दिल्ली में बेकाबू भीड़ ने पीट-पीटकर आटो ड्राइवर अविनाश कुमार की हत्या कर दी जबकि दो अन्य को भी इतना पीटा कि वे अस्पताल में जिन्दगी के लिए जंग लड़ रहे हैं। इन पर बैट्री चोरी का आरोप था। इससे पहले नरभक्षी होने की अफवाह के चलते लोगों ने अफ्रीकी नागरिकों पर हमला कर दिया था। तंजानिया और नाइजीरियाई लोगों पर हमला इसलिए किया गया क्योंकि इस तरह की अफवाह फैल गई थी कि उन्होंने 16 वर्षीय लड़के का अपहरण कर उसे मार डाला और उसे पका कर खा लिया। पुलिस को भी ऐसी काल आई थी जिसमें एक मिहला ने कहा था कि उसके बेटे का नाइजीरियाई लोगों ने अपहरण कर लिया है। पुलिस की जांच में ऐसा कुछ नहीं पाया गया। भीड़ द्वारा लोगों की पीट-पीटकर हत्याओं के मामले लगभग हर राज्य से आ रहे हैं। पहले कहा जाता था कि मॉब लिंचिंग या अफवाह पर हिंसक भीड़ के जुटने की घटनाएं दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में ही होती हैं लेकिन राजधानी दिल्ली के व्यस्ततम इलाकों में भी अब ऐसी घटनाएं होने लगी हैं। पिछले वर्ष ग्रेटर नोएडा में भी स्थानीय लोगों ने अफ्रीकी छात्रों पर हमला कर दिया था। लोगों को संदेह था कि उन्होंने 17 वर्षीय लड़के का अपहरण कर उसे ड्रग्स दी थी, जिससे लड़के की मौत हो गई थी।
राजधानी में हाल ही में हुई घटनाओं ने बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं। पहला सवाल तो यह है कि क्या लोगों का कानून-व्यवस्था पर से भरोसा उठ गया है? अगर किसी ने कोई अपराध किया है तो उसे सजा देने का काम पुलिस और न्याय व्यवस्था का है। भीड़ को कोई हक नहीं कि वह किसी की भी पीट-पीटकर हत्या कर दे। अगर सड़कों पर इन्साफ की अनुमति दे दी जाए तो पूरे देश में अराजकता की स्थिति पैदा हो जाएगी। लोकतंत्र में ऐसी घटनाओं को सहन नहीं किया जाना चाहिए। दूसरा पहलू यह भी है कि राजधानी में चोरी, छीना-झपटी की घटनाएं इतनी बढ़ गई हैं कि आप बस में सफर कर रहे हैं तो बस से उतरते ही कोई न कोई यात्री पर्स चोरी होने या मोबाइल चोरी होने की शिकायत करता दिखाई देता है। महिलाओं से पर्स और मोबाइल छीने जा रहे हैं। लोगों के फ्लैटों के पिछवाड़े लगी पानी की मोटरें, वाहनों की बैट्रियां चोरी होने की घटनाएं सामान्य हो चुकी हैं। मोटर साइकिल सवारों के गिरोहों का आतंक पूरी तरह फैल चुका है। भले ही ऐसी वारदातें पुलिस की नजर में छोटी हों लेकिन आम आदमी की पीड़ा बहुत ज्यादा है।पुलिस यह कहकर पल्ला झाड़ लेती है कि हर गली पर पुलिस तैनात नहीं की जा सकती। आदमी को खुद अपनी सुरक्षा के प्रति सतर्क होना चािहए। इन घटनाओं से लोगों की सहनशीलता खत्म हो रही है, इसलिए उनके भीतर का आक्रोश सड़कों पर फूट रहा है। झूठी अफवाहों के चलते भीड़ अब तक कई लोगों को मौत के घाट उतार चुकी है। भीड़ का मनोविज्ञान सामाजिक विज्ञान का एक छोटा सा हिस्सा है जिसकी प्रासंगिकता समाज में स्थिरता आैर कानून-व्यवस्था के ऊपर भरोसे के बाद खत्म हो चुकी है।
भीड़ खुद को सही मानती है और अपनी हिंसा को व्यावहारिक एवं जरूरी बताती है। अखलाक के मामले में भीड़ की प्रतिक्रिया और कठुआ व उन्नाव मामले में बलात्कार आैर हत्या के आरोपियों का बचाव करना दिखाता है कि भीड़ खुद ही न्याय करना आैर नैतिकता के दायरे निर्धारित करना चाहती है। क्या सभ्य समाज में सोचने-समझने की क्षमता खत्म हो रही है? यदि ऐसा है तो इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि समाज असहिष्णुता की खतरनाक हद तक पहुंच चुका है। भीड़ की हिंसा के पीछे कारण अलग-अलग होते हैं। कभी हिंसा का प्रदर्शन ताकत दिखाने के लिए किया जाता है। अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमलों के पीछे भी यही कारण होता है। जान लेने वाली भीड़ सोशल मीडिया के नियमों पर चलती है और हिंसा को आगे बढ़ाती है। भीड़ जुटाने वाली डिजिटल हिंसा को अलग तरह से समझने की जरूरत है। तर्कहीन हो रही भीड़ समाज का खतरनाक लक्षण है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में काफी अफ्रीकी छात्र रहते हैं। यह धारणा लोगों में आम पाई जाती है कि ये नशीले पदार्थों की बिक्री करते हैं। कई बार विदेशियों पर नस्लभेदी टिप्पणियां की जाती हैं, उनसे दुर्व्यवहार किया जाता है। अफ्रीकियों पर हमलों की घटनाओं का असर केवल स्थानीय ही नहीं होता बल्कि इसका असर भारत-अफ्रीका सम्बन्धों पर पड़ता है। इससे कूटनीतिक रिश्ते बिगड़ सकते हैं आैर इसका असर अफ्रीकी देशों में रह रहे भारतीय समुदाय पर भी पड़ सकता है।
मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाया था आैर राज्यों से जवाब तलब किये थे कि गौरक्षा और अन्य कारणों से हो रहे उपद्रव रोकने के लिए क्या-क्या कदम उठाए हैं। हैरानी होती है यह जानकर कि जिन लोगों को मॉब लिंचिंग का आरोपी बनाया गया है और जिनके खिलाफ आरोप पत्र दायर किए गए हैं, वे लोग चुनाव लड़ने के लिए नामांकन पत्र दाखिल कर रहे हैं। राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का पालन ही नहीं किया। शीर्ष अदालत ने राज्य सरकारों से कहा था कि आम जनता को इस बारे में जागरूक करने के लिए रेडियो, टीवी और अन्य प्लेटफार्मों तथा गृह विभाग एवं राज्यों की पुलिस की अिधकृत वेबसाइटों पर इस बात का प्रचार करना चाहिए कि किसी भी तरह की भीड़ हिंसा के कानून के तहत गम्भीर पिरणाम भुगतने होंगे। कुछ राज्य सरकारों ने इस दिशा में काम किया लेकिन पुलिस की सुनता कौन है? भारतीय समाज के लिए यह भयावह मुकाम है, नागरिकता खामोश है, यही इस समय की सबसे बड़ी गलती है। भावनाओं आैर नफरत के हथियारों को नुकीला बनाया जा रहा है ताकि लोग आपस में लड़ें। डर इस बात का भी है कि कहीं देश एक उन्मादी भीड़ में न बदल जाए।