राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह ने जिस तरह खुलकर चुनावी राजनीति में शिरकत करने का प्रयास किया है उससे भारत की लोकतान्त्रिक संवैधानिक मर्यादाओं का सीधा उल्लंघन हुआ है। कल्याण सिंह जीवन भर सक्रिय राजनीति में रहे हैं। अतः वह चुनावी दौर के जोश में आ गये हो ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक राजनीतिज्ञ से बेहतर कोई दूसरा इस हकीकत को नहीं समझ सकता कि संवैधानिक मर्यादाएं क्या होती है ? आजादी के सत्रह सालों के दौरान इस देश में 90 प्रतिशत से भी ज्यादा राजनीतिज्ञ ही राज्यपाल रहे हैं और उन्होंने अपने पद की गरिमा के अनुरूप कार्य भी किया है। वस्तुतः राज्यपाल के पद पर बैठ कर किसी भी राजनीतिज्ञ को अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है क्योंकि मूलतः राजनीतिज्ञ होते हुए उसे ‘अराजनैतिक’ होना पड़ता है और पूरी निष्ठा के साथ संविधान का पालन होते हुए देखना होता है क्योंकि अपने राज्य में वही संविधान का संरक्षक होता है जिसके लिए उसे राष्ट्रपति अपना प्रतिनिधिबनाते हैं। यह पद सजावटी भी नहीं है।
संविधान निर्माताओं ने इस पद की स्थापना भारत के संविधान की उस भावना को अक्षरशः सत्यापित करने की गरज से की थी जिसमेंकहा गया है कि भारत एक ‘राज्यों का संघ’ है। इस राज्यों के संघ भारत का संचालन संविधान से करने के लिए ही राज्यों की चुनी हुई सरकारों को बांधने के लिए राज्यपाल की नियुक्ति संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति महोदय करते हैं और सुनिश्चित करते हैं कि किसी भी राज्य में किसी भी क्षेत्रीय राजनैतिक दल या राष्ट्रीय दल की सरकार संविधान की सीमा से बाहर जाकर अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन न करे भारतीय संविधान में राज्य सरकारों के भी अपने विशिष्ट अधिकार हैं। अतः हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत गंभीर चिन्तन और मनन करने के बाद प्रत्येक राज्य में राज्यपाल रखने की व्यवस्था की और सुनिश्चित किया कि उसका प्रत्येक कार्य व आचरण ‘अराजनैतिक’ सदाचार का गवाह हो।
संविधान सभा में राज्यपाल के पद के बारे में भी जमकर बहस हुई थी तब जाकर यह तय किया गया था कि राज्यपाल की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के पास इस प्रकार होगा कि वह उनकी ‘खुशी’ का मोहताज रहे। इसीलिए राज्यपाल का कोई निश्चित कार्यकाल तय नहीं किया गया क्योंकि वह तब तक ही अपने पद पर रह सकता है जब तक कि राष्ट्रपति महोदय उससे ‘प्रसन्न’ हैं मगर इस प्रसन्नता का मतलब बहुआयामी है। यह राज्यपाल के निजी जीवन से लेकर अपने कार्य निष्पादन में किये गये आचरण को भौतिक व वैचारिक आदि की तराजू पर तोलता रहता है जिसका उल्लंघन करने मात्र से ही राष्ट्रपति नाराज हो सकते हैं और राज्यपाल को पदमुक्त किया जा सकता है। इस मामले में हमारे सामने कई उदाहरण हैं जब आध्र प्रदेश के राज्यपाल स्व. नारायण दत्त तिवारी को निजी आचरण के सही न होने की वजह से हटाया गया और श्री गुलशेर अहमद को सार्वजनिक रूप से विशिष्ट राजनैतिक विचारधारा का प्रसार करने की वजह से हटाया गया।
श्री कल्याण सिंह यहीं पकड़े गये हैं वह अपने मूल शहर अलीगढ़ में जाकर विचार व्यक्त करते हैं कि वर्तमान लोकसभा चुनावों में भाजपा का जीतना जरूरी है जिससे श्री नरेन्द्र मोदी पुनः प्रधानमन्त्री बन सकें। ये विचार उनके अपने मनन के लिए हो सकते हैं मगर किसी राज्यपाल के नहीं क्योंकि संविधानगत चुनावी प्रक्रिया को किसी भी तरह से प्रभावित करने का वह कोई कार्य नहीं कर सकते। मगर कल्याण सिंह भूल गये कि वह अब अलीगढ़ के राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि राजस्थान के राज्यपाल हैं और राज्यपाल का चुनावी मामलों से कोई मतलब नहीं होता है। चुनाव आचार संहिता लगने के बाद कानूनी तौर पर वह भी चुनाव आयोग की निगरानी में आ जाता है। मगर माननीय कल्याण सिंह को विवाद खड़ा करने का पुराना शौक है।
हुजूर जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री थे तो कह बैठे थे कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता कैसे हो सकते हैं ? कोई भी व्यक्ति किसी राष्ट्र का पिता कैसे हो सकता है, वह केवल राष्ट्रपुत्र हो सकता है। यह उनकी एक राजनीतिज्ञ के तौर पर सोच थी लेकिन इतिहास के एक अज्ञानी शिक्षार्थी के तौर पर ही यह ज्ञान था। उन्हें शायद यह ज्ञान नहीं था कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता के नाम से सम्बोधित करने वाले पहले व्यक्ति नेता जी सुभाषचन्द्र बोस थे जिनका नाम लेकर उनकी पार्टी न जाने क्या-क्या बातें किया करती थी लेकिन एक राजनीतिज्ञ के तौर पर उनके इस मत पर चर्चा भी हुई थी।
एक राजनीतिज्ञ चर्चा में रहना चाहता है इससे कोई इनकार नहीं कर सकता मगर एक राज्यपाल तभी चर्चा में आना पसन्द करता है जब उसके कार्य का परीक्षण संविधान की कसौटी पर किया जाये और वह सोलह आने खरा साबित हो लेकिन आजकल हर जगह कुछ न कुछ ऐसा होता रहता है जिससे उसूलों से चलने वाले इस देश का ‘रूल’ बेफिजूल ही सुर्खियों में आ जाता है। ऐसा ही काम श्रीमान कल्याण सिंह कर बैठे हैं बेहतर हो वह स्वयं ही अपने पद से उसी प्रकार इश्तीफा दे दें जिस प्रकार श्री गुलशेर अहमद ने मध्यप्रदेश में राज्यपाल रहते हुए अपने पुत्र के चुनाव प्रचार में भाग लेते हुए पकड़े जाने पर दे दिया था। ऐसा करने से राष्ट्रपति महोदय को उन्हें बर्खास्त नहीं करना पड़ेगा क्योंकि चुनाव आयोग ने जब राष्ट्रपति महोदय को इस बारे में अपनी नाराजगी से अवगत करा दिया है तो उनकी खुशी कायम नहीं रह सकती।