अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे जसवंत सिंह का निधन हो गया। वे लम्बे समय से बीमार थे। राजनीति और समाज को लेकर उनका नजरिया बहुत अलग था। इसी अलग दृष्टिकोण को लेकर उन्हें हमेशा याद किया जाएगा। हमने कई व्यक्तित्व देखे हैं जिनका विवादों से गहरा रिश्ता रहा है, ऐसे ही व्यक्तित्व थे जसवंत सिंह। भारतीय जनता पार्टी को मजबूत करने में उनका खासा योगदान रहा। मेरे पिता अश्विनी कुमार की उनसे लम्बी राजनीतिक चर्चाएं होती थीं। पिताश्री के अटल जी से भी बहुत आत्मीय संबंध थे। उनकी सरकार में जसवंत सिंह ने विदेश, रक्षा और वित्त जैसे तीनों अहम विभाग सम्भाले।
भारतीय जनता पार्टी को उत्तर भारत में हिन्दुत्ववादी पार्टी की छवि से निकाल कर सर्वमान्य पार्टी के तौर पर स्थापित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे से गांव जसोल में जन्मे जसवंत सिंह एक ऐसे राजनीतिज्ञ थे जो अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत से लेकर कोमा में चले जाने तक लगातार सक्रिय रहे। उन्होंने रेगिस्तानी गांव से दिल्ली के सियासी गलियारों तक लम्बा सफर तय किया। अजमेर के मेयो कालेज से पढ़ाई और फिर आर्मी ज्वाइन करने के बाद 1966 में अपनी नाव राजनीति की नदी में उतार ली। उनकी नाव को सहारा मिला भैरों सिंह शेखावत रूपी पतवार का। 1980 में वे पहली बार राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए थे।
जसवंत सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी का हनुमान कहा जाता रहा। वे अटल जी के लिए संकट मोचक की तरह रहे। 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद जब भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए ताे अटल जी भी कुछ पलों के लिए परेशान हुए, तब दुनिया को जवाब देने के लिए अटल जी ने उन्हें ही आगे किया था। तब अटल जी ने देशवासियों को आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करने के लिए तैयार करने का संकल्प लिया था। तब उन्होंने ही अमेरिका से बातचीत की थी।
कंधार विमान अपहरण कांड के समय जसवंत सिंह विदेश मंत्री थे। तीन आतंकवादियों को कंधार छोड़ने वह उनके साथ एक ही विमान में गए थे। शुरूआत में जसवंत सिंह आतंकवादियों को छोड़ने के खिलाफ थे लेकिन बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय के आगे बिलखते अपहृत यात्रियों के परिजनों को देखकर उनका मन बदल गया। तब सरकार ने विवश होकर आतंकवादियों को छोड़ने का फैसला किया, मगर मौके पर गड़बड़ न हो इसलिए जसवंत सिंह को आतंकवादियों के साथ कंधार भेजा गया। जसवंत सिंह को मालूम था कि इस फैसले के लिए उन्हें कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा, फिर भी वे कंधार गए। 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भी उनकी भूमिका अहम रही। जसवंत सिंह की विद्वता, अंग्रेजों से भी अच्छी अंग्रेजी और सोच-समझ कर बोलने के अंदाज के कारण वे हमेशा समकालीन नेताओं से अलग दिखाई देते थे। उन्हें संगीत, किताबों और अपनी संस्कृति से बेहद लगाव रहा। वे खुद को लिबरल डेमोक्रेट कहते थे लेकिन जसवंत सिंह हमेशा विवादों में घिरे रहे, लेकिन उन पर कोई भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा।
2005 में लालकृष्ण अडवानी जब लाहौर गए थे तो उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष होने का तमगा प्रदान किया था। उसके चार साल बाद यानी 2009 में जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक जिन्ना-इंडिया पार्टीशन इंडिपेंडेंस में जिन्ना की तारीफ कर डाली और पंडित जवाहर लाल नेहरू की आलोचना करते हुए उन्हें भारत के विभाजन के लिए दोषी ठहराया। जिन्ना के जिन से भाजपा पहले ही घिरी हुई थी। भाजपा अपने आपको इस विवाद से अलग रखना चाहती थी, लेकिन जसवंत सिंह की किताब ने पुराने जख्म खोल दिए थे। विवाद इतना बढ़ा कि जिन्ना पर विवादित पुस्तक लिखने के लिए जसवंत सिंह को भाजपा ने बर्खास्त कर दिया। चुनावों में भाजपा की पराजय के बाद जसवंत सिंह ने कुछ बुनियादी मुद्दे उठा कर पार्टी नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर दिया। राजनीति में अर्श भी होता है और फर्श भी होता है लेकिन उन्होंने अपनी राजनीति अपनी शर्तों पर की। भाजपा में रहते हुए भी वे हिन्दुत्व के राजनीतिकरण के पक्षधर कभी नहीं रहे। उन्हें पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों का जबरदस्त आत्मीय समर्थन हासिल था। 2001 में संसद पर आतंकवादी हमले के बाद जब सभी राजनीतिक दल और देश का जन-जन पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई के लिए एकमत था। यहां तक कि सेना भी सीमा पर तैनात हो चुकी थी। अटल जी भी आर-पार की लड़ाई का ऐलान कर चुके थे लेकिन जसवंत सिंह ने युद्ध रोकने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। वे कहते थे कि युद्ध से दोनों देशों के रिश्ते कभी सुधर नहीं सकते, बल्कि नुक्सान ही होता है। जसवंत सिंह ने कहा था कि भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश एक ही सिजेरियन प्रसव से पैदा हुई संतानें हैं। वैचारिक मतभेदों के चलते भाजपा उनसे अलग हो गई थी लेकिन उन्हें भाजपा के कर्णधार के रूप में हमेशा याद रखा जाएगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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