाई है।

फौजों का काम देश की सीमाओं की सुरक्षा करना होता है मगर इन सीमाओं के भीतर रहने वाले लोगों का कर्तव्य एक-दूसरे के साथ मिलकर इसी फौज को मजबूती देने का होता है क्योंकि फौज में भर्ती तो इसी सीमा में रहने वाले लोग होते हैं और हकीकत में हजारों कश्मीरी नागरिक भी हमारी फौज में अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं। इसलिए जरूरी है कि हम कर्तव्य बोध की शुरूआत ऊपर से करते हुए आम जनता को सन्देश दें कि पूरा भारत उन राज्यों का संघ है जिन्हें मिलाकर इसकी भौगोलिक सीमाएं तय हुई हैं। ‘जय भारत-जय भारती’ का अर्थ अब क्या राज्यपालों को भी समझाना पड़ेगा?

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