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जनता कर्फ्यू से लाकडाऊन-3 तक

लाॅकडाऊन की तीसरे चरण की समाप्ति में अब केवल एक सप्ताह का समय शेष रह गया है मगर आगे का रास्ता साफ नजर नहीं रहा है।

लाॅकडाऊन की तीसरे चरण की समाप्ति में अब केवल एक सप्ताह का समय शेष रह गया है मगर आगे का रास्ता साफ नजर नहीं  रहा है। कोरोना संक्रमण मामलों की रफ्तार हालांकि तेजी से बढ़ रही है मगर ये मुख्यतः संक्रमित क्षेत्रों से ही आ रहे हैं। 22 मार्च को ‘जनता कर्फ्यू’ के बाद 24 मार्च की अर्धरात्रि से लागू लाॅकडाऊन के 47 दिन पूरे हो जाने के बाद आर्थिक गतिविधियां कमोबेश ठप्प हैं और लोग अपने रोजगार व धन्धे के लिए कुलबुला रहे हैं। देश को सुप्तावस्था से जागृत करने के लिए अब ऐसी  ‘दवा’ की जरूरत है जिसे पीकर जीवन की उमंगें फिर से हिलोरे मारने लगें परन्तु साथ ही कोरोना को पराजित करने की ललक भी प्रत्येक नागरिक के दिल में रहे। निश्चित रूप से यह कार्य सुगम नहीं है और बिना नागरिकों की सक्रिय व दमदार भागीदारी के बिना नहीं हो सकता। 
भारत के सन्दर्भ में हमें ध्यान रखना होगा कि यह देश उन लोगों का है जिसके 90 प्रतिशत से भी अधिक लोगों का राष्ट्रीय सम्पत्ति में केवल 27 प्रतिशत हिस्सा है और 73 प्रतिशत सम्पत्ति पर दस प्रतिशत से भी कम लोगों का कब्जा है। अतः सरकार को भविष्य में जो भी कदम उठाना होगा वह 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या के हितों को ध्यान में रख कर ही उठाना होगा। एक सीधा रास्ता यह दिखाई देता है कि कोरोना के मरीजों की संख्या साठ हजार के पार जाने के बावजूद इसमें से तीस प्रतिशत के लगभग लोग भले-चंगे होकर घर जा रहे हैं, अतः चिकित्सीय ढांचे का विस्तार करके और इसे मजबूत करके लाॅकडाऊन को समाप्त करने का जोखिम उठाना होगा जिससे 90 प्रतिशत से अधिक लोग अपने काम-धंधों में लग सकें और कोरोना को पराजित करने की अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी समझते हुए इससे दूर रहने के साधन अपना सकें। माना कि भारत समेत पूरी दुनिया के लोगों के लिए यह अनुभव नया है क्योंकि 1918 में  ‘इनफ्लैंजा’ महामारी के बाद 100 साल बाद एेसी महामारी फैली है जिसने दुनिया भर की सरकारों को हिला रख दिया है परन्तु भारत के लोगों ने जिस संयम व आत्मानुशासन के साथ (कुछ अपवादों को छोड़ कर) इस बीमारी का मुकाबला करने में सरकारी प्रशासन तन्त्र के साथ सहयोग करते हुए कदमताल की है वह अनुकरणीय है।
 भारत के गांवों में अनपढ़ समझे जाने वाले लोगों तक ने उस सावधानी (दो गज की दूरी) को अंगीकार करने में झिझक नहीं दिखाई जिससे कोरोना को दूर रखा जा सके, परन्तु यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि दो गज की दूरी कोई उपचार नहीं बल्कि रक्षात्मक कदम है। उपचार प्रतिरोधी दवाएं ही हैं अतः आर्थिक गतिविधियों को हम अनिश्चितकाल के लिए बन्द नहीं रख सकते।
 राष्ट्रहित में हमें कठोर फैसले करने ही होंगे और लोगों में आत्मबल पैदा करना ही होगा कि वे कम से कम जोखिम उठा कर अपने-अपने काम धंधों में लगें और राष्ट्र के विकास की धारा को आगे बढ़ाने में सहयोग करें क्योंकि लाॅकडाऊन आगे बढ़ाने का मतलब यह होगा कि सरकार का अपने व्यापक चिकित्सीय व उपचार ढांचे में विश्वास नहीं है और वह हल्का सा भी जोखिम उठाने को तैयार नहीं है। हालांकि इस तर्क को आसानी से यह कह कर काटा जा सकता है कि सरकार ने लाॅकडाऊन दो व तीन के दौरान ही आर्थिक गतिविधियां शुरू करने के बारे कई प्रकार की छूट दीं और रोजगार में लगे लोगों को प्रेरित करने का प्रयास किया परन्तु असलियत यह है कि जमीन पर इसका कोई असर नहीं हो पाया क्योंकि हर धंधा दूसरे धंधे से जुड़ा हुआ है और एक के शुरू हुए बगैर दूसरे के खुलने का कोई मतलब नहीं निकलता है। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा गुण यह होता है कि इसमें आर्थिक स्रोतों का विसंचयन ऊपर से नीचे की ओर होता है। 
यह बेवजह नहीं है कि 1991 से आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद भारत में गरीबी की परिभाषा ही बदल गई और गांवों के शहरीकरण में जबर्दस्त तेजी आयी। मसलन अब गांवों में बाइसिकिल की जगह मोटरसाइकिल ने ले ली है, रेडियो की जगह टेलीविजन ने एवं चिट्टी की जगह मोबाइल फोन ने। ये सब आर्थिक उदारीकरण के ही लाभ हैं, इन्हें नजर अन्दाज करना सच से मुंह चुराने जैसा होगा, परन्तु इस सबकी बहुत बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी है और वह है ‘सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा’ की। आर्थिक उदारीकरण में यह जोखिम उठा कर गांवों के शहरीकरण का दौर आगे बढ़ा है। इसकी शर्त नौकरी में अस्थायी भाव की स्थापना और निजीकरण का बेहिसाब पांव पसारना है मगर इससे आय का विसंचयन ऊपर से नीचे की ओर जरूर हुआ इसका अनुपात बेशक बहुत कम है क्योंकि पूंजी का संचयन आज भी भारत में एक प्रतिशत लोगों के हाथ में ही है मगर यह तो स्वीकार करना ही होगा। आय का विसंचयन पूंजी रूप में न होकर प्रकार (काइंड) में हुआ है। अतः बहुत जरूरी है कि 90 प्रतिशत से ऊपर जनता को काम धन्धे की सुध लेने की इजाजत दी जाये। काम धन्धा चलाने के लिए नागरिक अपनी जान की सुरक्षा के प्रति सबसे पहले चिन्तित नहीं होंगे तो धंधा कैसे चलेगा? इसलिए जनता कर्फ्यू से लाॅकडाऊन-3 तक की परिस्थितियों का हमें वैज्ञानिक विश्लेषण करके अगला कदम उठाना चाहिए।

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