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कर्नाटक : बोलो जनता की जय

कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस पार्टी की प्रचंड जीत के लिए यदि किसी को सर्वप्रथम श्रेय दिया जा सकता है तो वे इस राज्य के नागरिक मतदाता ही हैं क्योंकि भाजपा, कांग्रेस व जनता दल (स) समेत विभिन्न अन्य दलों के प्रचार से प्रभावित हुए बिना स्वयं को भारत के लोकतन्त्र का मालिक साबित किया है और सिद्ध किया है कि उनकी राजनैतिक चेतना व सजगता को कोई भी पार्टी चुनौती नहीं दे सकती। वास्तव में कर्नाटक में लोकतन्त्र जीता है और उस संविधान की विजय हुई है जिसे 26 जनवरी, 1950 को इस देश के सभी राज्यों के लोगों ने अपने पर लागू किया था। कर्नाटक की जनता ने सबसे बड़ा काम यह किया है कि उन्होंने राजनैतिक दलों के नेताओं को सबक सिखाया है कि हिन्दू-मुसलमान या लिंगायत या वोकालिंग्गा होने से पहले वे नागरिक हैं और जिस राज्य सरकार के गठन के ​िलए वे मतदान कर रहे हैं, उसका सबसे पहला काम उनकी व राज्य की समस्याएं समाप्त करना है। 

भारत के लोकतन्त्र में जो त्रिस्तरीय प्रशासन प्रणाली गठित की गई थी उसमें प्रत्येक स्तर (नगर पालिका, राज्य सरकार व केन्द्र सरकार) पर अपनी मनमाफिक सरकारों का गठन करते समय इनके मुद्दे भी अलग होंगे और उनका विमर्श भी अलग होगा। अतः जो राजनैतिक नेता भारत के मतदाताओं की समस्याओं का इलाज केवल किसी एक ही घुट्टी को पिलाने को मानते हैं, उनके लिए यह चुनाव सबक की तरह है। इन चुनाव परिणामों का विश्लेषण कथित राजनैतिक पंडित अपने-अपने हिसाब से कर रहे हैं मगर उन्हें दीवार पर लिखी इस इबारत को पढ़ने में कठिनाई हो रही है कि इन चुनावों को स्वयं कर्नाटक की जनता ही काबिज सरकार से लड़ रही थी। कांग्रेस पार्टी ने सिर्फ उसे अपना कन्धा देकर ठोस विकल्प देने का काम किया है। वास्तव में यह लड़ाई दो विचारधाराओं के बीच भी थी क्योंकि चुनाव प्रचार में वह विमर्श भी पैनी धार पकड़ रहा था जिसमें समस्याओं के लिए स्वयं नागरिकों को ही दो समुदायों के बीच बांट कर नागरिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार बनाया जा रहा था। 

कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी ने कर्नाटक में अपनी पार्टी की जीत को नफरत के ऊपर मोहब्बत की जीत बताते हुए साफ भी करने की कोशिश की है। पिछले वर्ष उनके द्वारा की गई ‘भारत जोड़ो’ यात्रा व्यर्थ नहीं गई है। दूसरी तरफ भाजपा ने कर्नाटक में अपनी पराजय को पूरे सम्मान के साथ स्वीकार करते हुए इसका दोष खुद अपने सिर पर लेने में भी हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। भारत के लोकतन्त्र की यही शान है कि जीतने व हारने वाली पार्टियां जनता द्वारा दी गई जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा के साथ स्वीकार करती हैं और उपलब्धियों व गलतियों की समीक्षा भी करती हैं। चुनावी हार-जीत लोकतन्त्र की सतत् प्रक्रिया होती है और कोई भी पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि वह लगातार चुनाव जीतती ही रहेगी। इसकी वजह यह होती है कि राजनैतिक प्रणाली लगातार मतदाताओं को ठोस विकल्प देती रहती है परन्तु कुछ विश्लेषक इन चुनाव परिणामों को 2024 के लोकसभा चुनावों से जोड़ कर देखने का प्रयास कर रहे हैं। बेशक यह माना जा सकता है कि कांग्रेस की विजय से विपक्षी दलों का मनोबल बढे़गा और उनमें इकट्ठा होने का उत्साह भी पैदा होगा। मगर इसके समानान्तर यह भी सत्य है कि राष्ट्रीय चुनावों में मतदाताओं के मुद्दे दूसरे होंगे जिन्हें हल करने के लिए उन्हें सत्तारूढ़ भाजपा के स्थान पर एक ठोस विकल्प की तलाश भी रहेगी। यह विकल्प तभी बन सकता है जब भाजपा की विचारधारा के विपरीत कोई समन्वित विचारधारा मूलक तैयार किया जाये और इसे लेकर विभिन्न विपक्षी दलों के बीच मतभेद स्पष्ट हैं। अतः अभी से यह निष्कर्ष निकाल लेना कि कर्नाटक का असर राष्ट्रीय चुनावों पर भी इसी तरह पड़ेगा, पूरी तरह गलत होगा। हां इतना जरूर कहा जा सकता है कि इसी वर्ष दिसम्बर महीने तक मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व तेलंगाना में होने वाले विधानसभा चुनावों में इनका असर दिखाई दे सकता है। 

एक तथ्य कर्नाटक चुनावों से और निकल कर आया है कि महंगाई व बेरोजगारी समेत भ्रष्टाचार ऐसे मुद्दे हैं जिनका मतदाताओं से सीधा सामना रहता है क्योंकि कर्नाटक की बोम्मई सरकार 40 प्रतिशत कमीशन सरकार के नाम से खासी बदनाम हो गई थी। इसके साथ हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि लोकतन्त्र में संविधान द्वारा प्रदत्त मूलभूत अधिकारों की मार्फत प्रत्येक नागरिक का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है और उनकी मजबूती ही अंततः लोकतन्त्र व राष्ट्र की मजबूती का प्रमाण होती है। अतः सामाजिक न्याय के मुद्दे को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। कर्नाटक में कांग्रेस के चुनाव जीतने के विभिन्न कारण गिनाये जा सकते हैं परन्तु भाजपा के चुनाव हारने का एक ही कारण है कि उसने जमीन पर मौजूद मुद्दों को अपने चुनावी विमर्श में शामिल करने की जहमत ही नहीं उठाई। लोकतन्त्र में जब भी राजनैतिक विमर्श जनता के बीच पनपे विमर्श से कट जाता है तो जनता स्वयं रहनुमा हो जाती है। 

‘‘तुम जाने तुमको गैर से जो रस्मो-राह हो 

हमको भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो।’’